Wednesday 26 October 2016

खेल फिल्मों को चाहिए बड़े सितारे और चुस्त स्क्रिप्ट !

श्रेष्ठ बाल फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीत चुकी डायरेक्टर सौमेंद्र पढ़ी की फिल्म बुधिया सिंह बोर्न टू रन इस शुक्रवार रिलीज़ हो रही है। उड़ीसा के वंडर बॉय के नाम से मशहूर बुधिया सिंह के जीवन पर बुधिया के पांच साल की उम्र में ४८ बार मैराथन में दौड़ने, उसके कोच के साथ जुड़े विवादों के बाद बुधिया का करियर ख़त्म होने की इस दास्ताँ में कई घुमाव और उतार चढ़ाव हैं, जो एक दिलचस्प फिल्म के लिए अच्छा कथानक साबित हो सकते हैं। लेकिन, इस फिल्म के साथ कोई बड़ा सितारा नहीं। मनोज बाजपेई बुधिया के कोच विरंची दास की भूमिका में हैं, लेकिन उनकी पहचान मसाला फिल्मों के हीरो से ज्यादा रीयलिस्टिक फिल्मों के हीरो वाली है। ऐसे हीरो फिल्म नहीं चलवा सकते। हिंदी की खेल फिल्मों का इतिहास गवाह है कि बॉलीवुड ने सुल्तान तक कई कथित खेल फ़िल्में बनाई हैं। इनमे क्रिकेट के अलावा हॉकी, एथलेटिक्स, फुटबॉल और बॉक्सिंग पर फ़िल्में शामिल हैं। लेकिन, ज़्यादातर खराब स्क्रिप्टिंग और बड़े सितारों का शिकार हो गई। 
क्रिकेट में फ्लॉप सुपर स्टार !
हिंदी में क्रिकेट पर बहुत सी फ़िल्में बनाई गई। इन फिल्मों में नए या कम पहचाने चेहरों से लेकर सुपर स्टार्स ने भी अभिनय किया। लेकिन, इनमे से कई फ़िल्में औंधे मुंह गिरी। बहुत से सुपर स्टार्स को क्रिकेट कतई रास नहीं आया। २००१ में लगान जैसी हिट फिल्म देने वाले आमिर खान ने अपने करियर की शुरुआत में ही क्रिकेट पर फिल्म अव्वल नंबर में अभिनय किया था। देव आनंद द्वारा निर्देशित फिल्म में आमिर खान ने उभरते क्रिकेटर की भूमिका की थी। मगर, १९९० में रिलीज़ देव आनंद की लिखी यह फिल्म कमज़ोर कथानक के कारण बुरी तरह से असफल हुई। ज़ाहिर है कि उस समय तक आमिर खान सुपर स्टार नहीं बने थे, लेकिन ख़राब कहानी पर क्रिकेट फिल्म से कोई सुपर स्टार भी असफल हो सकता है, इसका उदाहरण निखिल आडवानी की अक्षय कुमार और अनुष्का शर्मा अभिनीत फिल्म पटियाला हाउस हैं। यह फिल्म इंग्लैंड के गेंदबाज़ मोंटी पनेसर के करियर से प्रेरित फिल्म होने के बावजूद दर्शकों को प्रभावित नहीं कर सकी। रवीना टंडन ने २००३ में बतौर प्रोडूसर पहली फिल्म क्रिकेट पर स्टंप्ड बनाई थी। उन्होंने इस फिल्म में अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए सलमान खान और सचिन तेंदुलकर का स्पेशल अपीयरेंस भी करवाया था। लेकिन, यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर स्टंप आउट हो गई। लव स्टोरी (१९८१) से सुपर स्टार साबित हो रहे कुमार गौरव ने १९८३ में मोहन कुमार की क्रिकेट फिल्म आल राउंडर में मुख्य किरदार किया था।  लेकिन, यह फिल्म भी बुरी तरह से पिटी।  
कुछ दूसरी फ्लॉप फ़िल्में
ऐसे में, जबकि सुपर स्टार्स को क्रिकेट रास नहीं आ रहा है तो बाकी सितारों की क्या बिसात ! किटू सलूजा ने राहुल बोस के साथ तारे ज़मीन पर के बाल कलाकार जईन खान को लेकर क्रिकेट पर फिल्म चेन कुली की मेन कुली का निर्माण किया था। हॉलीवुड फिल्म लाइक माइक पर आधारित यह फिल्म एक तेरह साल के लडके की कहानी थी, जिसके हाथ कपिल देव का बैट लग जाता है। इसके बाद उसका करियर नाटकीय मोड़ लेता है। मंदिरा बेदी ने फिल्म मीराबाई नॉट आउट में क्रिकेट की दीवानी प्रशंसक की भूमिका की थी। इस फिल्म में अनिल कुंबले का कैमिया हुआ था। से सलाम क्रिकेट के दीवाने चार युवकों की कहानी थी, जो क्रिकेट खेलना चाहते थे। लेकिन, उनका स्कूल कुश्ती पर केन्द्रित था।  हैटट्रिक फिल्म एक विवाहित जोड़े की कहानी थी, जिनका वैवाहिक जीवन पति के क्रिकेट क्रेजी होने के कारण खतरे में पड़ जाता है। अभिनेता हरमन बवेजा ने भी एक क्रिकेट फिल्म विक्ट्री में अभिनय किया था। मैच फिक्सिंग पर वर्ल्ड कप २०११ टाइटल से एक फिल्म रिलीज़ हुई थी। कम पहचाने चेहरों वाली यह फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी। अभी क्रिकेट टीम के भूतपूर्व कैप्टेन मोहम्मद अज़हरुद्दीन पर फिल्म अज़हर फ्लॉप हुई है। 
क्रिकेट पर सफल फ़िल्में
कब बजट और मंझोले सितारों के साथ क्रिकेट पर कुछ सफल फ़िल्में भी बनी। निर्माता विधु विनोद चोपड़ा की राजेश मापुस्कर लिखित और निर्देशित फिल्म फेरारी की सवारी एक पारसी पिता और उसकी अपने बेटे का लॉर्ड्स में क्रिकेट खेलने का सपना पूरा कराने की कहानी थी। शर्मन जोशी ने इस फिल्म में पिता की भूमिका की थी। फिल्म को समीक्षकों द्वारा भी सराहा गया। निर्माता सुभाष घई की फिल्म इक़बाल एक गूंगे बहरे लडके इकबाल के क्रिकेट खेलने का सपना पूरा करने की कहानी थी। इस फिल्म में श्रेयस तलपडे ने गूंगे-बहरे इक़बाल और नसीरुद्दीन शाह ने उसके कोच की भूमिका की थी। अपने कलाकारों के प्रभावशाली अभिनय के कारण इक़बाल दर्शकों को आकर्षित कर पाने में कामयाब हुई थी। इस फिल्म के निर्देशक नागेश कुकनूर थे। इमरान हाशमी की फिल्म जन्नत और जन्नत २ क्रिकेट के खेल में सट्टेबाजी पर फ़िल्में थी। अपने गीत संगीत के कारण जन्नत को अच्छी सफलता मिली थी। लेकिन, जन्नत २ इतनी सफल नहीं हो सकी थी।  क्रिकेट और साम्प्रदायिकता पर अभिषेक कपूर निर्देशित सुशांत सिंह राजपूत अभिनीत फिल्म काई पो चे को बढ़िया सफलता मिली थी। 
फुटबॉल पर फ़िल्में
हिंदी में खेल फिल्मो के लिहाज़ से प्रकाश झा की डेब्यू फिल्म हिप हिप हुर्रे उल्लेखनीय है।  इस फिल्म में कॉलेज में फुटबॉल और फुटबॉल में राजनीति को दिखाया गया था। राज किरण ने मुख्य भूमिका की थी। यह पहली फिल्म थी, जिसने हिंदी फिल्म निर्माताओं को खेल फ़िल्में बनाने की दिशा में सोचने को मज़बूर कर दिया था। २००७ में यूटीवी मोशन पिक्चर्स ने फिल्म गोल या दे दना दन गोल का निर्माण किया था। यूके में दक्षिण एशियाई समुदाय के फुटबॉल खिलाड़ियों द्वारा प्रोफेशनल फुटबॉल में अपना सिक्का जमाने के प्रयास पर इस फिल्म को विवेक अग्निहोत्री ने निर्देशित किया था। मुख्य भूमिका मे जॉन अब्राहम, बिपाशा बासु, अरशद वारसी और बोमन ईरानी के नाम उल्लेखनीय हैं। इस फिल्म को औसत सफलता मिली थी। कश्मीर और फुटबॉल की पृष्ठभूमि पर पियूष झा की फिल्म सिकंदर उल्लेखनीय है। इस फिल्म में एक छोटा बच्चा अपने माँ-बाप के जेहादियों द्वारा मार दिए जाने के बाद कुपवाड़ा में रहने लगता है। वहां उसकी रूचि फुटबॉल में पैदा होती है। कैसे फूटबाल का खेल उस बच्चे को जिहादी बनने से रोकता है, फिल्म इसका प्रभावी चित्रण करती थी। 
दूसरे खेलों पर फ़िल्में
रवि एक अनुशासन पसंद सख्त मिजाज़ पिता है। वह चाहता है कि उसका इकलौता बेटा एथलेटिक्स की प्रतियोगिता जीते। अपने पिता की मर्ज़ी के कारण वह बच्चा घायल होने के बावजूद दौड़ता है और दूसरे स्थान पर आता है। इस फिल्म में पिता की भूमिका सुनील शेट्टी ने और उनके बेटे मयंक टंडन बने थे. यह फिल्म सफल नहीं हुई थी। लेकिन, बॉक्सिंग, दौड़ और हॉकी पर कुछ सफल फ़िल्में उल्लेखनीय हैं. वैसे यह सभी फ़िल्में बड़े सितारों वाली फ़िल्में थी। बॉक्सिंग पर निर्देशक ओमंग कुमार की रियल लाइफ फिल्म मैरी कोम में प्रियंका चोपड़ा ने मुख्य भूमिका की थी। बॉक्सिंग पर ही अनिल शर्मा की देओलों के साथ फिल्म अपने भी सफल हुई थी। भाग मिल्खा भाग में फरहान अख्तर ने अंतर्राष्ट्रीय धावक मिल्खा सिंह का किरदार किया था।  हॉकी की महिला टीम को विश्व कप जितवाने वाले एक दागी हॉकी फॉरवर्ड पर फिल्म चक दे इंडिया को शाहरुख़ खान की बेहतरीन एक्टिंग, शिमिट अमीन के निर्देशन और तमाम दूसरे कलाकारों के संतुलित अभिनय के कारण सफल हुई थी। सेना के धावक पान सिंह तोमर के डाकू बनाने की रियल स्टोरी पर तिग्मांशु धुलिया ने फिल्म पान सिंह तोमर का निर्माण किया था। इस फिल्म में इरफ़ान खान ने मुख्य किरदार किया था। शैलेश वर्मा की २०१४ में रिलीज़ फिल्म बदलापुर बॉयज कबड्डी पर आधारित फिल्म थी। मंसूर खान की फिल्म जो जीता वही सिकंदर दो कॉलेजों के बीच प्रतिस्पर्धा और साइकिल चैंपियन बनने की कहानी पर फिल्म में आमिर खान की केंद्रीय भूमिका थी। अरिंदम चौधरी की फिल्म रोक सको तो रोक लो को जो जीता वही सिकंदर से प्रेरित बताया जाता है। इस फिल्म में सनी देओल मुख्य भूमिका में थे। सैफ अली खान और रानी मुख़र्जी की फिल्म तारा रम पम कार रेसिंग पर फिल्म थी।  इस फिल्म को औसत सफलता मिली थी।   .
क्षेत्रीय भाषाओँ की खेल फ़िल्में
प्रकाश राज ने क्रिकेट को लेकर एक पिता और बेटे के बीच टकराव को लेकर फिल्म धोनी का निर्माण किया था . पिता अपने बेटे को एमबीए करवाना चाहता है, जबकि बेटे को क्रिकेट का दूसरा महेंद्र सिंह धोनी बनाने की ख्वाहिश है. यह फिल्म महेश मांजरेकर की मराठी फिल्म का तमिल और तेलुगु भाषा में रीमेक फिल्म थी. दक्षिण से बॉक्सिंग पर इरुधि शुत्तरू और जॉनी का निर्माण किया गया. १९९१ में दौडाक अश्विनी नाचाप्पा के जीवन पर तेलुगु फिल्म अश्विनी का निर्माण किया गया था . इस फिल्म में अश्विनी नाचाप्पा ने ही शीर्षक भूमिका की थी. कबड्डी पर पंजाबी भाषा में फिल्म कबड्डी वन्स अगेन और कन्नड़ में कबड्डी का निर्माण हुआ . 

बेनेडिक्ट वॉन्ग ही होंगे अवेंजर्स : इनफिनिटी वॉर के वॉन

मार्वेल कॉमिक्स के कैरेक्टरों में बेनेडिक्ट वोंग भी ख़ास है।  इस करैक्टर को मार्वेल की कई कॉमिक्स बुक में मुख्य किरदार की मदद करते देखा जा सकता है।  फिलहाल, इस करैक्टर को दर्शक फिल्म डॉक्टर स्ट्रेंज में डॉक्टर स्ट्रेंज के घरेलु नौकर के किरदार में देखेंगे।  यह एक स्वामिभक्त किरदार है।  इस किरदार को बेनेडिक्ट कम्बरबैच के साथ बेनेडिक्ट वॉन्ग कर रहे हैं।  बेनेडिक्ट वॉन्ग एक ब्रिटिश एक्टर हैं।  उन्हें नेटफ्लिक्स की २०१४ में रिलीज़ फिल्म मारकोपोलो में कुबलाई खान के किरदार में देखा गया था।  पिछले साल स्पेस साइंस फिक्शन फिल्म द मार्शियन में ब्रूस एनजी के किरदार में नज़र आये थे।  बेनेडिक्ट वॉन्ग को स्टेट ऑफ़ प्ले, लुक अराउंड यू, फ्रैंकेंस्टीन टॉप बॉय, रन और प्रे जैसी टीवी सीरीज में देखा गया।  बेनेडिक्ट वॉन्ग डॉक्टर स्ट्रेंज के बाद एक बार फिर अपने वॉन्ग करैक्टर को फिल्म अवेंजर्स : इंफिनिटी वॉर में करेंगे।  फिल्म अवेंजर्स : इंफिनिटी वॉर में ब्लैक विडो, स्टार लार्ड, थॉर, कैप्टेन मार्वल, स्कारलेट विच, गमोरा, विंटर सोल्जर, आयरन-मैन, कैप्टेन अमेरिका, स्पाइडर- मैन आदि जैसे सुपर पावर रखने वाले किरदारों के साथ डॉक्टर स्ट्रेंज को भी शामिल किया गया है।  वॉन्ग डॉक्टर स्ट्रेंज के घरेलु नौकर के किरदार में ही होंगे।  जहाँ, डॉक्टर स्ट्रेंज ४ नवम्बर को रिलीज़ हो रही है, वहीँ अवेंजर्स :इनफिनिटी वॉर की शूटिंग अगले साल जनवरी से शुरू होगी।  फिल्म ४ मई २०१८ को रिलीज़ की जायेगी। 

टिम मिलर नहीं करेंगे डेडपूल २

इस साल की बड़ी सफल फिल्म डेडपूल के डायरेक्टर टिम मिलर ने डेडपूल का सीक्वल छोड़ दिया है। डेडपूल के निर्माण में ५८ मिलियन डॉलर खर्च हुए थे।  लेकिन, मार्वल के एक कॉमिक करैक्टर पर डेडपूल ने बॉक्स ऑफिस पर ७८२.६ मिलियन डॉलर का बिज़नस कर लिया था।  इसलिए, स्वाभाविक था कि डेडपूल २ के निर्देशन के लिए टिम मिलर सबसे सही चुनाव थे।  बताया जाता है कि फिल्म में वेड विल्सन उर्फ़ डेडपूल का किरदार करने वाले अभिनेता रयान रेनॉल्ड्स से क्रेएटिव डिफरेंस होने का कारण टिम मिलर को फिल्म छोडनी पड़ी।  हालाँकि, टिम मिलर ने स्टूडियो के साथ फिल्म साइन नहीं की थी, लेकिन वह फिल्म की स्क्रिप्ट को मांजने के काम में जुटे हुए थे।  टिम मिलर श्रेष्ठतम विसुअल इफेक्ट्स आर्टिस्ट थे।  उन्होंने, हाईडअवे, पिलग्रिम वर्सस द वर्ल्ड, द गर्ल विथ ड्रैगन टैटू और थॉर द डार्क वर्ल्ड के विसुअल इफेक्ट्स में सहयोग किया था।  डेडपूल उनकी बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म थी।  इसीलिए फिल्म में टिम मिलर का प्रभाव साफ नज़र आता  था ।  हालाँकि,  क्रिएटिव डिफरेंस के कारण मिलर ने रयान रेनॉल्ड्स के साथ डेडपूल २ न करने का फैसला किया है।  लेकिन, इस फिल्म के स्टूडियो फॉक्स का इरादा मिलर को छोड़ने का नहीं हैं।  मिलर को डेनियल सोआरेज़ के उपन्यास पर फिल्म इनफ्लक्स का निर्देशन करने का जिम्मा सौंपा गया है। यह फिल्म इन्फ्यूल्स ट्राइलॉजी की पहली फिल्म होगी।

द लास्ट नाइट में नज़र आएंगे मिनी डाइनोबोट्स

ट्रांसफार्मर्स सीरीज की अब तक की चार फिल्मों में विशाल दैत्याकार क्रोधित मानव मशीनें देख चुके दर्शकों के लिए इस सीरीज की पांचवी फिल्म ट्रांसफार्मर्स: द लास्ट नाइट देखना बिलकुल नया अनुभव होगा।  माइकल बे निर्देशित इस फिल्म में विशाल डाइनोबोट्स होंगे ही, मिनी-  डाइनोबोट्स  भी नज़र आएंगे।  यह फिल्म दर्शकों के लिए बिलकुल नया अनुभव होगी।  फिल्म में कैड एगर, इज़ाबेला, विलियम लेनॉक्स, जोशुआ जॉयस और किंग आर्थर के मानव चरित्र होंगे ही, पीटर कलेन की आवाज़ में ऑप्टिमस प्राइम भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा होगा।  इसके अलावा बम्बलबी, हाउंड, ड्रिफ्ट, क्रॉसहेयर्स, हॉट रॉड, स्क़्वीक्स, आदि जैसी ऑटोबॉट मशीनें भी होंगी।  फिल्म में मार्क वह्ल्बेर्ग कैड एगर की भूमिका कर रहे हैं।  वह फिल्म के रोमांच को बताते हुए कहते हैं, "फिल्म में सर एंथोनी हॉपकिंस भी हैं।  बिलकुल नई शांत स्टार कास्ट है।  उत्तेजनाहीन नए रोबोट्स हैं।  नया विलेन है, वह भी शांत।  यहाँ तक कि फिल्म के विशाल डाइनोबोट्स भी उत्तेजनाहीन लगेंगे।  लेकिन, आपको सबसे ज़्यादा मज़ा आएगा नन्हे डाइनोबोट्स देख कर।  इज़ाबेला मोनर फिल्म की नई नायिका हैं। इसके अलावा  जेरॉड कार्मिचेल, लॉरा हेडेक और सेंटिआगो कैबेर भी अपनी भूमिकाएं कर रहे हैं।  लिएम कैरिगन ने किंग आर्थर की भूमिका की है।  ट्रांसफार्मर्स: द लास्ट नाइट २३ जून २०१७ को रिलीज़ होगी।  इस फ्रैंचाइज़ी की बम्बलबी स्पिन ऑफ फिल्म ८ जून २०१८ को रिलीज़ होगी।  ट्रांसफार्मर्स सीरीज की छठी फिल्म का निर्माण भी किया जायेगा, जो  २०१९ में २८ जून को रिलीज़ होगी।  

आईमैक्स में रिलीज़ होगी ट्वेंटिएथ सेंचुरी फॉक्स की चार फ़िल्में

पूरी दुनिया में आईमैक्स में रिलीज़ फिल्म डेडपूल की सफलता को देखते हुए आईमैक्स कॉर्पोरेशन ने ट्वेंटिएथ सेंचुरी फॉक्स की चार फिल्मों को ख़ास तौर पर रिलीज़ करने का समझौता किया है।  इसके अनुसार आईमैक्स द्वारा अगले साल दस जून को रिलीज़ होने जा रही मार्वल की अनाम फिल्म के अलावा २०१८ में तीन फिल्मों १ दिसम्बर को मेज़ रनर: द डेथ क्योर, २ सितम्बर को प्रिडेटर और ७ जुलाई को अलिटा: बैटल एंजेल दुनिया के तमाम आईमैक्स थिएटरो में रिलीज़ की जाएंगी।  इन फिल्मों को आईमैक्स फॉर्मेट में डिजिटली मिलाया जायेगा।  इससे फिल्म की तमाम इमेज बिलकुल साफ़ और चमक वाली नज़र आएंगी। ऎसी फ़िल्में जब आईमैक्स ख़ास थिएटरो में शक्तिशाली डिजिटल ऑडियो में दिखाई जाएंगी तो दुनिया के दर्शकों को बिलकुल ऐसा अनुभव मिलेगा, जैसे वह खुद मूवी का हिस्सा हैं।

इंदिरा गाँधी, आपातकाल और बॉलीवुड फ़िल्में

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल की इंदिरा गाँधी हत्याकांड की पृष्ठभूमि पर पोलिटिकल थ्रिलर फिल्म ३१ अक्टूबर को सेंसर बोर्ड ने नौ कट के साथ पारित कर दिया है  अब यह फिल्म इंदिरा गाँधी की हत्याकांड की तारिख से २४ दिन पहले ७ अक्टूबर को रिलीज़ होगी ।  ३१ अक्टूबर इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोध दंगों में सिख परिवार के जीवित रहने के लिए संघर्ष की सच्ची कहानी है । इस फिल्म को दुनिया के कई फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली है । फिल्म के निर्माता हैरी सचदेवा और आनंद प्रकाश कहते हैं, “हमें गर्व है कि हम तमाम बाधाओं को पार इस विषय को लोगों के सामने बड़े परदे पर लाने में सफल हुए हैं ।“
कैंची के शिकार ‘कौम दे हीरे’
इसमे कोई शक नहीं कि इस निर्माता जोड़ी को फिल्म पारित कराने में सेंसर से जूझना पडा । तमाम आलोचनाओं से जूझ रहे सेंसर बोर्ड को ध्यान रखना था कि फिल्म में ऎसी कोई बात न चली जाए, जिससे हिंसा भड़के । इसके बावजूद ३१ अक्टूबर के निर्माता भाग्यशाली हैं कि उनकी फिल्म चार महीने के बाद सेंसर द्वारा पारित कर दी गई । इस लिहाज़ से दो साल पहले एक पंजाबी फिल्म इतनी भाग्यशाली नहीं साबित हो सकी । सेंसर बोर्ड ने २०१४ में इस आधार पर निर्देशक रविंदर रवि की पंजाबी फिल्म कौम दे हीरे को बैन कर दिया कि यह इंदिरा गांधी की हत्या को जस्टिफाई करती थी और उनके हत्यारों बेंत सिंह, सतवंत सिंह और केहर सिंह को ग्लोरीफी करती थी। इस फिल्म को लीला सेमसन के सेंसर बोर्ड द्वारा हिंसा भड़कने की आशंका पर पारित नहीं किया गया था ।
इंदिरा गाँधी पर फ़िल्म !
भारत की प्रथम महिला प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी पर उनके जीवन और उनकी मृत्य के बाद फ़िल्में बनाने की कई कोशिशें की गई । बीबीसी द्वारा २००२ में निक रीड की ८० मिनट का एक वृत्तचित्र इंदिरा गाँधी: द डेथ ऑफ़ मदर इंडिया टेलीकास्ट की गई । लेकिन, इसके अलावा काफी दूसरे प्रयास परवान नहीं चढ़ सके । २००९ में इंदिरा गाँधी हत्याकांड पर एक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म बनाने का फैसला किया गया था । यह फिल्म इंदिरा गाँधी के हत्याकांड पर केन्द्रित थी । हत्याकांड के दिन इंदिरा गाँधी का इंटरव्यू करने पहुंचे पीटर उस्तीनोव की भूमिका के लिए अल्बर्ट फिन्ने को लिया गया था । हेलेन मिरेन क्वीन एलिज़ाबेथ, टॉम हंक्स और टोमी ली जोंस क्रमशः लिंडन बी जॉनसन और रिचर्ड निक्सन का किरदार करने वाले थे । ब्रितानी एक्ट्रेस एमिली वाटसन मार्गरेट थैचर का किरदार करने वाली थी । इस फिल्म में इंदिरा गाँधी की भूमिका के लिए माधुरी दीक्षित का नाम चल रहा था । उस समय इस फिल्म का बजट ४० मिलियन पौंड रखा गया था । लेकिन, कृष्णा शाह की यह फिल्म शूटिंग की दहलीज़ तक नहीं पहुँच सकी ।
बॉलीवुड अभिनेत्रियाँ चाहें इंदिरा गाँधी बनना
इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय गाँधी ने आपातकाल के दौरान बॉलीवुड को नाहक परेशान किया था । किशोर कुमार के गीतों के प्रसारण पर रोक, हिंदी फिल्मों पर कडा सेंसर और बैन बॉलीवुड पर भारी पड़ रहे थे । इसके बावजूद हिंदी फिल्मों की तमाम अभिनेत्रियाँ सेलुलाइड पर इंदिरा गाँधी बनने के लिए बेताब नज़र आती थी । कृष्णा शाह की इंदिरा गाँधी पर फिल्म में इंदिरा गाँधी बनाने के लिए बॉलीवुड की धक् धक् गर्ल माधुरी दीक्षित बेताब थी । २००२ में निर्माता नितिन केनी ने १५ करोड़ की लागत से इंदिरा गांधी के जीवन पर फिल्म इंदिरा गांधी अ ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी बनाने का ऐलान किया था।  इस फिल्म में मनीषा कोइराला इंदिरा गांधी की भूमिका करने वाली थी। मनीषा ने फिल्म के लिए अपना फर्स्ट लुक भी जारी कर दिया था । हाल ही में, अभिनेत्री विद्या बालन ने एक इंटरव्यू में यह स्वीकार किया था कि वह बड़े परदे पर इंदिरा गाँधी की भूमिका करना चाहती हैं । रहस्य फिल्म के निर्देशक मनीष गुप्ता ने इंदिरा गाँधी पर फिल्म के लिए विद्या बालन से संपर्क भी किया था । विद्या बालन ने स्क्रिप्ट पसंद भी की थी । मनीष गुप्ता कहते हैं, “विद्या बालन थोड़ी सशंकित थी । इंदिरा गाँधी पर फिल्म से पहले काफी सावधानियां बरतनी होती हैं ।“ प्रेम रतन धन पायो और गोलियों की रासलीला राम-लीला की अभिनेत्री स्वरा भास्कर को भी इंदिरा गाँधी का किरदार करने की बेताबी है ।
इमरजेंसी और भारतीय सिनेमा
इमरजेंसी का बुरा प्रभाव भारतीय सिनेमा पर भी पडा । इंदिरा गांधी ने २५ जून १९७५ को इमरजेंसी का ऐलान किया था।  यह आपातकाल २१ मार्च १९७७ तक जारी रहा।  इस दौरान भारत की फिल्म इंडस्ट्री को आपातकालीन ज़्यादतियां साहनी पड़ी।  आपातकाल के दौरान गुलजार की राजनीतिक फिल्म आंधी का प्रदर्शन रोक दिया गया । गुलज़ार की फिल्म आंधी का प्रदर्शन इस आधार पर रोका गया कि यह फिल्म इंदिरा गांधी पर आधारित थी। इस फिल्म में सुचित्रा सेन का करैक्टर इंदिरा गाँधी से मिलता जुलता था । अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का इमरजेंसी का तगड़ा मज़ाक उड़ाती थी।  इस फिल्म में शबाना आज़मी ने गूंगी बाहरी जनता का किरदार किया था।  इसके प्रिंट संजय गांधी द्वारा गुड़गांव की मारुती फैक्ट्री में जला दिए गए। तेलुगु फिल्म यमगोला (१९७७) भी इमरजेंसी का मज़ाक बनाती थी।  इस फिल्म को हिंदी में लोक परलोक टाइटल के साथ रीमेक किया गया। इन सभी फिल्मों को आपातकाल की ज्यादतियों का सामना करना पड़ा 
एक शोले दो क्लाइमेक्स
कहा जाता है कि गाँधी परिवार से नज़दीकियों के कारण अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका वाली फिल्म शोले को हिंसा के बावजूद पारित कर दिया गया था । लेकिन, वास्तव में इस फिल्म को काफी कट्स और रीशूट के बाद ही पारित किया गया । रमेश सिप्पी ने फिल्म के अंत में ठाकुर के द्वारा गब्बर सिंह की हत्या होते दिखाया गया था । मगर सेंसर को लगा था कि एक पूर्व पुलिस अधिकारी द्वारा एक डाकू की हत्या गलत सन्देश देने वाली हो सकती थी । इस पर रमेश सिप्पी को क्लाइमेक्स की फिर शूटिंग करनी पड़ी । इसमे ठाकुर द्वारा गब्बर सिंह को मारने से पहले ही पुलिस पहुँच जाती थी और गब्बर सिंह को अपने कब्ज़े में ले लेती थी । ठाकुर के परिवार की गब्बर सिंह द्वारा हत्या के दृश्यों को भी काट दिया गया था । इमाम के बेटे को गब्बर द्वारा मारे जाने का दृश्य भी काट दिया गया था । बाद में रमेश सिप्पी ने डीवीडी के चार घंटे के अनकट वर्शन में ठाकुर द्वारा गब्बर सिंह के मारे जाने के दृश्य सहित सभी सेंसर किये गए दृश्यों को रखा था ।
इमरजेंसी पर फ़िल्में
आईएस जौहर की फिल्म नसबंदी में संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का मज़ाक बनाया गया था । सत्यजीत रे की १९८० में रिलीज़ फिल्म हीरक राजर देशे बाल हास्य फिल्म थी। लेकिनइसमे भी आपातकाल पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गई थी।  बालू महेंद्रू निर्देशित १९८५ की मलयालम फिल्म यात्रा की मुख्य कथा आपातकाल के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन का चित्रण करने वाली थी।  एक अन्य मलयालम फिल्म पिरावी (१९८८) भी एक पिता की अपने बेटे की खोज की कहानी थीजिसे पुलिस ने गिरफ्तार करने के बाद प्रताड़ना देकर मार डाला था।  सुधीर मिश्र की शाइनी आहूजाकेके मेनन और चित्रांगदा सिंह अभिनीत फिल्म हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की पृष्ठभूमि भी आपतकाल पर थी।  यह फिल्म आपातकाल के दौरान नक्सल आंदोलन के विस्तार और खात्मे की कहानी थी।  इस फिल्म में सत्तर के दशक के भारतीय युवा के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन का बढ़िया चित्रण किया गया था। मराठी फिल्म शाला (२०१२) भी इमरजेंसी के दौरान की कठिनाइयों पर फिल्म थी। सलमान रुश्दी के उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रन में इंदिरा गांधी का निगेटिव चित्रण किया गया था।  यह फिल्म भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म मेले में नहीं दिखाई गई।  

बॉलीवुड ने ही ‘पिंक’ को शर्म से ‘लाल’ किया !

निर्माता शूजित सरकार की फिल्म पिंक में अमिताभ बच्चन का चरित्र स्थापित करता है कि अगर औरत न कह रही है तो उसे न समझा जाना चाहिए सेक्सुअल रिलेशन बनाने के लिए ज़बरदस्ती नहीं की जानी चाहिए। हालाँकि, इससे पहले फिल्म इसे स्वीकार करती हैं कि अगर कोई लड़की छोटे कपडे पहन कर क्लब या पार्टी में जाती है, दोस्त या दोस्त के दोस्तों के साथ शराब पीती है और डिनर खाती है और पैसे मांगती है तो वह चरित्रहीन समझी जाती है। कोई लड़का उससे ज़बरदस्ती कर सकता है। हालाँकि, ऐसा उस लडके की घटिया मानसिकता का परिणाम दिखाया गया है। लेकिन, यहाँ सवाल यह है कि किसी लडके में यह संस्कार आये कहाँ से। यह संस्कार किसने दिए। पिंक तो यह कह ही रही है। 

क्या बॉलीवुड ज़िम्मेदार नहीं !
बड़ा सवाल यह है कि इस प्रकार के संस्कार युवाओं या पुरुषों के मन में किसने भरे ! उस समाज ने जिसके परिवारों में बेटों के साथ बेटियाँ भी होती हैं ! बेशक, पड़ोस की आधुनिक या तेज़ तर्रार लड़की को देख कर ऐसा समझा जा सकता है। लेकिन क्या हिंदी फ़िल्में युवाओं में गंदे संस्कार भरने के आरोप से बरी हो सकती है ? बिलकुल नहीं। हिंदी फिल्मों ने ही महिला चरित्र को रसातल में डुबोने की साज़िश की है, अपने हीरो की हीरोइज्म स्थापित करने के लिए। बॉलीवुड का इतिहास गवाह है कि तमाम अभिनेता अपनी नायिका को अपमानित कर सुपर स्टार ही नहीं मेगा स्टार तक बने।  
कोड़े से पीटने वाले अमिताभ !
पिंक में अमिताभ बच्चन का चरित्र महिला की न को महत्त्व देता था। लेकिन इन्ही अमिताभ बच्चन की फिल्मों में बॉक्स ऑफिस की खातिर नायिका के चरित्र को रसातल में डुबो दिया। उसकी अवमानना की। अमिताभ की ज़्यादातर फिल्मों की नायिका शो पीस थी। वह खुद एंटी सोशल करैक्टर किया करते थे।  जिसे एंग्री यंगमैन खिताब दिया गया था। यह करैक्टर अपनी नायिका कोा छेड़ता ही नहीं था, बल्कि, शारीरिक रूप से प्रताड़ित भी करता था। फिल्म शहंशाह में अमिताभ बच्चन के करैक्टर के लिए मीनाक्षी शेषाद्री का चरित्र इस लिए हल्का था कि वह आधुनिक थी और कम कपडे पहन कर घूमा करती थी। वह फिल्म में उसे नोचते खसोटते दिखाए गए। फिल्म मर्द में अमिताभ बच्चन बिगडैल, बददिमाग अमृता सिंह को कोड़े से पीटते हैं और उसकी पीठ पर नमक मलते हैं। दर्शक उस समय सीटियाँ बजाते हैं, जब अमृता सिंह उनकी इस हरकत का मज़ा ले रही होती हैं। अमिताभ बच्चन ने ही यह स्थापित किया कि अमीर होना बुरी बात है। ऎसी अमीरज़ादियों का अपहरण कर घर में बाँध कर रखा जा सकता है (फिल्म कुली) और पीटा जा सकता है। दीवार में परवीन बॉबी को हमबिस्तर बनाने वाले अमिताभ बच्चन हीरो है लेकिन परवीन बॉबी को कॉल गर्ल होने के कारण जान देनी पड़ती है। 
हीरो बना अपहर्ता
नायिका का अपहरण कर हीरो बनना तो कई अभिनेताओं का शगल रहा है। सनी देओल अपनी पहली फिल्म बेताब की नायिका अमृता सिंह का उसके घर से अपहरण कर बंधक बना लेते हैं। फिल्म हीरो का नायक (जैकी श्रॉफ) भी मीनाक्षी शेषाद्री का अपहरण कर लेता है।  बॉबी, लव स्टोरी, आदि तमाम टीन एज रोमांस वाली फिल्मों में नायक अपनी नायिका को भगा ले जाता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि दर्शक इन चरित्रों के अभिनेताओं को सुपर स्टार बना देता है। नायिका ऐसे लम्पट चरित्र पर मर मिटती है। नायिका के घरवालों को नायक को स्वीकार करना पड़ता है। 
जंपिंग जैक जीतेंद्र
कदाचित जीतेंद्र पहले ऐसे अभिनेता थे, जिन्होंने ऑन स्क्रीन अपनी नायिका को सबसे ज्यादा प्रताड़ित किया। अपनी पहली एक्शन फिल्म फ़र्ज़ में जीतेंद्र बबिता को बेतरह झिंझोड़ कर रख देते थे। जीतेंद्र की नायिका बनने वाली हेमा मालिनी, श्रीदेवी, जयाप्रदा आदि इस नोचखसोटी की गवाह हैं। इन फिल्मों की नायिका माने या न माने जीतेंद्र के करैक्टर को खुद को उसका प्यार साबित करवाना ही है। फिल्मों में इसी प्रकार के रोल कर जीतेंद्र सबसे ज्यादा कमाई करने वाले स्टार बने। आज भी दक्षिण की फिल्मों में जीतेंद्र वाला हीरो कायम है। जीतेंद्र से पहले शम्मी कपूर, विश्वजीत और जॉय मुख़र्जी भी अपनी नायिकाओं को जबरन छेड़ा करते थे।  
पवित्र रिश्ता, बिन ब्याही माँ
अमिताभ बच्चन, जीतेंद्र, शम्मी कपूर या किसी दूसरे अभिनेता को क्या दोष दें, हिंदी फिल्मों ने हमेशा से स्त्री चरित्र को ढीले चरित्र वाली महिला के बतौर दिखाया है। पचास-साठ के दशक तक महिला चरित्र कामुकता में बह कर पहली रात ही शारीरिक सम्बन्ध बना लेती थी। नतीजे के तौर पर वह गर्भवती हो जाती थी। अब इस बिन ब्याही माँ को समाज के ताने सुनने ही हैं, अपने बच्चे को भी पालपोस कर बड़ा करना है। नायिका अपने प्रेम को पवित्र बताते हुए ढाई घंटे की फिल्म में रोती बिलखती हुई बेटे को पालती रहती है। अमर में दिलीप कुमार का चरित्र एक रात का सम्बन्ध बना कर निम्मी को छोड़ कर चल देता है। धुल का फूल की माला सिन्हा भी ऐसे ही पवित्र प्रेम के परिणामस्वरूप गर्भवती हो जाती है। एक फूल दो माली की साधना, आखिरी ख़त की इन्द्राणी मुख़र्जी, अंदाज़ की हेमा मालिनी ऎसी ही बिन ब्याही माँ के फ़िल्मी उदाहरण है। हिंदी फिल्मों में टू पीस बिकनी की ईजाद करने वाली शर्मीला टैगोर ने तो आ गले लग जा फिल्म में शशि कपूर के साथ एक रात के सम्बन्ध से माँ बनने के बाद दाग, आराधना, मौसम, आ गले लग जा, सत्यकाम, सनी, स्वाति, आदि फिल्मों में बिन ब्याही माँ बनने का कीर्तिमान स्थापित कर दिया। तभी तो फिल्म क्या कहना की प्रीती जिंटा अपनी कामुकता से लज्जित होने के बजाय ताल ठोंक कर खुद को पवित्र रिश्ता बनाने वाली बिन ब्याही माँ घोषित करती है। हिंदी फिल्मकारों ने नायिका की एक रात की कामुकता को पवित्र प्यार का दर्ज़ा दे कर समाज के (ख़ास तौर पर महिला दर्शकों के) आंसू निकालने और दर्शक बटोरने में कामयाबी हासिल की थी। 
ठण्ड का इलाज़
हिंदी फिल्मों के नायक ने कई फार्मूले ईजाद किये। इनमे से एक फार्मूला ठण्ड का ईलाज था। तमाम हिंदी फिल्मों में नायक ठण्ड से ठिठुरती नायिका का शरीर गर्म करने के लिए खुद नंगा हो कर, नंगी नायिका के साथ सो जाता है। कथित रूप से शरीर गर्म करने की इस प्रक्रिया को आ गले लग जा में शर्मीला टैगोर पर शशि कपूर ने आजमाया था। अमिताभ बच्चन फिल्म गंगा जमुना सरस्वती में अपनी नायिका मीनाक्षी शेषाद्री के ठन्डे शरीर को गर्म करने के लिए यही तरीका अपनाते हैं। शक्ति सामंत अपनी फिल्म आराधना में बारिश में भीग चुकी शर्मीला टैगोर और राजेश खन्ना पर एक कामुक टॉवल डांस (रूप तेरा मस्ताना) फिल्माते हैं और इसके बाद दोनों को सांकेतिक भाषा में शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करते दिखाते हैं। उस दौर की फिल्मों को देखने वाले दर्शको याद होगा कि कैसे ऐसे दृश्य के शुरू होते ही सिनेमाघरों में दर्शक सीटियाँ बजाना और चिल्लाना शुरू कर देते थे। 
कुलटा! हमें कहीं का न छोड़ा !
उस दौर की फिल्मों की खासियत थी कि इन में नायिका की निजता का कोई महत्त्व नहीं था। उस दौर की उन फिल्मों में जहां नायिका एक रात के संबंधों के कारण गर्भवती हो जाती थी, उसकी दाई या डॉक्टर तमाम लोगों के सामने खुलेआम ऐलान करती थी कि नायिका गर्भवती है। इस ऐलान के लिए लीला मिश्रा ख़ास तौर पर मशहूर थी जो निराशा भरे तेवरों के साथ यह कहती थी ‘अरे कुलटा तूने हमें कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा। पुराने ज़माने की सुलोचना और लीला चिटनिस से लेकर नयी जमाने की प्रीटी जिंटा तक को यह डायलाग सुनने पड़े। इसके बावजूद ऎसी कुलटा नायिका बॉलीवुड फिल्मों में बार बार नज़र आती रही।