भारतीय भाषाओँ हिंदी, तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, आदि की फिल्मो के बारे में जानकारी आवश्यक क्यों है ? हॉलीवुड की फिल्मों का भी बड़ा प्रभाव है. उस पर डिजिटल माध्यम ने मनोरंजन की दुनिया में क्रांति ला दी है. इसलिए इन सब के बारे में जानना आवश्यक है. फिल्म ही फिल्म इन सब की जानकारी देने का ऐसा ही एक प्रयास है.
Friday, 5 July 2013
दर्शकों दिल लूट लेगा यह 'लुटेरा' और उसकी लुटेरी
1907 में अमेरिकी कहानीकार ओ हेनरी की लघु कथा द लास्ट लीफ़ प्रकाशित हुई थी। ग्रीनविच गाँव की पृष्ठभूमि पर यह कहानी निमोनिया से पीड़ित एक युवती की थी। वह खिड़की से बाहर अंगूर की बेल की पत्तियां झड़ती देखती रहती है। वह सोचती है कि जब इस अंगूर की आखिरी पत्ती गिर जाएगी तब वह भी मर जाएगी.। उसके घर के नीचे एक हताश चित्रकार भी रहता है, जो चाहता है एक मास्टरपीस पेंटिंग बनाना, जिसे सब सराहें। उसे जब युवती की सोच के बारे में पता चलता है तो वह उससे कहता है कि वह ऐसा न सोचे। पत्ती कभी नहीं गिरेगी। एक दिन तूफानी रात में आखिरी पत्ती भी झाड जाती है। आर्टिस्ट को पता चलता है तो वह बेल पर एक पत्ती की पेंटिंग बना कर लगा देता है। समय के साथ वह लड़की दवा लेकर ठीक हो जाती है। उधर आर्टिस्ट को निमोनिया हो जाता है। उसे अस्पताल ले जाया जाता है, पर वह बच नहीं पाता।
ओ हेनरी की यह कहानी जीने की आशा से लबरेज संदेश देने वाली थी। उड़ान से मशहूर विक्रमादित्य मोटवाने की फिल्म लुटेरा देखते हुए आप रोमैन्स से लिपटी इस जीवन की आशा की खुशबू को महसूस करते हैं। वरुण श्रीवास्तव प्राचीन मूर्तियों के लुटेरों के गिरोह का सदस्य है। वह एक जमींदार के मंदिर से प्राचीन मूर्ति चुराने विभाग के कर्मचारी की रूप मे आता है। जमींदार की लड़की पाखी उसे देख कर पहली नज़र में उससे प्यार करने लगती है। धीरे धीरे वरुण भी पाखी के प्यार में पड़ जाता है। मगर अपने चाचा की खातिर उसे ऐन मंगनी के वक़्त मूर्ति चुरा कर भागना पड़ता है। जमींदार को दिल का दौरा पड़ता और वह मर जाता है। एक साल बाद वरुण और पाखी डलहौजी में अजीब परिस्थिति में फिर मिलते हैं। पाखी को टीबी है। वह मरने के करीब है, जबकि वरुण को पुलिस से भागते समय गोली लगी हुई है। इसी अनोखे मिलन से द लास्ट लीफ़ का प्रवेश होता है। पाखी को लगता है कि जब उस के घर के सामने लगे पेड़ की आखिरी पत्ती गिर जाएगी तो वह भी मर जाएगी।
विक्रमादित्य ने लुटेरा की कहानी भवानी अइयर के साथ लिखी है। फिल्म की स्क्रिप्ट कुछ इस प्रकार लिखी गयी है कि हर रील के साथ दर्शकों में उत्सुकता बढ़ती जाती है, सस्पेन्स गहराता जाता है, इसके बावजूद रोमैन्स की खुशबू महसूस होती रहती है। फिल्म 1953 के कलकत्ता पर है। विक्रमादित्य ने कहानी की प्राचीनता को बनाए रखने के बावजूद वरुण और पाखी की जोड़ी के रोमैन्स की रुचिकर लहर बनाए रखी है। यह फिल्म मसाला थ्रिलर हो सकती थी, लेकिन मोटवाने ने इसे बैलेन्स रखते हुए रोमांटिक थ्रिलर बनाए रखा है। इसके बावजूद कि वरुण और पाखी के बीच गहरे रोमांटिक क्षण आते हैं, लेकिन दर्शक बिना किसी चुंबन या गरमा गरम आह ऊह की आवाज़ों के रोमैन्स को महसूस करता है। यह विक्रमादित्य, भवानी अय्यर की कथा पटकथा के अलावा अनुराग कश्यप के संवादों का असर था। फिल्म में अमित त्रिवेदी का संगीत रोमैन्स को महसूस कराता है। हल्की धुनों के बावजूद दर्शक ऊबता नहीं। अन्यथा आज का दर्शक तो तेज़ धुनों का आदि हो गया है। महेंद्र शेट्टी का केमरा डलहौजी की खूबसूरती को पाखी की खूबसूरती से कुछ इस प्रकार मिलाता है कि दर्शक मुग्ध हो जाता है। उन्होने डलहौजी की गलियों में एक्शन को बेहतर ढंग से फिल्माया है। फिल्म की संपादक दीपिका कैरा से ज़्यादा मेहनत की अपेक्षा थी। उन्हे फिल्म को थोड़ा छोटा करना चाहिए था। सुबरना रॉय चौधरी ने बंगाली वेश भूषा में प्राचीन गहने और वस्त्रों को शामिल कर फिल्म को वास्तविकता देने की भरपूर कोशिश की है। Kazvin दंगोर और धारा जैन की सेट डिज़ाइनिंग माहौल के अनुकूल है।
अब आते है अभिनय पर। सोनाक्षी सिन्हा को अभी तक दर्शकों ने सलमान खान, अक्षय कुमार और अजय देवगन जैसे एक्शन अभिनेताओं के साथ शोख अदाएं बिखेरते देखा था। इन आधा दर्जन फिल्मों में सोनाक्षी सजावटी गुड़िया से अधिक नहीं थी। लेकिन, लुटेरा की पाखी के रूप में वह जितनी सुंदर दिखती हैं, उससे कहीं आधिक प्रभावशाली और दिल को छू लेने वाला अभिनय करती हैं। पाखी के वरुण बने रणवीर सिंह को प्यार भरी निगाह से देखती सोनाक्षी की हिरणी जैसी जैसी आँखें दर्शकों के दिलों में धंस जाती हैं। बीमार पाखी के दर्द और असहायता को सोनाक्षी ने बेहद मार्मिक ढंग से अपनी आँखों और चेहरे के भावों से प्रस्तुत किया है। इस फिल्म के बाद सोनाक्षी का अपनी समकालीन अभिनेत्रियों को काफी पीछे छोड़ देना तय है। उनका पूरा पूरा साथ देते हैं वरुण श्रीवास्तव बने रणवीर सिंह। अभी तक रणवीर सिंह ने खिलंदड़े रोल ही किए हैं। इस फिल्म में वह अपने मूर्तियों के चोर और पाखी के प्रेम में पड़े , उसकी पीड़ा से छटपटते प्रेमी को बेहद स्वाभाविक तरीके से प्रस्तुत किया है। उन्होने साबित कर दिया है कि उनमे अभिनय की क्षमता है, बशर्ते की डाइरेक्टर भी सक्षम हो। अन्य भूमिकाओं में विक्रांत मैसी, आरिफ ज़ाकरिया, अदिल हुसैन, शिरीन गुहा और प्रिंस हैदर मुख्य पत्रों को सपोर्ट करते हैं।
लुटेरा की शुरुआत धीमी गति से होती हैं। खास तौर पर फ़र्स्ट हाफ थोड़ा धीमा है, पर यह कहानी बिल्ड करता है, इधर उधर भटकता नहीं। रोमैन्स के फूल खिलने लगते हैं। दूसरे हाफ में रणवीर के फिर प्रवेश के बाद फिल्म में थ्रिल पैदा होता है, जो ऐसा अमर प्रेम पैदा करता है, जिसकी कल्पना हिन्दी दर्शकों ने की नहीं होगी।
लुटेरा को देखा जाना चाहिए अपनी साफ सुथरी कहानी, माहौल, रोमैन्स तथा सोनाक्षी सिन्हा और रणवीर सिंह के बेहतरीन अभिनय के लिए। जो दर्शक अच्छी फिल्मों की चाहत रखते हो वह निश्चित तौर पर निराश नहीं होंगे।
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फिल्म समीक्षा
मैं हिंदी भाषा में लिखता हूँ. मुझे लिखना बहुत पसंद है. विशेष रूप से हिंदी तथा भारतीय भाषाओँ की तथा हॉलीवुड की फिल्मों पर. टेलीविज़न पर, यदि कुछ विशेष हो. कविता कहानी कहना भी पसंद है.
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