राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल की इंदिरा गाँधी हत्याकांड की पृष्ठभूमि पर पोलिटिकल थ्रिलर फिल्म ३१ अक्टूबर को सेंसर बोर्ड ने नौ कट के साथ पारित कर दिया है । अब यह फिल्म इंदिरा गाँधी की हत्याकांड की तारिख से २४ दिन पहले ७ अक्टूबर को रिलीज़ होगी । ३१ अक्टूबर इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोध दंगों में सिख परिवार के जीवित रहने के लिए संघर्ष की सच्ची कहानी है । इस फिल्म को दुनिया के कई फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली है । फिल्म के निर्माता हैरी सचदेवा और आनंद प्रकाश कहते हैं, “हमें गर्व है कि हम तमाम बाधाओं को पार इस विषय को लोगों के सामने बड़े परदे पर लाने में सफल हुए हैं ।“
कैंची के शिकार ‘कौम दे हीरे’
इसमे कोई शक नहीं कि इस निर्माता जोड़ी को फिल्म पारित कराने में सेंसर से जूझना पडा । तमाम आलोचनाओं से जूझ रहे सेंसर बोर्ड को ध्यान रखना था कि फिल्म में ऎसी कोई बात न चली जाए, जिससे हिंसा भड़के । इसके बावजूद ३१ अक्टूबर के निर्माता भाग्यशाली हैं कि उनकी फिल्म चार महीने के बाद सेंसर द्वारा पारित कर दी गई । इस लिहाज़ से दो साल पहले एक पंजाबी फिल्म इतनी भाग्यशाली नहीं साबित हो सकी । सेंसर बोर्ड ने २०१४ में इस आधार पर निर्देशक रविंदर रवि की पंजाबी फिल्म कौम दे हीरे को बैन कर दिया कि यह इंदिरा गांधी की हत्या को जस्टिफाई करती थी और उनके हत्यारों बेंत सिंह, सतवंत सिंह और केहर सिंह को ग्लोरीफी करती थी। इस फिल्म को लीला सेमसन के सेंसर बोर्ड द्वारा हिंसा भड़कने की आशंका पर पारित नहीं किया गया था ।
इंदिरा गाँधी पर फ़िल्म !
भारत की प्रथम महिला प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी पर उनके जीवन और उनकी मृत्य के बाद फ़िल्में बनाने की कई कोशिशें की गई । बीबीसी द्वारा २००२ में निक रीड की ८० मिनट का एक वृत्तचित्र इंदिरा गाँधी: द डेथ ऑफ़ मदर इंडिया टेलीकास्ट की गई । लेकिन, इसके अलावा काफी दूसरे प्रयास परवान नहीं चढ़ सके । २००९ में इंदिरा गाँधी हत्याकांड पर एक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म बनाने का फैसला किया गया था । यह फिल्म इंदिरा गाँधी के हत्याकांड पर केन्द्रित थी । हत्याकांड के दिन इंदिरा गाँधी का इंटरव्यू करने पहुंचे पीटर उस्तीनोव की भूमिका के लिए अल्बर्ट फिन्ने को लिया गया था । हेलेन मिरेन क्वीन एलिज़ाबेथ, टॉम हंक्स और टोमी ली जोंस क्रमशः लिंडन बी जॉनसन और रिचर्ड निक्सन का किरदार करने वाले थे । ब्रितानी एक्ट्रेस एमिली वाटसन मार्गरेट थैचर का किरदार करने वाली थी । इस फिल्म में इंदिरा गाँधी की भूमिका के लिए माधुरी दीक्षित का नाम चल रहा था । उस समय इस फिल्म का बजट ४० मिलियन पौंड रखा गया था । लेकिन, कृष्णा शाह की यह फिल्म शूटिंग की दहलीज़ तक नहीं पहुँच सकी ।
बॉलीवुड अभिनेत्रियाँ चाहें इंदिरा गाँधी बनना
इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय गाँधी ने आपातकाल के दौरान बॉलीवुड को नाहक परेशान किया था । किशोर कुमार के गीतों के प्रसारण पर रोक, हिंदी फिल्मों पर कडा सेंसर और बैन बॉलीवुड पर भारी पड़ रहे थे । इसके बावजूद हिंदी फिल्मों की तमाम अभिनेत्रियाँ सेलुलाइड पर इंदिरा गाँधी बनने के लिए बेताब नज़र आती थी । कृष्णा शाह की इंदिरा गाँधी पर फिल्म में इंदिरा गाँधी बनाने के लिए बॉलीवुड की धक् धक् गर्ल माधुरी दीक्षित बेताब थी । २००२ में निर्माता नितिन केनी ने १५ करोड़ की लागत से इंदिरा गांधी के जीवन पर फिल्म इंदिरा गांधी अ ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी बनाने का ऐलान किया था। इस फिल्म में मनीषा कोइराला इंदिरा गांधी की भूमिका करने वाली थी। मनीषा ने फिल्म के लिए अपना फर्स्ट लुक भी जारी कर दिया था । हाल ही में, अभिनेत्री विद्या बालन ने एक इंटरव्यू में यह स्वीकार किया था कि वह बड़े परदे पर इंदिरा गाँधी की भूमिका करना चाहती हैं । रहस्य फिल्म के निर्देशक मनीष गुप्ता ने इंदिरा गाँधी पर फिल्म के लिए विद्या बालन से संपर्क भी किया था । विद्या बालन ने स्क्रिप्ट पसंद भी की थी । मनीष गुप्ता कहते हैं, “विद्या बालन थोड़ी सशंकित थी । इंदिरा गाँधी पर फिल्म से पहले काफी सावधानियां बरतनी होती हैं ।“ प्रेम रतन धन पायो और गोलियों की रासलीला राम-लीला की अभिनेत्री स्वरा भास्कर को भी इंदिरा गाँधी का किरदार करने की बेताबी है ।
इमरजेंसी और भारतीय सिनेमा
इमरजेंसी का बुरा प्रभाव भारतीय सिनेमा पर भी पडा । इंदिरा गांधी ने २५ जून १९७५ को इमरजेंसी का ऐलान किया था। यह आपातकाल २१ मार्च १९७७ तक जारी रहा। इस दौरान भारत की फिल्म इंडस्ट्री को आपातकालीन ज़्यादतियां साहनी पड़ी। आपातकाल के दौरान गुलजार की राजनीतिक फिल्म आंधी का प्रदर्शन रोक दिया गया । गुलज़ार की फिल्म आंधी का प्रदर्शन इस आधार पर रोका गया कि यह फिल्म इंदिरा गांधी पर आधारित थी। इस फिल्म में सुचित्रा सेन का करैक्टर इंदिरा गाँधी से मिलता जुलता था । अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का इमरजेंसी का तगड़ा मज़ाक उड़ाती थी। इस फिल्म में शबाना आज़मी ने गूंगी बाहरी जनता का किरदार किया था। इसके प्रिंट संजय गांधी द्वारा गुड़गांव की मारुती फैक्ट्री में जला दिए गए। तेलुगु फिल्म यमगोला (१९७७) भी इमरजेंसी का मज़ाक बनाती थी। इस फिल्म को हिंदी में लोक परलोक टाइटल के साथ रीमेक किया गया। इन सभी फिल्मों को आपातकाल की ज्यादतियों का सामना करना पड़ा ।
एक शोले दो क्लाइमेक्स
कहा जाता है कि गाँधी परिवार से नज़दीकियों के कारण अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका वाली फिल्म शोले को हिंसा के बावजूद पारित कर दिया गया था । लेकिन, वास्तव में इस फिल्म को काफी कट्स और रीशूट के बाद ही पारित किया गया । रमेश सिप्पी ने फिल्म के अंत में ठाकुर के द्वारा गब्बर सिंह की हत्या होते दिखाया गया था । मगर सेंसर को लगा था कि एक पूर्व पुलिस अधिकारी द्वारा एक डाकू की हत्या गलत सन्देश देने वाली हो सकती थी । इस पर रमेश सिप्पी को क्लाइमेक्स की फिर शूटिंग करनी पड़ी । इसमे ठाकुर द्वारा गब्बर सिंह को मारने से पहले ही पुलिस पहुँच जाती थी और गब्बर सिंह को अपने कब्ज़े में ले लेती थी । ठाकुर के परिवार की गब्बर सिंह द्वारा हत्या के दृश्यों को भी काट दिया गया था । इमाम के बेटे को गब्बर द्वारा मारे जाने का दृश्य भी काट दिया गया था । बाद में रमेश सिप्पी ने डीवीडी के चार घंटे के अनकट वर्शन में ठाकुर द्वारा गब्बर सिंह के मारे जाने के दृश्य सहित सभी सेंसर किये गए दृश्यों को रखा था ।
इमरजेंसी पर फ़िल्में
आईएस जौहर की फिल्म नसबंदी में संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का मज़ाक बनाया गया था । सत्यजीत रे की १९८० में रिलीज़ फिल्म हीरक राजर देशे बाल हास्य फिल्म थी। लेकिन, इसमे भी आपातकाल पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गई थी। बालू महेंद्रू निर्देशित १९८५ की मलयालम फिल्म यात्रा की मुख्य कथा आपातकाल के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन का चित्रण करने वाली थी। एक अन्य मलयालम फिल्म पिरावी (१९८८) भी एक पिता की अपने बेटे की खोज की कहानी थी, जिसे पुलिस ने गिरफ्तार करने के बाद प्रताड़ना देकर मार डाला था। सुधीर मिश्र की शाइनी आहूजा, केके मेनन और चित्रांगदा सिंह अभिनीत फिल्म हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की पृष्ठभूमि भी आपतकाल पर थी। यह फिल्म आपातकाल के दौरान नक्सल आंदोलन के विस्तार और खात्मे की कहानी थी। इस फिल्म में सत्तर के दशक के भारतीय युवा के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन का बढ़िया चित्रण किया गया था। मराठी फिल्म शाला (२०१२) भी इमरजेंसी के दौरान की कठिनाइयों पर फिल्म थी। सलमान रुश्दी के उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रन में इंदिरा गांधी का निगेटिव चित्रण किया गया था। यह फिल्म भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म मेले में नहीं दिखाई गई।