Saturday, 2 November 2013

हिंदी अख़बारों में दिवाली पर फिल्मों का दिवाला !

क्या हिंदी फिल्मों को लेकर कुछ लिखना आसान है? आजकल, अख़बारों में जिस प्रकार से ऐरा गैर, नत्थू खैरा हाथ साफ़ कर रहा है, उससे तो फिल्मों पर टिपण्णी बेहद  आसान काम है. जबकि, वास्तव में ऐसा नहीं है. अगर फिल्मों को लेकर कुछ लिखना है तो बेहद अध्ययन की ज़रुरत है. हिंदी फिल्मों पर अंग्रेजी अख़बार हो या हिंदी, सबका रवैया चलता है जैसा है. एक अंग्रेजी अख़बार ने सनी देओल की फिल्म मोहल्ला अस्सी को मोहल्ला ८० लिख दिया था. यानि इसके लेखक का हिंदी ज्ञान न्यूनतम तो था ही, उन्होंने फिल्म के निर्माता को भी इस लायक नहीं समझा था कि शीर्षक की जानकारी कर लेता.
अच्छे और भिन्न विषयों पर लेख लिखने के लिए अख़बार के संपादक की समझ बेहद महत्त्व रखती है. लेकिन, दुखद तथ्य यह है कि ज्यादा अख़बारों के, ख़ास तौर पर हिंदी अख़बारों के, फीचर इन-चार्ज को फिल्मों से सरोकार नहीं रहता. उनके लिए बॉलीवुड का मतलब हिंदी फिल्मों के PR की भेजी सामग्री ही. जबकि, इन PR का हिंदी और अंग्रेजी ज्ञान ही माशाल्लाह है. हिंदी अख़बार PR के भेजे स्टार्स के इंटरव्यू को खूब छपते हैं. यह वही इंटरव्यू है जिन्हें यह PR अंग्रेजी अख़बारों के एंटरटेनमेंट पेज पर पैसा भुगतान कर छपवाते हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया का बॉम्बे टाइम्स तो विज्ञापन पृष्ठ ही है. मुंबई के काफी अख़बारों में विज्ञापनों की तरह पैसा जमा कर रिलीज़ या इंटरव्यू छपे या छपवाए जा  सकते हैं. जबकि, हिंदी अखबारों इन इंटरव्यूज और मैटर को इस तरह खुश हो कर छपते हैं, गोया उन्हें सितारे ने बैठ कर इंटरव्यू दिया है. भाई इतने बिजी अख़बार आपके हिंदी अख़बार के फ्रीलांसर या रिपोर्टर को, जिसे आप खुद मुंबई में पेट भरने लायक पेमेंट नहीं करते, इंटरव्यू कैसे दे सकता है. यह सभी इंटरव्यू स्टार्स के PR द्वारा ज़ारी किये जाते हैं. काफी PR  वन २ वन के बजाय ग्रुप इंटरव्यू करवाते हैं. दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, नई दुनिया, अमर उजाला, आदि के पत्रकारों को ही कभी कभी वन २ वन बात करने का मौका मिल जाये. वह भी अख़बार से ज्यादा उस जौर्नो के सम्पर्कों का कमाल होता है. ज़ाहिर है कि ज़्यादातर हिंदी अख़बार PR का कचरा अपने पाठकों को परोस देते हैं.
मेरे विचार से तो बढ़िया लेख तभी लिखे जा सकते हैं, जब उन पर काफी मनन किया जाये, लीक से हट कर विषयों को सामने लाया जाए. आजकल दीवाली का जोर है. लगभग हर हिंदी अख़बार में हिट होती हैं दिवाली पर रिलीज़ फ़िल्में विषय पर ही लिखा जा रहा है. हालाँकि, इन लेखों को लिखने वाले यह नहीं समझ पा रहे कि आज का जैसा वीकेंड कलेक्शन का ट्रेंड पहले नहीं था. स्टार पॉवर ही फिल्म चलाने के लिए काफी थी. वैसे हमेशा से ही दिवाली का त्यौहार  दो कारणों से फिल्मों के बिज़नस के लिहाज़ से अच्छा नहीं माना जाता था. एक यह कि दिवाली के दौरान बड़ी आबादी अपने घरों की साफ़ सफाई, पूजा पाठ, आदि में व्यस्त रहती थी. दूसरे, रमजान के दौरान दिवाली पड़ना फिल्मों के लिए नुकसानदेह ही होता था. दिवाली को फिल्म बिज़नस के लिहाज़ से फायदेमंद बनाया शाहरुख़ खान की फिल्मों ने . लेकिन यह खान भी रमजान के दौरान पड़ने वाली दीपावली से कतराता है. अब यह ज़रूरी भी नहीं कि दिवाली के दौरान रिलीज़ सभी फ़िल्में हिट हों. दिवाली में अक्षय कुमार और सलमान खान तक की फ़िल्में फ्लॉप हो चुकी हैं. लेकिन, हिंदी फिल्मों के ट्रेंड को लेकर लेख लिखने वाले लिक्खाड़ दिवाली को हमेशा से फायदेमंद बता रहे हैं. लिखना है, कलम  है, चाहे जो भी लिख दें.
मेरा मानना है कि अगर फीचर इन-चार्ज और राइटर की अच्छी जोड़ी है तो फिल्मों के ट्रेंड को लेकर बहुत अच्छा लिखा जा सकता है. मैंने दैनिक जागरण के लिए प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव के कार्यकाल में, अमर उजाला के लिए नरेन्द्र निर्मल के कार्यकाल में, हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर के कार्यकाल में तथा नई दुनिया में अजय गर्ग के साथ बहुत सा अच्छा लिखा. यह ऐसे फीचर एडिटर थे, जो लेखक पर सब कुछ छोड़ना उचित समझते थे या विचार विमर्श कर लेख लिखवाते थे. मेरे द्वारा खास तौर पर हिंदुस्तान के विशाल ठाकुर और नई दुनिया के अजय गर्ग के साथ विमर्श कर बहुत अच्छा लिखा गया. अब यह बात दीगर है कि ख़राब पेमेंट के कारण मैंने हिंदुस्तान के लिए लिखना बंद कर दिया.मैंने हिंदुस्तान के लिए दिवाली पर एक लेख लिखा था हिंदी फिल्मों की लक्ष्मियाँ. इस लेख को लिखने में मुझे ७-८ घंटे लगे और पेमेंट मिला मात्र ३०० रूपया. मन खट्टा हो गया. करोड़ों रुपये विज्ञापनों से कमाने वाले अख़बार पेमेंट के नाम पर कितने घटिया हैं. बहरहाल, प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव, नरेन्द्र निर्मल, विशाल ठाकुर और अजय गर्ग फिल्मों की समझ रखने वाले और अपना इनपुट देने वाले लोग थे. बाकी अख़बारों के इन-चार्ज को यह तक नहीं मालूम कि आजकल बॉलीवुड में क्या हो रहा है. एक बड़े अख़बार के एंटरटेनमेंट एडिटर को यह तक नहीं मालूम कि ऑस्कर की विदेशी फिल्म केटेगरी में फ़िल्में कौन भेजता है. इन इन-चार्ज को बॉलीवुड के नाम पर जो कुछ मिल जाए, वही छापने से मतलब होता है. ऐसे में कैसे लिखा जाये बढ़िया?

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