पत्रकार से फिल्म निर्देशक बने जैगम इमाम (Zaigham Imam) की फिल्म नक्काश (Nakkash) की कहानी बनारस
की पृष्ठभूमि पर, बनारस के मंदिरों में नक्काशी करने वाले
मुस्लिम नक्काश अल्लाह रखा की है। राजनीतिक हलचलों के बीच अल्लाह रखा को अपना काम
चोरी-छुपे करना पड़ता है। हालाँकि, उसे मंदिर
के ट्रस्टी का संरक्षण प्राप्त है। फिल्म की कहानी में एक दिन भेद
खुलता है। तब क्या होता है ?
नक्काश और नक्काश जैसी बहुत सी फ़िल्में इधर एक साल में बनाई गई है। इन
ज़्यादातर फिल्मों का विषय साम्प्रदायिक एकता और भाई चारा है। लेकिन,
इनमे से ज़्यादातर फ़िल्में किसी ख़ास रुझान से बनाई गई प्रतीत होती हैं। इन
फिल्मों का प्रचार भी इसी रुझान के तहत किया जाता है। अनुभव सिन्हा (Anubhav Sinha) की फिल्म मुल्क (Mulk),
हामिद (Hameed), राम की जन्मभूमि (Ram Ki Janmbhoomi),
आदि संतुलित फ़िल्में बन कर नहीं उभरती। इसीलिए यह फ़िल्में Festivals के अलावा सामान्य दर्शकों के बीच अपनी जगह नहीं बना पाती।
बॉलीवुड तो ख़ास तौर पर एकांगी फ़िल्में बनाने लगा है। आमिर खान (Aaamir Khan) की पीके (PK),
धर्म संकट में (Dharm Sankat Mein) , आदि फिल्मों पर हिन्दू धर्म को निशाना बनाने
के आरोप लगे। केदारनाथ (Kedarnath), कलंक (Kalank), माय नेम इज
खान (My Name Is Khan) तो मुसलमान लडके से हिन्दू लड़की के प्रेम का कथानक दिखाते दिखाते बदनीयती का
शिकार हो गई। अल्बर्ट पिंटू को गुस्सा क्यों आता है (Albert Pinto Ko Gussa Kyon Aataa Hai) के निर्माता को देश में
भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार नज़र आया।
इस लिहाज से नक्काश (Nakkash) से उम्मीदें बाँधी जा सकती है. यह उम्मीद इस फिल्म के
बाप बेटे के बीच के संवाद से होती है. “यह किसका घर
है !” “भगवान् का” “यह भगवान् कौन
है?” “अल्लाह मिया का भाई !” साधारण से
शब्दों से तैयार यह संवाद अपना सन्देश देने में कामयाब होता है। जबकि बाकी फ़िल्में
भाषणबाज़ी करती हुई देश को लांछित करती लगती थी।
नक्काश (Nakkash) के अलावा, निर्देशक लोमहर्ष (Lomharsh) की फिल्म ये है इंडिया (Yeh Hai India) भी
भारत की सकारात्मक तस्वीर पेश करती है। ब्रिटेन में रह रहे २५ साल के एनआरआई के
दिमाग में भारत की एक पिछड़े हुए, बड़ी आबादी
वाले, प्रदूषित और गरीब देश की है। जब वह भारत आता
है तब उसे पता है कि देश ने क्या क्या प्रगति कर ली है। देश के प्रति उसकी
विचारधारा बदल जाती है।
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