Friday, 26 September 2014

अब कहाँ चलते हैं 'देसी कट्टे' !

आनंद कुमार २००७ में बतौर लेखक-निर्देशक पहली बार फिल्म डेल्ही हाइट्स में नज़र आये थे।  फिल्म को चर्चा और प्रशंसा दोनों मिली।  फिर छह साल बाद वह जिला  ग़ाज़ियाबाद में पश्चिम उत्तर प्रदेश की रियल लाइफ गैंग वॉर को लेकर आये. अब वह देसी कट्टे के ज़रिये दर्शकों के सामने हैं. यकीन मानिये, अपनी पहली फिल्म से तीसरी फिल्म तक आते आते वह तीन कदम नीचे उतरते चले गए।  देसी कट्टे भटकती फिल्म है. दो बच्चे ज्ञानी और पाली देसी कट्टों को इधर उधर पहुंचाने का काम करते हैं. परिस्थितियां उन्हें कानपूर का शार्प शूटर बना देती हैं. सुनील शेट्टी इन दोनों की निशानेबाज़ी से प्रभावित होते हैं. वह उन दोनों को कट्टे  से दुश्मनों को मारने के बजाय पिस्तौल से निशाना लगाने के लिए कहता है।  ज्ञानी सुनील शेट्टी के साथ चला जाता है।  जबकि, पाली नेता का शूटर बन जाता है. फिल्म बेहद उलझी हुई है।  यह साफ़ नहीं होता है कि आनंद कुमार क्या दिखाना चाहते हैं ? वह उत्तर प्रदेश के शार्प शूटरों की कहानी दिखाना चाहते हैं या एक शूटर को ओलंपिक्स चैंपियन बनाना चाहते हैं।  पूरी फिल्म बेदिल से चलती हुई बेसिर पैर की कहानी भेजती रहती है।  आशुतोष राणा और अखिलेन्द्र मिश्रा जैसे अभिनेता तक निर्जीव लगते हैं।  जय भानुशाली कुछ हद तक ही जमते हैं. साशा आगा और अखिल कपूर को एक्टिंग का 'क ख  ग नहीं आता।  टिया बाजपाई न सुन्दर लगती हैं, न सेक्सी। आर्यन सक्सेना ने फिल्म लिखी है, जो बेहद कमज़ोर है ।  कैलाश खेर का संगीत न तो फिल्म के माहौल के अनुरूप है, न मधुर है।  बाकी, दूसरे पक्ष भी कमज़ोर हैं. फिल्म में ज्ञानी और पाली को कट्टों से  लगातार फायर करते दिखाया गया है।  ऐसे कट्टे  कहाँ मिलते हैं आजकल। अब कट्टों से गैंग वॉर भी नहीं लड़ी जाती। 

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