निर्माता जॉन अब्राहम की इस शुक्रवार रिलीज़ फिल्म मद्रास कैफ़े बॉक्स ऑफिस पर खान अभिनेताओं वाली फिल्मों जैसा धमाल नहीं मचाएगी. यह फिल्म सौ करोड़ क्लब में आने की सोच भी नहीं सकती. लेकिन, इतना तय है कि मद्रास कैफ़े जॉन अब्राहम और शुजित सिरकार की जोड़ी एक ईमानदार कोशिश है. विक्की डोनर से उन्होंने लीक से हट कर फिल्मों का जो सिलसिला शुरू था, उसकी दूसरी कड़ी है मद्रास कैफ़े।
मद्रास कैफ़े का हीरो जॉन अब्राहम हैं. लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने करैक्टर को लार्जर देन लाइफ बना कर दर्शकों की तालियाँ बटोरने की झूठी कोशिश नहीं की. मद्रास कैफ़े की कहानी ८० के दशक और शुरूआती ९० के दशक तक फैले श्रीलंका के सिविल वॉर पर है. फिल्म में रियल करैक्टर के नाम बदल दिए गए हैं. श्रीलंका की सेना और तमिल ईलम के विद्रोहियों के संघर्ष, भारतीय सेना का पीस कीपिंग फ़ोर्स के रूप में सिविल वॉर में हस्तक्षेप और असफलता जैसी प्रोमिनेन्ट घटनाओं को फिल्म में शामिल किया गया है. फिल्म ख़त्म होती है राजीव गांधी की हत्या के साथ.
जॉन अब्राहम ने विक्की डोनर के शुजित सिरकार को एक बार फिर अपनी फिल्म का डायरेक्टर बनाया है. फिल्म को शोमनाथ डे और शुदेंदु भट्टाचार्य ने लिखा है. इन दोनों ने बहुत चुस्ती से अपना काम किया है. शुजित ने हर फ्रेम को बिना अतिरेक में गए स्वाभाविक ढंग से फिल्माया है. फिल्म में श्रीलंका में संघर्ष के दृश्य हैं, लेकिन कहीं भी documentry का एहसास नहीं होता. फिल्म देखते समय ऐसा लगता है जैसे हम रियल श्रीलंका में घूम रहे हैं. फिल्म कहीं भी हिंसक नहीं लगती. तभी तो इस फिल्म को यु /ए प्रमाण पत्र दिया गया है. मद्रास कैफ़े का रॉ एजेंट विक्रम सिंह आम आदमी से थोडा हट कर ही है. पर उसे सुपरमैन नहीं कहा जा सकता. वह लिट्टे के लोगों द्वारा पकड़ा जाता है. उसके डिपार्टमेंट के लोग उसे धोखा देते है. लेकिन, वह इन सबसे रेम्बो के अंदाज़ में नहीं निबटता। एक जिम्मेदार अधिकारी जैसा व्यवहार करेगा, वैसा ही व्यवहार विक्रम सिंह करता है. यही फिल्म की खासियत है.
मद्रास कैफ़े की सबसे बड़ी खासियत है इसके सामान्य और स्वाभाविक चरित्र। यहाँ तक कि प्रभाकरन और उसके साथियों का चित्रण भी स्वाभाविक हुआ है. श्रीलंका से लेकर दिल्ली तक तमाम करैक्टर अपने स्वाभाविक अंदाज़ में हैं, यहाँ तक कि राजीव गांधी का चरित्र भी. फिल्म के हीरो जॉन अब्राहम है. वह बहुत अच्छे एक्टर नहीं। लेकिन अपना काम ईमानदारी से करते हैं. उन्हें एक एजेंट के रोल में अपने शरीर पर थोड़ी चुस्ती लानी चाहिए थी. चलने फिरने के अंदाज़ को बदलना चाहिए था. शुजित सिरकार को इस और ध्यान देना चाहिए था। लेकिन शायद उनके लिए करैक्टर के बजाय कथ्य ज्यादा महत्त्व रखते थे. रॉकस्टार के बाद नर्गिस फाखरी एक विदेशी अखबार की पत्रकार जाया के रोल में हैं. उन्होंने अपना काम ठीक ठाक कर दिया है. यह रोल टेलर मेड जैसा था. जॉन अब्राहम की पत्नी के रोल में राशी खन्ना का काम बढ़िया है. अजय रत्नम एना भास्करन की भूमिका में स्वाभाविक हैं. श्री के रोल में कन्नन भास्करन स्वाभाविक हैं.श्रीलंका में रॉ के लिए काम कर रहे बल की भूमिका में प्रकाश बेलावादी के लिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनके रूप में हिंदी फिल्मों को एक विलेन मिल गया. लेकिन उनमे संभावनाएं हैं. कैबिनेट सेक्रेटरी की भूमिका में पियूष पाण्डेय ठीक लगे हैं. सिद्धार्थ बासु रॉ चीफ के रूप में जमे नहीं।
इस फिल्म के लिए शांतनु मोइत्रा का संगीत, चंद्रशेखर प्रजापति का संपादन, कमलजीत नेगी का कैमरा वर्क ,मनोहर वर्मा के स्टंट वीरा कपूर की डिजाइनिंग और मेकअप डिपार्टमेंट की टीम का काम एसेट की तरह है. यह लोग फिल्म को रिच और दर्शनीय बनाते हैं. मद्रास कैफ़े को बेहतरीन टीम वर्क का नमूना कहा जाना चाहिए।
अभी मई में जॉन अब्राहम की फिल्म शूटआउट at वडाला रिलीज़ हुई थी. मान्य सुर्वे बने जॉन अब्राहम की ज़बरदस्त बॉडी और ओवर एक्टिंग पर खूब तालियाँ बजी थीं. मगर इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है. मौका निकाल कर सलमान खान की तरह बॉडी दिखाने के बजाय जॉन ने अपने अभिनय के जरिये अपना काम ईमानदारी से किया है. यकीन जानिये सिनेमाहाल में बैठा दर्शक जॉन अब्राहम के कारनामों पर तालियाँ नहीं बजाता। लेकिन, जब फिल्म ख़त्म होती है तो वह कुछ सोचता सा उठता है. वह मद्रास कैफ़े में कहीं खोया हुआ होता है. यही फिल्म की सफलता है.
जॉन अब्राहम ने अपना काम ईमानदारी से कर दिया है. अब बारी दर्शकों की है. वह मद्रास कैफ़े में एक बार ज़रूर। यहाँ मिलने वाली श्रीलंका की कॉफ़ी आपको निहाल कर देगी. तो क्या जा रहे हैं आप दर्शक बन कर आज ही.
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