Saturday, 14 September 2013

ग्रैंड मस्ती : बूब्स, एस और.……!

             
             जब निशाने पर औरत के अंग और उसके साथ सेक्स करने की कभी ख़त्म न होने वाली इच्छा हो तो वह ग्रैंड मस्ती है।  कम से कम, ग्रैंड मस्ती के निर्देशक इन्द्र कुमार और उनके तीन हीरो विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख और आफताब शिवदासानी यही सोचते हैं.
             ग्रैंड मस्ती कहानी है ( अगर इसे आप कहानी कह सकें तो ) तीन किरदारों अमर, मीत मेहता और प्रेम चावला की. इन भूमिकाओं को हिंदी फिल्मों के लगभग असफल अभिनेताओं रितेश देशमुख, विवेक ओबेरॉय और आफ़ताब शिवदासानी ने किया है. यह तीनों सेक्स के भूखे है. हरदम अपनी अपनी पत्नियों को बिस्तर पर ले जाने की जुगत में रहते हैं. एक दिन उन्हें अपने कॉलेज SLUT, जिसे वह स्लत कहते हैं बुलावा आता है. यह तीनो अपना सारा कामकाज छोड़ कर कॉलेज की लड़कियों के साथ मौज मस्ती यानि सेक्स करने की इच्छा से जाते हैं. वहां क्या होता है यह अंत तक अश्लील हाव भाव और संवादों की दास्ताँ है. यह सब किया गया है सेक्स कॉमेडी के नाम पर.
              रितेश देशमुख का करियर सोलो हीरो फिल्म लायक नहीं रहा. विवेक ओबेरॉय अब खलनायक बनने की राह पर हैं. अफताब शिवदासानी तो अब नज़र ही नहीं आते. फिल्म में अभिनेत्रियों की भरमार है. सोनाली कुलकर्णी मराठी अभिनेत्री हैं. कायनात अरोरा और वह हिंदी फिल्मों में अपना भाग्य आजमा रही हैं. करिश्मा तन्ना टीवी के लिए याद की जाती है. कायनात अरोरा ने मार्लो की भूमिका में, मरयम ज़कारिया ने रोज और ब्रुन अब्दुल्लाह ने मैरी के रोल में केवल अपने अंगों को उभारने और उत्तेजक ढंग से पेश करने को ही एक्टिंग समझा है. सुरेश मेनन अब अश्लील मुद्राओं में द्वीअर्थी संवाद बोलने के महारथी बन गए हैं. जब फिल्म में इतने 'प्रतिभावान' और 'सेक्सी' लोग जुटे हों तो ग्रैंड मस्ती अश्लील होगी ही. फिल्म हर प्रकार की अश्लीलता का प्रदर्शन करती है.
                मिलाप जावेरी ने अपने संवादों और चरित्र चित्रण के जरिये औरत को सेक्स ऑब्जेक्ट के तौर पर पेश किया है, जो तीन नायकों की कामुक इच्छाओं को पूरा करने के लिए हर समय तैयार रहती हैं. फिल्म में इस प्रकार की कल्पनाशीलता है, ताकि औरत का उत्तेजक और कामुक स्वरुप उभरे। तीनो हीरो कामुक मुद्राओं में नज़र आते हैं. फिल्म के तमाम पुरुष किरदारों के जननांग असली या नकली तौर पर चैतन्य रहते हैं. फिल्म का अंत अनीस बज्मी की नक़ल में और प्रदीप रावत के किरदार के जननांगों के उठाने के साथ ख़त्म होती है.
                यह एक बेहद निराशाजनक, घटिया और कमोबेश पोर्नो टाइप की फिल्म है. रही  के पसंद आने कि  तो पूरी फिल्म के दौरान हर सीन और संवाद में आवारा  सीटियाँ,तालियाँ और चीख चिल्लाहट उभरती रही. इससे यह साबित होता है कि पोर्नो फिल्मों के शौक़ीन दर्शकों के लिए सेंसर बोर्ड ने अच्छा मसाला परोस दिया है. 

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