राकेश ओमप्रकाश
मेहरा की फिल्म मिर्जया प्राचीन पंजाब की दुखद चार प्रेम
कथाओं में मिर्ज़ा और साहिबां के प्रेम की कहानी भी एक है। बाकी तीन दुखद प्रेम
कहानियों में सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा और सस्सी-पुन्नू हैं। मिर्ज़ा खान खरल जनजाति के नेता वांझल खान का
बेटा था। वह खेवा के मुखिया मदनी की बेटी थी। दोनों एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने इस प्रेम
कहानी को समकालीन बनाने के लिए पुनर्जन्म पर बनाया है। इस फिल्म से अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्द्धन कपूर का डेब्यू हो रहा है। यह नायिका सैयमी खेर की भी डेब्यू फिल्म है। क्या पाकिस्तान सिंध और बलूचिस्तान में आज भी लोकप्रिय यह
दुखांत प्रेम कथा हर्षवर्द्धन और सैयमी का सुखद करियर बना पाएगी ? इसका जवाब तो फिल्म के रिलीज़ होने के बाद ही पता
चलेगा। लेकिन, इस लेख का उद्देश्य मिर्जया के बहाने उन प्रेम कथाओं और उन
पर बनी फिल्मों के बारे में जानना है, जो कभी अविभाजित हिंदुस्तान में फैली संस्कृति का हिस्सा थी।
मिर्ज़ा और साहिबां
मिर्ज़ा और साहिबां
मिर्ज़ा और साहिबां
की मोहब्बत की दुखद दास्ताँ पर कई लोक गीतों की रचना की गई और फ़िल्में बनाई गई ।
इस लिहाज़ से नूरजहाँ का गाया ‘मिर्ज़ा’ लोक गीत उल्लेखनीय
है। इस गीत को नूरजहाँ ने पंजाबी भाषा में बनी पाकिस्तानी फिल्म मिर्ज़ा जट के लिए
गाया था। दिलचस्प तथ्य यह है कि मिर्ज़ा और साहिबान के रोमांस पर हिंदी में इक्का
दुक्का फ़िल्में ही बनी। यों कहा जा सकता
है कि दोनों ही देशों में पंजाबी भाषा में ही इस रोमांस को परदे पर उतारा गया। १९९२ में रिलीज़ रविंदर रवि की फिल्म
मिर्ज़ा जट और बलजीत सिंह देव की जिप्पी ग्रेवाल और मैंडी टखर की केंद्रीय भूमिका
वाली फिल्म मिर्ज़ा द अनटोल्ड स्टोरी ऎसी ही फ़िल्में है। बलजीत सिंह ने मिर्ज़ा और साहिबां की मोहब्बत को
आधुनिक सन्दर्भ में कॉमेडी और एक्शन से भरपूर एक अपराध कथा बना दिया। अब देखने वाली बात होगी कि राकेश ओमप्रकाश
मेहरा इस कथानक को किस अंदाज़ में पेश करते हैं।
सस्सी और पुन्नू
अविभाजित भारत में
लोकप्रिय कहानियों पर फिल्मों के मामले में सस्सी-पुन्नू का की कथा को भी बॉलीवुड
ने काफी नकारा है। भंबौर के राजा आदमख़ाँ
की बेटी सस्सी को नज़ूमी शाही खानदान के लिए श्राप बताते हैं। नतीजतन उसे लकड़ी की डलिया में रख कर चेनाब में
बहा दिया जाता है। सस्सी एक धोबी द्वारा पाली जाती है। इस पाकिस्तानी लोक कथा पर
हिंदुस्तान में ज़्यादा फ़िल्में पंजाबी भाषा में फ़िल्में बनाई गई। जगतराम पेशुमल अडवाणी ने
१९४६ में और १९६५ में शांति प्रकाश बख्शी ने सस्सी पुन्नू फिल्मों का निर्माण
किया। अडवाणी की फिल्म हिंदी पंजाबी में थी। एक अन्य फिल्म, पंजाबी भाषा में निर्देशक सतीश भाखरी ने किया था। इस फिल्म में सतीश कौल ने
पुन्नू और भावना भट्ट ने सस्सी की मुख्य भूमिका की थी। फिल्म में रवि का संगीत था।
पाकिस्तान में विभाजन के बाद इंडस्ट्री को जिलाने का काम किया इसी रोमांस कथा पर
फिल्म ने। १९४० में बनी फिल्म सस्सी इसी स्टार कास्ट के साथ १९५४ में फिर बनाई गई।
इसे जीए चिस्ती ने बनाया था। इसके बाद चिस्ती ने सबीहा और सुधीर को सस्सी और
पुन्नू बनाते हुए फिर सस्सी पुन्नू फिल्म
का निर्माण किया।
सोहनी और महिवाल
पंजाब के एक कुम्हार
की बेटी सोहनी और चरवाहे महिवाल के दुखद प्रेम प्रसंग को काफी बॉलीवुड फिल्मों में
अपनाया गया। १९२८ में दो फ़िल्में निर्देशक के पी भावे और आनंद प्रसाद कपूर ने
फिल्म सोहनी महिवाल ने बनाई। यह दोनों मूक फ़िल्में थी। १९३३ में हर्षदराय साकरलाल
मेहता की फिल्म सोहनी महिवाल में भीम और गौहर की केंद्रीय भूमिका थी। रोशन लाल
शोरे ने भी १९३९ में सोहनी महिवाल फिल्म का निर्माण किया। डायरेक्टर इश्वरलाल और
रविन्द्र जयकार की १९४६ में रिलीज़ फिल्म सोहनी महिवाल में बेगम पारा, राजा नवाथे की १९५८ में रिलीज़ फिल्म में भारत
भूषण और निम्मी ने तथा १९८४ में रिलीज़ उमेश मेहरा की फिल्म सोहनी महिवाल में सनी
देओल और पूना ढिल्लों ने महिवाल और सोहनी का किरदार किया था।
हीर और रांझा
बांसुरी बजाने में
माहिर पंजाबी जाट रांझा पड़ोस के गाँव की हीर पर मर मिटता है। इस दुखांत कथानक पर
भी फ़िल्में बनाई गई। दिलचस्प तथ्य यह था
कि यह ज़्यादातर फ़िल्में खूब सफल भी हुई। हीर और रांझा की प्रेम कथा पर मूक युग में ही
फिल्मों का निर्माण शुरू हो गया। सबसे
पहले १९२८ में फातमा बेगम ने जुबैदा को लेकर मूक फिल्म हीर राँझा का निर्माण
किया। इसके बाद १९२९ में आर एस चौधरी और
पेसी करानी की फिल्म हीर राँझा में दिनशा बिलमोरिया, रूबी मायेर्स, फारुखी और इस्माइल ने हीर रांझा की प्रेमकथा को पेश किया था। १९३१ में जगत राय
पेसुमल अडवाणी की फिल्म हीर रांझा में मास्टर फकीरा और शांति कुमारी के साथ हीर
रांझा का निर्माण किया। १९४८ में मुमताज़ शांति, गुलाम मोहमद को लेकर हीर रांझा बनी। ए आर करदार की पंजाबी
फिल्म हीर रांझा में रफ़ीक गजनवी और अनवरी बेगम ने रांझा और हीर के किरदार किये
थे। क्षितिज चौधरी और हरजीत सिंह की फिल्म
हीर राँझा: अ ट्रू लव स्टोरी में गायक
हरभजन मान ने रांझा और नीरू बजवा ने हीर का किरदार किया था। इससे पहले हरमेश
मल्होत्रा की फिल्म हीर राँझा (१९९२) में यह किरदार श्रीदेवी और अनिल कपूर ने किये
थे। प्रोडूसर डायरेक्टर पी ड़ी मेहरा की फिल्म इश्क खुदा है की कहानी भी हीर रांझा
पर ही थी। हीर रांझा की मोहब्बत की दास्ताँ को क्लासिक फिल्म का रूप दिया चेतन
आनंद ने। फिल्म थी हीर रांझा। फिल्म के रांझा राजकुमार थे तथा उनकी हीर प्रिय
राजवंश थी। पद्य शैली में इस फिल्म को
असफलता मिली।
अरब से आये लैला और मजनू
मोहब्बत की प्राचीन दुखांत कथाओं में अरब देश से आकर हिंदुस्तान में बेहद लोकप्रिय क़ैस और लैला मोहब्बत की दास्तान पर बनी हिंदी फिल्मों का ज़िक्र लाजिमी है। लैला के साथ मोहब्बत में पड़ कर क़ैस शायरी करने लगा। उसके शायरी और लैला के प्रति जूनून को देख कर लोगों ने उसे मजनूँ यानि पागल का खिताब दे दिया। मजनूं ने जब लैला के पिता से उसका हाथ माँगा तो पिता ने साफ़ मना कर दिया और लैला की शादी एक रईस व्यापारी के साथ कर दी। अब यह बात दीगर है कि लैला को यह शादी रास नहीं आई और वह बीमार हो कर मर गई । लैला के गम में दीवाना मजनू भी पहाड़ों पर शायरी गढ़ता हुआ मर जाता है। बॉलीवुड ने लैला मजनू की दास्ताँ पर ढेरों फ़िल्में बनाई हैं। १९२२ में लैला मजनू पर पहली मूक फिल्म रिलीज़ हुई। कांजीभाई राठौड़ की १९३१ में बनाई गई लैला मजनू में ग़ज़नवी और जहाँआरा कज्जन ने मजनू और लैला की दास्ताँ पहली बार परदे पर सवाक पेश की। दो साल बाद बी एस राजहंस ने एम् सूकी और फातिमा जैस्मिन को लेकर लैला मजनू बनाई। १९४५ में नज़ीर ने खुद मजनू और स्वर्णलता को अपनी लैला बना कर लैला मजनू का निर्माण किया। यहाँ एक दिलचस्प तथ्य यह कि याहू अभिनेता शम्मी कपूर के करियर की शुरुआत की तीसरी फिल्म लैला मजनू थी। इस फिल्म में मजनू बने शम्मी कपूर की लैला नूतन थी। वहीँ उनके बड़े भाई राजकपूर के बेटे ऋषि कपूर की एक बड़ी हिट फिल्मों में एच एस रवैल की फिल्म लैला मजनू का नाम शामिल है। १९७९ में रिलीज़ इस फिल्म में लैला की भूमिका रंजीता ने की थी। लैला मजनू की कहानी पर दक्षिण में भी फ़िल्में बनाई गई। इनमे १९४९ में रिलीज़ पी एस रामकृष्ण राव की फिल्म उल्लेखनीय है। इस फिल्म में ए नागेश्वर राव ने क़ैस और भानुमति रामकृष्ण ने लैला की भूमिका की थी। पी. भास्करन की १९६२ में रिलीज़ मलयालम फिल्म लैला मजनू में प्रेम नज़ीर ने मजनू और एल विजयलक्ष्मी ने लैला का किरदार किया था।
अरब से आये लैला और मजनू
मोहब्बत की प्राचीन दुखांत कथाओं में अरब देश से आकर हिंदुस्तान में बेहद लोकप्रिय क़ैस और लैला मोहब्बत की दास्तान पर बनी हिंदी फिल्मों का ज़िक्र लाजिमी है। लैला के साथ मोहब्बत में पड़ कर क़ैस शायरी करने लगा। उसके शायरी और लैला के प्रति जूनून को देख कर लोगों ने उसे मजनूँ यानि पागल का खिताब दे दिया। मजनूं ने जब लैला के पिता से उसका हाथ माँगा तो पिता ने साफ़ मना कर दिया और लैला की शादी एक रईस व्यापारी के साथ कर दी। अब यह बात दीगर है कि लैला को यह शादी रास नहीं आई और वह बीमार हो कर मर गई । लैला के गम में दीवाना मजनू भी पहाड़ों पर शायरी गढ़ता हुआ मर जाता है। बॉलीवुड ने लैला मजनू की दास्ताँ पर ढेरों फ़िल्में बनाई हैं। १९२२ में लैला मजनू पर पहली मूक फिल्म रिलीज़ हुई। कांजीभाई राठौड़ की १९३१ में बनाई गई लैला मजनू में ग़ज़नवी और जहाँआरा कज्जन ने मजनू और लैला की दास्ताँ पहली बार परदे पर सवाक पेश की। दो साल बाद बी एस राजहंस ने एम् सूकी और फातिमा जैस्मिन को लेकर लैला मजनू बनाई। १९४५ में नज़ीर ने खुद मजनू और स्वर्णलता को अपनी लैला बना कर लैला मजनू का निर्माण किया। यहाँ एक दिलचस्प तथ्य यह कि याहू अभिनेता शम्मी कपूर के करियर की शुरुआत की तीसरी फिल्म लैला मजनू थी। इस फिल्म में मजनू बने शम्मी कपूर की लैला नूतन थी। वहीँ उनके बड़े भाई राजकपूर के बेटे ऋषि कपूर की एक बड़ी हिट फिल्मों में एच एस रवैल की फिल्म लैला मजनू का नाम शामिल है। १९७९ में रिलीज़ इस फिल्म में लैला की भूमिका रंजीता ने की थी। लैला मजनू की कहानी पर दक्षिण में भी फ़िल्में बनाई गई। इनमे १९४९ में रिलीज़ पी एस रामकृष्ण राव की फिल्म उल्लेखनीय है। इस फिल्म में ए नागेश्वर राव ने क़ैस और भानुमति रामकृष्ण ने लैला की भूमिका की थी। पी. भास्करन की १९६२ में रिलीज़ मलयालम फिल्म लैला मजनू में प्रेम नज़ीर ने मजनू और एल विजयलक्ष्मी ने लैला का किरदार किया था।
शीरीं और फरहाद
ईरान से आई, ससानियां के राजा फरहाद और आर्मेनिया की राजकुमारी शीरीं की मोहब्बत की दास्तान पर भी बॉलीवुड ने फ़िल्में बनाई । होमी मास्टर ने १९२२ में मूक फिल्म शीरीं फरहाद बनाई। जे जे मदन ने १९३१ में निसार, शरीफा, जहाँआरा कज्जन और मोहम्मद हुसैन को लेकर शीरीं फरहाद का निर्माण किया। १९४५ में जयंत, गुलाम मोहम्मद रागिनी और ज़हूर शाह के साथ, अस्पी ईरानी ने मधुबाला को शीरीं और प्रदीप कुमार को फरहाद बना कर, ईरानी लोक कथा को अमर कर दिया।
राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने मिर्ज़ा और साहिबां की मोहब्बत की दास्तान को समकालीन रंग दिया है। देखने वाली बात यह होगी कि वह इस फिल्म को रोमांटिक अंदाज़ के साथ पेश करते हैं या एक्शन फिल्म बना कर। फिल्म के ट्रेलर तो ऐसा आभास देते हैं कि यह एक्शन से भरी फिल्म है। समकालीन कथानक होने के कारण इसमे गोला-बारूद भी दगेगा। क्या १२वी सदी में लिखी गई यह कहानी इक्कीसवी सदी के दर्शकों को लुभाएगी ?
राजेंद्र कांडपाल
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