क्या दर्शक दाऊद इब्राहीम को भारत में गोली मारते देखना चाहते है? क्या रील में इसे देख कर वह तालियाँ बजाने के अलावा देखने भी आएंगे और अपने दोस्तों को भी न्योता देंगे? अगर हां, तो समझ लीजिये कि डी-डे हिट फिल्म है.
फिल्म की कहानी के अनुसार एक रिटायर्ड फ़ौजी कराची में रॉ के एजेंटों के साथ मिल कर दाऊद की फ़िल्मी कॉपी गोल्डमन को भारत में लाने की कोशिश करता है. इस फिल्म में भारत की सर्वोच्च संस्था के एजेंट जिस बचकाने तरीके से गोल्डमन को पाकिस्तान से भारत लाने का प्रयास करते है, अगर उसका एक प्रतिशत भी रॉ के एजेंट रियल में करते है, तो आसानी से समझा जा सकता है कि हम बार बार मुंह की क्यों खाते है। जिस प्रकार से निर्देशक निखिल आडवानी अपनी फिल्मों के एजेंट्स से काम करवाते है, वह वास्तव में बचकाना है. हाई सिक्यूरिटी के घेरे वाले होटल में दाऊद को उसके बेटे की शादी से उठाना, कल्पना की बकवास उड़ान ही कहा जा सकता है. उचित होता अगर निखिल इस कहानी से दोनों देशों की कूटनीति और रॉ एजेंट्स के प्रति भारत सर्कार की नीति को डिस्कस करते. निखिल फिल्म की कहानी को फ़्लैशबेक में दिखाते है। घटनाओं और चरित्रों की इतनी भरमार है कि दर्शक समझ नहीं पाटा कि कौन क्या और क्यों कर रहा है. अर्जुन रामपाल ठीक है. इरफ़ान खान को अब इस प्रकार के रोले नहीं करने चाहिये . ऋषि कपूर सावधान! अब आप चुकने जा रहे है। ऐसे रोले कतई नहीं करे. श्रुति हासन अपने रोल की तरह भ्रमित लगती है। हुम कुर्रेशी न तो सुन्दर लगती हैं न अभिनय कर पाती है। नासर ने रॉ के अधिकारी के रूप में अपने काम को अच्छी तरह से किया है.
बाकी कुछ भी उल्लेखनीय नही।
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