बॉलीवुड
फिल्मों की आलोचना करना फिल्म समीक्षकों का पसंदीदा काम है। किसी फिल्म की इतना निर्मम तरीके से बखिया उधेड़ते हैं कि फिल्मकार और फिल्म से जुड़े
लोग तिलमिला उठते हैं। कई ऐसे उदाहरण हैं, जिनमे फिल्म वालों ने पत्रकारों को उनकी आलोचना
के एवज में नहीं बख्शा। यह तब हो रहा है,
जब कई
फिल्मकारों ने अपने करियर की शुरुआत बतौर पत्रकार की। ऐसे जब हिंदी फिल्मों की
बखिया उधेड़ने वाले पत्रकार फिल्म बनाने पर उतरते हैं, तो फिल्मकार भी
पत्रकार बन जाते हैं। ऐसे पत्रकारों
के बारे में जानना दिलचस्प होगा।
पहला
फिल्म पत्रकार/संपादक - बाबूराव पटेल
बाबूराव
पटेल ऐसे पहले फिल्म लेखक, संपादक थे, जिन्होंने पहली
फिल्म पत्रिका फ़िल्म इंडिया (१९३५ से प्रकाशित) की स्थापना की और संपादन
किया। उनकी मैगज़ीन का प्रश्न उत्तर का
स्तम्भ दिलचस्प हुआ करता था, जिसमे वह प्रश्न और उत्तरों के द्वारा फिल्म
वालों की बखिया उधेड़ा करते थे। उनके इस
स्तम्भ की चर्चा टाइम मैगज़ीन ने ३ नवम्बर १९४१ के अंक में उदाहरण सहित की थी। इसे देखे कर ही मशहूर अंग्रेजी
फिल्म मासिक फिल्मफेयर ने भी प्रश्न उत्तर का एक
कॉलम शुरू किया। शुरुआत में पाठकों
के सवालों के जवाब जीनियस अभिनेता आई एस जौहर दिया करते थे। आजकल शत्रुघ्न सिन्हा
इसका संचालन कर रहे हैं।बाबूराव पटेल ने तत्कालीन फिल्मकारों, फिल्म कलाकारों और
उनकी फिल्मों की ऎसी तीखी आलोचना की कि यह लोग तिलमिला उठते थे। एक ऎसी ही टिपण्णी
पढ़ कर उस समय की बड़ी एक्ट्रेस शांता आप्टे ने उनके चैम्बर में ही उनकी पिटाई कर दी
थी। बाबूराव ने सति महानंदा, महारानी, बाला जोबन, परदेसी सैयां,
द्रौपदी और
ग्वालन जैसी फिल्मों का निर्देशन किया।
बीआर
चोपड़ा
लुधियाना
में जन्मे बीआर चोपड़ा ने अपने करियर की शुरुआत १९४४ में लाहौर से प्रकाशित होने
वाली मासिक पत्रिका सिने हेराल्ड के पत्रकार के बतौर की थी। १९४७ में वह आई एस जौहर की कहानी पर फिल्म
चांदनी चौक का निर्माण कर रहे थे कि देश का बंटवारा हो गया और वह दिल्ली और फिर
बॉम्बे आ गए। उनकी बतौर निर्देशक पहली
करवट फ्लॉप हुई थी। लेकिन, अगली ही फिल्म
अफसाना से वह स्थापित हो गए। इस फिल्म में
अशोक कुमार की दोहरी भूमिका थी। बाद में
१९५४ में चोपड़ा ने चांदनी चौक का निर्माण मीना कुमारी के साथ किया।
खालिद
मोहम्मद
फिल्मफेयर
मैगज़ीन के प्रधान संपादक रहे खालिद मोहम्मद फिल्मों की समीक्षा करते समय कोई कसर
नहीं छोड़ा करते थे। उनकी समीक्षा फिल्म
दर्शकों को काफी पसंद आती थी, लेकिन फिल्मकार इसे पसंद नहीं करते थे। खालिद
मोहम्मद ने बहुत कम फिल्मों को फाइव स्टार
रेटिंग दी। इनमे सत्या और स्लमडॉग
मिलियनेयर शामिल है। वह मशहूर अभिनेत्री
ज़ुबैदा बेगम के बेटे थे। उन्होंने अपनी माँ पर ही श्याम बेनेगल के लिए २००१ में
रिलीज़ फिल्म ज़ुबैदा की स्क्रिप्ट लिखी थी।
खालिद मोहम्मद द्वारा निर्देशित पहली हिंदी फिल्म फ़िज़ा थी। हृथिक रोशन, करिश्मा कपूर और जया
बच्चन अभिनीत एक आतंकवादी पर फिल्म फ़िज़ा को उनके साथी समीक्षकों ने काफी सराहा,
लेकिन
दर्शकों को फिल्म उतनी पसंद नहीं आई।
खालिद सुभाष घई की फिल्मों को बुरी तरह से खारिज़ किया करते थे। इसीलिए, जब खालिद की फिल्म फ़िज़ा रिलीज़ हुई और एक अख़बार ने
सुभाष घई से फिल्म की समीक्षा करने को कहा तो उन्होंने फ़िज़ा को स्केची कैरेक्टराइजेशन,
इनकोहेरेंट
स्क्रिप्ट, स्क्रीची
बैकग्राउंड म्यूजिक वाली फिल्म बताया।
खालिद मोहमद ने फ़िज़ा के अलावा तारीख, तहज़ीब और सिलसिले
फिल्मों का भी निर्देशन किया।
मृणाल
सेन भी थे पत्रकार
किसी
पत्रकार या समीक्षक का फिल्म निर्देशन
करना, कोई
नया नशा नहीं। बाबूराव पटेल उदहारण हैं कि
वह पत्रकारिता करते करते फिल्म निर्देशन भी करने लगे। उनकी फ़िल्में अच्छा बिज़नस भी कर गई। बीआर चोपड़ा जैसे कई उदाहरण हैं, जिनमे पत्रकार या
फिल्म समीक्षक निर्देशन के क्षेत्र में उतरे।
मृणाल सेन ने फिल्म निर्देशन से
पहले फ्रीलान्स जॉर्नलिस्ट के बतौर काम किया था।
उन्होंने १९५६ में बांग्ला फिल्म रात भोरे से बतौर निर्देशक अपने करियर की
शुरुआत की। डिअर सिनेमा डॉट कॉम के फाउंडर-एडिटर बिकास मिश्र ने फिल्म चौरंगा
(२०१४) का निर्देशन किया था। स्क्रीन और टीवी एंड वीडियो वर्ल्ड के संपादक
संजीत नार्वेकर ने कई लघु फ़िल्में बनाई हैं
और मराठी और हिंदी फ़िल्में लिखी हैं। फिल्म पब्लिसिटी करने वाले हरीश शर्मा
और इरफ़ान शमी भी फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में उतरे हैं। इरफ़ान सांसी भाषा में बनाने वाले दुनिया की
पहली फिल्म का निर्देशन करेंगे।
कम
बजट की फ़िल्में ज्यादा पत्रकार निर्देशक
कम
बजट की फिल्मों के प्रति फिल्म निर्माताओं और संस्थाओं का रुझान बढ़ा है। जहाँ यशराज फिल्म्स, धर्मा प्रोडक्शन्स,
बालाजी फिल्म,
मुक्ता
आर्ट्स, आदि
बड़े बैनर भी अपनी सब्सिडियरी यूनिट्स के
जारी काम बजट की फ़िल्में बना रहे हैं। कुछ
एक्टर भी अपने बैनर के ज़रिये कम बजट की
फ़िल्में बना रहे हैं। इन फिल्मों के कारण
नये नए निर्देशकों की राह आसान हुई है।
यही कारण है कि काफी पत्रकार निर्देशन के क्षेत्र में हाथ आजमा रहे
हैं। मुम्बई मिरर के लिए फिल्म रिव्यु
करने वाले करण अंशुमान की फिल्म बंगिस्तान चर्चित हुई। न्यूज़ वीडियो मैगज़ीन न्यूजट्रैक और मुम्बई
मिरर के पत्रकार मिन्टी तेजपाल ने टीवी मूवी काम का प्लाट, फिल्म समीक्षक राजा
सेन ने एक्स- द फिल्म, द
हिन्दू के सुधीश कामथ ने द फोर लेटर वर्ड, गुड नाईट गुड मॉर्निंग और एक्स- पास्ट इस
प्रेजेंट, द
टेलीग्राफ के बॉलीवुड फिल्म समीक्षक प्रतिम डी गुप्ता ने बांग्ला रोमांस फिल्म
पांच अध्याय, प्रिंट
टेलीविज़न और इन्टरनेट जॉर्नलिस्ट महेश नायर ने एक्सीडेंट ऑन हिल रोड, ज़ी न्यूज़ स्टार
न्यूज़ और इंडिया टुडे न्यूज़ के पत्रकार विनोद कापड़ी ने मिस टनकपुर हो बना कर खुद
का नाम पत्रकार से फिल्म निर्देशक बनी हस्तियों में शामिल करवा लिया है। लेकिन इस सबसे ज़्यादा सफल रहे पोलिटिकल
जॉर्नलिस्ट सुभाष कपूर। सुभाष की फ्लॉप
शुरुआत फिल्म से सलाम इंडिया से हुई थी।
लेकिन जॉली एलएलबी ने उन्हें स्थापित कर दिया। उनकी अक्षय कुमार के साथ जॉली एलएलबी का सीक्वल
अगले सीक्वल रिलीज़ होगा।
महिला
पत्रकार भी पीछे नहीं
साई
परांजपे आल इंडिया रेडियो में काम कराती थी।
उन्होंने स्पर्श, चश्मेबद्दूर और कथा जैसी फिल्मों का निर्देशन
किया। बांग्ला और हिंदी फिल्मों की
अभिनेत्री अपर्णा सेन १९८६ से २००५ तक बांग्ला पाक्षिक सानंद की संपादक थी। संघर्ष की डायरेक्टर तनूजा चंद्र ने १९९३- ९४
में प्लस चैनल के लिए काम किया था। खुद की
पहचान बतौर एक्ट्रेस स्थापित की थी। भावना
तलवार एशियन एज में फिल्म, थिएटर और फैशन देखा कराती थी। फिर एक एड कंपनी में काम करने लगी।
२००७ में धर्म फिल्म का निर्देशन किया।
पंकज कपूर और सुप्रिया पाठक की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म की कहानी एक
ब्राह्मण द्वारा एक मुसलमान लडके को पालने की कहानी थी, जिसकी ज़िन्दगी में
उस समय भूचाल आ जाता है, जब चलता
है कि वह बच्चा वास्तव में मुस्लमान है। इस
फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में राष्ट्रीय एकीकरण की फिल्म का नर्गिस
दत्त अवार्ड मिला था। पीपली लाइव फिल्म में मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज़ की भेड़चाल का
चित्रण करने वाली निर्देशक अनुषा रिज़वी खुद भी एनडी टीवी इंडिया में जॉर्नलिस्ट
थी।
पत्रकारों
के फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में उतरने से ख़ास तौर पर बॉलीवुड फिल्मों को नई
दृष्टि मिली है। यहीं कारण है कि आतंकवाद
और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर तीखी टिप्पणियां करने वाली फ़िल्में देखने को मिल जाती
हैं। सुभाष कपूर की फिल्म जॉली एलएलबी
अदालतों की दशा पर तीखा व्यंग्य करती
हैं। लेकिन न्यायपालिका पर दोष नहीं
लगाती। सोचिये अगर बीआर चोपड़ा पत्रकार की नज़र न रखते तो नया दौर साधना, कानून, गुमराह, पति पत्नी और वह,
आज की आवाज़,
निकाह,
आदि समाज के
हर वर्ग पर नज़र रखने वाली फ़िल्में देखने को नहीं मिलती।
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