किसी घटना, जीवित व्यक्ति या हस्ती पर फिल्म बनाने के अपने खतरे होते हैं . सबसे बड़ा खतरा होता है बॉक्स ऑफिस। क्या दर्शक ऎसी फ़िल्में स्वीकार करेंगे? बॉलीवुड फिल्म मेकर्स को यही सवाल सबसे ज्यादा परेशां करता है.
इसके बावजूद राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने उड़न सिख मिल्खा सिंह पर फिल्म बना कर यह खतरा उठाया है. किसी फिल्म की सफलता उसके कल्पनाशील निर्देशन के अलावा चुस्त लेखन पर भी निर्भर करती हैं, घटनाये कुछ इस तरह पिरोया जाना, ताकि दर्शक बंधा रहे, ऊबे नहीं और फिल्म का प्रभाव और आत्मा भी ख़त्म न हो. उड़न सिख पर भाग मिल्खा भाग बना कर राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने यह खतरा उठाया है. इसमे वह काफी हद तक सफल भी रहे हैं, कैसे यह एक अलग बात है.
भाग मिल्खा भाग की कहानी शुरू होती है ओलंपिक्स की चार सौ मीटर दौड़ में भारत की पदकों की एक मात्र उम्मीद मिल्खा सिंह के चौथे स्थान पर रहने से. इसी जगह पर राकेश ने यह जताने की कोशिश की है कि मिल्खा सिंह पूरी दौड़ में आगे रहने के बावजूद चौथे स्थान पर कैसे पिछड़ गये. इसके बाद फिल्म एक के बाद एक फ़्लैश बेक और फ़्लैश बेक में फ़्लैश बेक के साथ आगे बढ़ती जाती है. मिल्खा सिंह का बचपन, विभाजन में परिवार को खो देने का दर्द, सबसे तेज़ भागने की जिजीविषा और प्रारंभिक असफलता, सफलता और असफलता और क्लाइमेक्स की सफलता पर आकर फिल्म ख़त्म होती है. इस समय तक फिल्म तीन घंटा सात मिनट हो जाती है. इसमे कोई शक नहीं कि मेहरा दर्शकों को बांधे रहते हैं . वह मिल्खा सिंह के जीवन से जुडी घटनाओं को हलके फुल्के तरीके से दिखाते है। मसलन उनका सोनम कपूर से रोमांस बच्चो के साथ कोयला चोरी करना दरोगा को चाकू मारना और पकड़ा जाना, फिर पैसों और अच्छे जीवन के लिए सेना से जुड़ना . राकेश यह सारे प्रसंग प्रभावशाली ढंग से रखते है। लेकिन न जाने क्यों वह पचास साथ के दशक की एक खिलाडी के जीवन पर फिल्म में बहन के अपने पति के साथ सेक्स और मिल्खा सिंह के ऑस्ट्रेलिया की लड़की के साथ वाइल्ड सेक्स का मोह नहीं छोड़ पाते. शायद बॉक्स ऑफिस का भूत उन्हें काट रहा था. यह स्वाभाविक भी था. मिल्खा और उनकी बहन के यह रोमांस फिल्म में नहीं भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ना था. इन द्रश्यों को काट कर फिल्म की लम्बाई कम की जा सकती है. इससे फिल्म रफ़्तार वाली और दर्शकों को ज्यादा बाँध सकने वाली बन जायेगी.
भाग मिल्खा भाग का शीर्षक मिल्खा सिंह के पिता द्वारा स्क्रीन पर बोले गए आखिरी शब्दों पर रखा गया है, लेकिन या मिल्खा सिंह की जीवनी को उभारता है. हालाँकि फिल्म लिखते समय राकेश के समझौते साफ़ नज़र आते है। वह भारत के सफलतम धावक मिल्खा सिंह के जीवन को दिखाना चाहते थे, यह तो तय है. लेकिन बॉक्स ऑफिस पर सफल होने के लिए उन्होंने पाकिस्तान से जुड़े भारतीय सेंटीमेंट को उभारने की कोशिश की है. भारत के लिए अब्दुल खालिक पाकिस्तान से चुनौती था. उसे हराना उस समय के भारत के लिहाज़ से भी बड़ी बात थी. मिल्खा उसे एशियाई खेलों में हरा भी चुके थे. लेकिन, उसे फ्रेंडली गेम में पाकिस्तान में पाकिस्तान को हराना को अपनी फिल्म का क्लाइमेक्स बनाना, राकेश की पाकिस्तान को खलनायक बनाने की सफल कोशिश कहा जा सकता है. मिल्खा सिंह के लिए पाकिस्तान दुश्मन देश था. उसे उसी की ज़मीन में हराना मिल्खा सिंह के लिए बड़ी बात थी. लेकिन उसे फिल्म का क्लाइमेक्स बनाना फिल्म के लिए बड़ी बात नहीं हो सकती. मिल्खा सिंह का शीर्ष रोम ओलंपिक्स में चार सौ मीटर दौड़ में चौथे स्थान पर रहना था. राकेश इसे अपनी फिल्म का क्लाइमेक्स बना कर और इस सम्मानित खिलाडी को उसकी पराजय में विजय दिखा कर सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते थे. लेकिन वह बॉक्स ऑफिस को श्रद्धांजलि देते नज़र आये. बहरहाल भारतीय जन मानस के लिहाज से और अँधेरे सिनेमाघर में बैठे दर्शकों की तालियाँ बटोरने के लिहाज से राकेश का यह अंदाज़ सफल रहा है.
जहाँ तक अभिनय की बात है, यह फिल्म फरहान अख्तर और पवन मल्होत्रा की फिल्म है. फरहान अख्तर अपने एथेलीट लुक से मिल्खा सिंह होने का एहसास कराते है. वह मिल्खा सिंह की हर जद्दो जहद को कामयाबी से प्रस्तुत करते है। वह इमोशन में भी पीछे नहीं रहते. लेकिन, उन पर भारी पड़ते है मिल्खा सिंह के कोच गुरुदेव सिंह के रोले में पवन मल्होत्रा. पवन ने काबिले तारीफ अभिनय किया है. हालाँकि वह कई बार सिख की भूमिका में नज़र आये है. लेकिन हर बार लाउड लगे है. जिस प्रकार से गुरुदेव सिंह ने रियल मिल्खा सिंह को कालजयी मिल्खा सिंह बनाया वैसे पवन मल्होत्रा फरहान को सही मायनों में मिल्खा सिंह नज़र आने के लिए सुपोर्ट करते है. लेकिन, बॉलीवुड और हॉलीवुड के तमाम दिग्गज कलाकारों की मौजूदगी में उभर कर आते हैं दिल्ली के मुंडे पारस रतन शारदा . मिल्खा सिंह के साथी सैनिक के रोले में दिल्ली का यह एमबीए पास लड़का फिल्म के हवन कुंड मस्तों का झुण्ड हम हवन करेंगे गीत में फरहान अख्तर के सामने भी वह अपने ज़बरदस्त और मस्त डांस के कारण छा जाते है। इंडियन कोच के रूप में क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह, आर्मी में प्रशिक्षक प्रकाश राज, मिल्खा सिंह का पहला प्यार सोनम कपूर, मिल्खा सिंह के पिता की भूमिका में आर्ट मालिक तथा मिल्खा की बड़ी बहन दिव्या दत्ता अपनी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते है।
जवाहर लाल नेहरु के रूप में दलीप ताहिल कुछ ख़ास नहीं . प्रसून जोशी के गीत तथा शंकर एहसान लोय का संगीत मस्त और माहौल के अनुरूप है. सिनेमेटोग्राफर बिनोद प्रधान का काम लाजवाब है. वह मिल्खा सिंह की सफलता असफलता को अपने कैमरा में दर्ज करते चले जाते है। फ्लैशबैक के द्रश्यों में बिनोद प्रधान ने कुछ मिनट तक ब्लैक एंड वाइट फिर रंगीन छायांकन कर दर्शकों को फ़्लैश बेक में कहानी सफलतपूर्वक समझा दी है. डॉली अहलुवालिया की प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने समय काल का ध्यान रख कर तमाम चरित्रों को उनके अनुरूप पोशाके पहनायी। फिल्म के एडिटर पी एस भारती अगर अपनी कैंची को तेज़ तर्रार रखते तो फिल्म का मज़ा ज्यादा होता।
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