Friday, 21 June 2013

क्या दर्शक बनाना चाहेगा धनुष को अपना राँझना!

 
 तनु वेड्स मनु जैसी 2011 में रिलीज मनोरंजक फिल्म बनाने वाले आनंद एल राज की फिल्म है आज रिलीज राँझना। उनका यूपी कनैक्शन है। इसलिए उनकी फिल्मों की पृष्ठभूमि भी उत्तर प्रदेश का कोई शहर ही होता है। तनु वेड्स मनु में कानपुर था। राँझना में वाराणसी  है। अगर नहीं भी होता तो कोई भी हो सकता था। मुंबई  में भी राँझना जैसे आशिक हैं। दिल्ली में तो ढेरों भरे हैं। गुजरात में भी आशिकों की भरमार है। विश्वास न हो तो अपने संजय लीला भंसाली से पूछ लो कि वह परदे पर कितने गुजरातियों से राम लीला या रास लीला करवा चुके हैं। अब, चूंकि, राँझना का राँझना वाराणसी का है तो वह मंदिर के पुजारी का बेटा है। मंदिर में डमरू बजाता है। चंदा मांगते फिरता है। बाकी वह सेकुलर टाइप का है। एक मुसलमान लड़की से शादी करना चाहता है। लड़की के हाथों से 15 लप्पड़ खाने के बाद 16वें लप्पड़ में लड़की भी उसे चाहने लगती है। लड़की के परिवार में पता चलता है तो हँगामा मच जाता है। लड़की को अलीगढ़  भेज दिया जाता है। वह अलीगढ़ से दिल्ली की सेकुयलर यूनिवरसिटि जेएनयू में चली जाती हैं, जहां पूरे देश को नेता और राजनीति की सप्लाइ होती है। लड़की को भी एक अदद नेता मिल जाता है। वह उसे अकरम बता कर बनारस ले आती है शादी के लिए। हिन्दू लड़का टूटे दिल के साथ लड़की के माता पिता को लड़की की शादी अकरम से करने को राजी भी करता है। लेकिन ऐन शादी के मौके पर हिन्दू लड़के के सामने भेद खुलता है कि अकरम वास्तव में हिन्दू है। वह यह भेद निकाह के वक़्त खोल देता है। लड़की के परिवार के लोग नकली अकरम को मार मार कर रेल्वे लाइन पर मरने   के लिए छोड़ देते हैं। यहाँ यह समझ में नहीं आता कि वह कुन्दन यानि धनुष को क्यों छोड़ देते हैं? क्या अकरम मारा जाता है? क्या लड़के का लड़की से शादी का रास्ता साफ हो जाता है? नहीं भाई नहीं। यूपी वाले की फिल्म है, आसानी से खत्म होने वाली नहीं। 140 मिनट से ज़्यादा चलती हैं राजनीति का तड़का लेकर।
बस इससे ज़्यादा कहानी लिखने की ताकत नहीं । आनंद की राँझना के लेखक हिमांशु शर्मा ने यह क्या किया। सेकुलर कहानी के साथ राजनीति के इतने पेंच क्यों जोड़ दिये? अगर ऐसा नहीं भी होता तो भी क्या हो जाता। कहानी कभी इधर लुढ़कती तो कभी उधर लुढ़कती और भटकती चलती चली जाती है बनारस से Jalandhar और फिर दिल्ली। अबे अगर बनारस में ही खत्म हो जाती तो क्या हो जाता। क्या वहाँ राजनीतिक नेता पैदा करने वाली बनारस हिन्दू यूनिवरसिटि नहीं? हो सकता है  उसे आनंद सेकुलर न मानते होंगे। बहरहाल, फिल्म बनारस के राँझना से निकल कर दिल्ली के जेएनयू के नेता छात्रों का नेतृत्व  करने वाले कुन्दन तक पहुँच जाती है। कहानी में इस प्रकार के अविश्वसनीय ट्विस्ट अँड टर्न देख देख कर दर्शक का भेजा फ्राई हो सकता है। यहीं कारण है कि फिल्म दर्शकों तक अपना उद्देश्य नहीं पहुंचा पाती। समझ में नहीं आता कि यह रोमैन्स फिल्म है या कुछ और।
राँझना के सबसे  मजबूत पक्ष हैं अभिनेता धनुष । क्या अभिनय कराते हैं वह। अत्यधिक गरीब और कमोबेश बदसूरत चेहरे के बावजूद वह बेहद सशक्त अभिनय करते हैं। लगता ही नहीं कि दर्शक दक्षिण के एक बड़े अभिनेता को देख रहे हैं। हर प्रकार के भाव वह बड़ी आसानी से अपने चेहरे पर लाकर दर्शकों तक पहुंचा देते हैं। पूरी फिल्म धनुष की फिल्म बन जाती है। अगर, हिन्दी दर्शकों ने दक्षिण का अभिनेता होने के नाते धनुष के साथ नाइंसाफ नहीं किया तो दर्शकों को आगे भी धनुष की अच्छे अभिनय वाली कुछ अच्छी फिल्में देखने को मिल सकती हैं। धनुष की प्रेमिका से नेताइन बनने वाली जोया की भूमिका में सोनम कपूर हैं। उनका अभिनय अच्छा है। लेकिन हिन्दी बोलते समय ऐसा लगता है जैसे सोनम के दांतों में दर्द हो रहा हो।  स्पेशल अपीयरेंस में अभय देओल जमे हैं। धनुष के दोस्त मुरारी की भूमिका में जीशान अयुब प्रभावशाली रहे हैं। स्वरा भास्कर का अभिनय भी प्रशंसनीय है। फिल्म की लंबाई को नियंत्रित किए जाने की ज़रूरत थी। पर कहानी के इधर से उधर भटकने के कारण यह संभव नहीं था। हेमल कोठारी अपने काम को ठीक तरह से अंजाम नहीं दे सके। एआर रहमान का संगीत फिल्म को खास सपोर्ट करने वाला नहीं।
अब रही बात फिल्म देखने की या न देखने की  तो धनुष के लिए, उनके सोनम के साथ रोमैन्स के लिए राँझना देखी जा सकती है । लेकिन, बनारस के लिए देखने जैसी कोई बात नहीं है फिल्म में। वैसे दर्शक जिस प्रकार से फुकरे जैसी फिल्में पसंद कर रहे हैं, उसे देखते हुए राँझना की गाड़ी बॉक्स ऑफिस पर धीमी ही सही चलती रहनी चाहिए।
एक बात यूपी के फ़िल्मकारों से। भैये क्या अपनी फिल्म के किरदारों खास तौर पर महिला किरदारों के मुंह से गालिया निकलवाना ज़रूरी है?









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