इस साल के पद्म पुरस्कारों में कादर खान का नाम देखना सुखद अनुभव
रहा।
कादर खान हरफनमौला थे। उनके कड़क संवाद और कसी हुई स्क्रिप्ट पर बनी फ़िल्में किसी भी अमिताभ बच्चन को सुपरस्टार बना सकती थी।
उनकी कलम ने बॉलीवुड को दसियों हिट-सुपरहिट और मेगा हिट फ़िल्में दी। इन फिल्मों की सफलता के लिए अगर किसी अमिताभ बच्चन,
राजेश खंन्ना या गोविंदा को श्रेय दिया जाता है तो कादर खान की कलम को
कैसे भुला दिया जा सकता है ! क्योंकि,
उनके लिखे संवाद बोल कर ही तो यह स्टार बने थे।
पद्म पुरस्कारों में पार्टी बंदी से इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि, कादर खान की
स्क्रिप्ट और संवाद के कारण सुपरस्टार बने अमिताभ बच्चन को १९८४ में पद्मश्री,
२००१ में पद्म भूषण और २०१५ में पद्म विभूषण दे दिया गया था। क्या यह उनकी कांग्रेस पार्टी से, ख़ास तौर पर राजनीती के गाँधी परिवार से नजदींकी का नतीजा नहीं था ?
राजेश खन्ना को भी २०१३
में मरणोपरांत पद्म भूषण दिया गया। वह भी कांग्रेस के नज़दीक थे तथा दिल्ली से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ कर जीते थे।
दिलचस्प तथ्य यह है कि
फिल्म इंडस्ट्री को दिए जाने वाले पॉपुलर अवार्ड्स में भी कादर खान को पुरस्कार
देने में कंजूसी की। जबकि वह एक्टर के तौर
पर कॉमेडियन भी थे, क्रूर विलेन भी और रुला देने वाले चरित्र
अभिनेता भी थे।
क्या यह कादर खान के साथ
अन्याय नहीं था कि ४ दशक लम्बे फिल्म करियर में उन्हें सिर्फ तीन बार पुरस्कारों के योग्य समझा गया। उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कारों में,
मेरी आवाज़ सुनो (१९८२) के संवादों, बाप नम्बरी
बेटा दस नम्बरी (१९९१) में कॉमेडी और
अंगार (१९९३) में संवाद की श्रेणी में पुरस्कृत किया गया।
बहरहाल, देर आयद
दुरुस्त आया। केंद्र सरकार ने उन्हें
मरणोपरांत ही सही, पद्म पुरस्कार के उपयुक्त तो समझा।
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