शशांत शाह ने अब तक दो फिल्मों दस्विदानियाँ और चलो दिल्ली का निर्देशन किया है. इन दोनों फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर चाहे जैसा भी बिज़नस किया हो, शशांत शाह की फिल्म मेकिंग की ज़रूर तारीफ हुइ. वह अलग तरह का सोचते हैं और बनाते है. नयी फिल्म बजाते रहो में भी सशांत का यही रूप नज़र आता है. यह कहानी शबरवाल की है, जो गरीबों से ज्यादा ब्याज का लालच दे कर १५ करोड़ इक्कठा करता है और फिर उन पैसों को गायब कर देता है. इसका इलज़ाम इसके मेनेजर बवेजा पर आता है. बवेजा की मौत हो जाती है. लेकिन, बवेजा परिवार को, चाहे घर बेचना पड़े, यह पैसे चुकाने है. तब बवेजा की विधवा मिसेज बवेजा, उनका पुत्र सुक्खी, बल्लू और मिंटू को यह क़र्ज़ चुकाना है. तब वह निर्णय लेते हैं कि यह पैसा वह शबरवाल से ही वसूलेंगे, चाहे इसके लिए उन्हें गलत तरीका ही क्यों न अपनाना पड़े. चारों शबरवाल से किस प्रकार से वसूलते हैं, यह देखना काफी कुछ दिलचस्प है.
एक नज़र में यह कहानी कुछ जमती नही. क्योंकि, एक धोखेबाज को धोखा देना इतना आसान भी नही. लेकिन, जब कहानी आगे बढ़ती है तो सब कुछ मजेदार लगने लगता है. इसके लिए ज़फर ए खान की कथा पटकथा और अक्षय वर्मा के संवादों की तारीफ करनी होगी कि यह दोनों कहानी को ट्रैक से पलटने नहीं देते. तमाम प्रसंग आम आदमी के दैनिक जीवन से जुड़े और आसान है. कोइ भाषण बाजी नहीं, लेकिन दर्शक को सब समझ में आ जाता है. शशांत शाह अपने कलाकारों के अभिनय के जरिये फिल्म में दिलचस्पी बनाए रखी है. इसके लिए उन्हें श्रीमती बवेजा के रोल में डॉली अहलुवालिया, सुखी के रूप में तुषार, मिंटू और बल्लू की भूमिका में विनय पाठक और रणवीर शोरे का बढ़िया सहयोग मिला है. इन्होने अभिनय के कोई बड़े तीर नहीं मारे . लेकिन अपने आम आदमी को जीवंत कर दिया है. अब यह बात दीगर है कि इन सब पर भारी पड़ते हैं रवि किशन. उन्होंने फिल्म में अपनी एक धोखेबाज की आम भूमिका को ख़ास बना दिया है. उन्होंने अभिनय के खूबसूरत रंग दिखाए है. वह एक दुष्ट बिज़नस मेन, एक दिलफेंक पर डरपोक आशिक और एक पिता के किरदार को वह आसानी से कर ले जाते है. मनप्रीत के रोल में विशाखा सिंह ने खूब ग्लैमर बिखेरा है. बग्गा के रोल में ब्रिजेन्द्र काला खूब जमे है. अन्य कलाकारों ने मुख्य कास्ट को सपोर्ट किया है.
बजाते रहो शबरवाल को बजाती है. उसके साथ ही दर्शक भी खूब बजता है. कम से कम कोई सीन ऐसा नहीं जिसमे बोरियत महसूस हो. मरयम जकारिया और स्कारलेट विल्सन का मैं नागिन नागिन आइटम दर्शकों को सीधे डंस जाता है.
एक नज़र में यह कहानी कुछ जमती नही. क्योंकि, एक धोखेबाज को धोखा देना इतना आसान भी नही. लेकिन, जब कहानी आगे बढ़ती है तो सब कुछ मजेदार लगने लगता है. इसके लिए ज़फर ए खान की कथा पटकथा और अक्षय वर्मा के संवादों की तारीफ करनी होगी कि यह दोनों कहानी को ट्रैक से पलटने नहीं देते. तमाम प्रसंग आम आदमी के दैनिक जीवन से जुड़े और आसान है. कोइ भाषण बाजी नहीं, लेकिन दर्शक को सब समझ में आ जाता है. शशांत शाह अपने कलाकारों के अभिनय के जरिये फिल्म में दिलचस्पी बनाए रखी है. इसके लिए उन्हें श्रीमती बवेजा के रोल में डॉली अहलुवालिया, सुखी के रूप में तुषार, मिंटू और बल्लू की भूमिका में विनय पाठक और रणवीर शोरे का बढ़िया सहयोग मिला है. इन्होने अभिनय के कोई बड़े तीर नहीं मारे . लेकिन अपने आम आदमी को जीवंत कर दिया है. अब यह बात दीगर है कि इन सब पर भारी पड़ते हैं रवि किशन. उन्होंने फिल्म में अपनी एक धोखेबाज की आम भूमिका को ख़ास बना दिया है. उन्होंने अभिनय के खूबसूरत रंग दिखाए है. वह एक दुष्ट बिज़नस मेन, एक दिलफेंक पर डरपोक आशिक और एक पिता के किरदार को वह आसानी से कर ले जाते है. मनप्रीत के रोल में विशाखा सिंह ने खूब ग्लैमर बिखेरा है. बग्गा के रोल में ब्रिजेन्द्र काला खूब जमे है. अन्य कलाकारों ने मुख्य कास्ट को सपोर्ट किया है.
बजाते रहो शबरवाल को बजाती है. उसके साथ ही दर्शक भी खूब बजता है. कम से कम कोई सीन ऐसा नहीं जिसमे बोरियत महसूस हो. मरयम जकारिया और स्कारलेट विल्सन का मैं नागिन नागिन आइटम दर्शकों को सीधे डंस जाता है.
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