Saturday, 12 October 2013

इस 'वॉर' को मत छोड़ना यार !

            http://www.hdwallpaper.org/wp-content/uploads/2013/10/war-chhod-na-yaar-movie-HD.jpg                           भारत पाकिस्तान के बीच तनाव और युद्ध का लम्बा रिश्ता रहा है. इसीलिए, इस तनाव की पृष्ठभूमि में हकीकत से लेकर बॉर्डर तक न जाने कितनी फ़िल्में रिलीज़ हो चुकी हैं. इन तमाम फिल्मों में मानवीय संबंधों के अलावा गोला बारूद वाली हिंसा का ही प्रदर्शन हुआ है. इसीलिए, जब फ़राज़ हैदर वॉर छोड़ न यार ले कर आते हैं तो लगता है कि वह भी इंडियन वॉर मूवीज की लिस्ट में अपना नाम लिखने आये हैं. अलबत्ता, फिल्म का टाइटल इसके कॉमेडी होने की और इशारा करता है. लेकिन, यह कॉमेडी किस स्तर की होगी, भारत पाक युद्ध संबंधों को किस मुकाम पर ले जायेगी, शंका इसी को लेकर बनी रहती है. फिल्म की शर्मन जोशी, सोहा अली खान, जावेद जाफरी, संजय मिश्र, मुकुल देव और मनोज पाहवा जैसी मामूली स्टार कास्ट के कारण फिल्म से बहुत अपेक्षाएं नहीं रहती. लेकिन, तारीफ करनी होगी फ़राज़ हैदर की कि उन्होंने भारत पाक संबंधों, दोनों देशों की सेनाओ और दोनों देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप, वेपन लॉबी, आदि को समेत कर एक ज़बरदस्त व्यंग्यात्मक फिल्म बना डाली है.
                    कहानी इतनी है कि एक चैनल की रिपोर्टर रुत दत्ता (सोहा अली खान) को भारत का रक्षा मंत्री (दिलीप ताहिल) एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए बुलाता है. इस इंटरव्यू में वह बताता है कि तीन दिन बाद भारत पाकिस्तान के बीच वॉर छिड़ने जा रही है. वह रुत से सीमा पर जाने को कहता है, ताकि वह वहां पहुँच कर पब्लिसिटी पा सके. सीमा पर जाने के बाद रुत को भारत पाकिस्तान सैनिकों के बीच संबंधों के बारे में पता चलता है. वह भारतीय सेना के कप्तान राज (शर्मन जोशी) को हकीकत बताती है और युद्ध रोकने के लिए कहती है. लेकिन, राज साफ़ कर देता है कि वह पोलिटिकल लीडर्स के आदेश मानने के लिए बाध्य है. तब रुत खुद इस वॉर को रोकने की कोशिश करती है. वह इस कोशिश में कामयाब होगी. लेकिन, कैसे ? यही इस फिल्म का दिलचस्प पहलू है.
                      वॉर छोड़ न यार के निर्देशक फ़राज़ हैदर ही फिल्म के लेखक भी हैं. कहानी उन्होंने लीक से हट कर ली है. ट्रीटमेंट भी बढ़िया है. रील दर रील दर्शकों में उत्सुकता बनी रहती है. ११९ मिनट की इस फिल्म की स्क्रिप्ट में थोड़ी मेहनत और की जानी चाहिए थी. फिल्म के संवाद काफी व्यंग्यात्मक है. कहा जा सकता है कि ठीक राजनीतिज्ञों के दिलों पर कील ठोंकने वाले. दर्शक हँसता है और राजनीतिज्ञों की चालबाजियां समझता हुआ उनकी बेबसी का मज़ा भी लेता है. फ़राज़ ने मस्त सीक्वेंस बनाये हैं. उन्होंने  जहाँ भारत पाकिस्तान के सैनिकों के बीच दोस्ती, हँसी मज़ाक और तनाव को दिखाया है, वहीँ पाकिस्तानी सैनिकों की दुर्दशा का भी व्यंग्यात्मक चित्रण हुआ है. वह कई दिनों  से मुर्ग मुसल्लम  उड़ाने की फिराक में हैं. उनकी बीमारी, बेबसी और भारत के आवाम के प्रति दोस्ती के ज़ज्बे का भी चित्रण हुआ है. फ़राज़ ने कहीं भी पाकिस्तान को सहानुभूति के काबिल नहीं बताया है, लेकिन इसका दोषी राज नेताओं को माना है. वह बताते हैं कि दोनों देशों के नेता वेपन लॉबी से कमीशन लेकर हथियार खरीदते हैं. अपने पुराने और सड़े हथियार बेचने के लिए उनकी बेचैनी का भी प्रदर्शन हुआ है. फ़राज़ ने चीनी सामान और हथियारों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं. दर्शक इसे खूब एन्जॉय करता है.  पाकिस्तानी सैनिक प्रशासकों को मूर्ख दिखाना थोडा जमा नहीं . लेकिन, एक कॉमेडी फिल्म में यह सब चलता है . इस फिल्म का क्लाइमेक्स महत्वपूर्ण था. युद्ध कैसे ख़त्म होता है, वह अस्वाभाविक सा था, लेकिन जन भावना के अनुरूप था. फिल्म में भारत पाकिस्तान के सैनिकों को अन्त्याक्षरी खेलते दिखाया गया है. फ़राज़ ने फिल्म के क्लाइमेक्स इसका बहुत खूब उपयोग किया है. पाकिस्तान के सैनिक पहली बार अन्त्याक्षरी जीतते हैं, लेकिन भारत की फिल्म शोले के ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे गा कर. फिल्म देखते दर्शक तालियाँ बजाने को मजबूर हो जाते हैं.
                         फिल्म में सोहा अली खान और शर्मन जोशी अपना काम बखूबी अंजाम देते हैं. दलीप ताहिल भारत, पाकिस्तान, अमेरिकी प्रशासन और हथियारों के सौदागर की अपनी भूमिका को भिन्न रख पाने में सफल हुए हैं. पाकिस्तान के जनरल की भूमिका में मनोज पहावा खूब जमे हैं. संजय मिश्र एक बीमार सैनिक की भूमिका में दर्शकों को हंसा हंसा कर लोटपोट कर देते हैं. वह गज़ब के एक्टर हैं. पाकिस्तानी कप्तान कुरैशी के रोल में जावेद जाफरी ने स्वाभाविक अभिनय किया है. असलम केई नें माहौल के अनुरूप धुनें तैयार की हैं. सजल शाह का कैमरा युद्ध के दृश्यों को रोमांचक बना पाने में कामयाब हुआ है.
                         इस फिल्म को देखने के बाद मन में एक ख्याल आता है कि फ़राज़ हैदर के पास ज्यादा फाइनेंस होता तो वह अच्छा परिणाम दे सकते थे. वह इन ज्यादा पैसों से बड़ी कास्ट लेकर इतना अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ सकते थे. लेकिन, फिल्म का तकनीकी स्तर ऊंचा हो जाता और फिल्म ज्यादा दर्शक बटोर पाती. अगर आप को स्वस्थ मनोरजन की दरकार है और  ऎसी फ़िल्में आगे भी बनते देखना चाहते हैं, तो वॉर छोड़ न यार मस्ट वाच फिल्म है.

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