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Friday 22 August 2014

भाड़े के हत्यारों का एक और मिशन

सिल्वेस्टर स्टैलोन, जेसन स्टेथम, हैरिसन फोर्ड, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर, जेट ली, मेल गिब्सन, वेस्ली स्नाइप्स, डोल्फ लुंडग्रेन, रैंडी कूचर, टेरी क्रुज, केलसये ग्रम्मेर, ग्लेन पॉवेल, अन्तोनिओ बंदरस, विक्टर ओर्तीज़, रोंडा रॉसी और केलन लुट्ज़ . यह सब हॉलीवुड फिल्मों के बड़े नाम है. कुछ तो काफी वरिष्ठ अभिनेता हैं. इनमे से ज़्यादातर की एक्शन हीरो की इमेज है. निर्माता सीलवेस्टर स्टैलोन ने इन सभी को अपनी फिल्म द एक्सपेंडब्ल्स ३ के लिए इकठ्ठा किया है. ज़ाहिर है कि इतनी ज़्यादा एक्शन स्टार कास्ट के साथ साथ बनाने वाली फिल्म हैरतअंगेज एक्शन दृश्यों से भरपूर होगी ही. द एक्सपेंडब्ल्स ३ बिलकुल वैसी ही फिल्म हैं. पूरी फिल्म में रफ़्तार भरती गाड़ियां, उड़ाते हवाई जहाज और हेलीकाप्टर, मशीन गन्स, टैंक, आदि सब कुछ है. निर्देशक पैट्रिक हूजेस ने विशुद्ध एक्शन फिल्म बनाने में कोई कसार नहीं छोड़ी है. इसके लिए चुस्त दुरुस्त स्क्रीनप्ले ज़रूरी होता है. सीलवेस्टर स्टैलोन के साथ क्रेटों रोथेनबेर्गेर और कटरीन बेनेडिक्ट ने इस ज़रुरत को बखूबी पूरा किया है. सिल्वेस्टर स्टैलोन, हैरिसन फोर्ड, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर और मेल गिब्सन के चेहरों से उम्र झांकती है. लेकिन, एक्शन फिल्मों को युवा चेहरों की ज़रुरत ख़ास नहीं होती. इसके बावजूद स्टैलोन ने अपनी फिल्म में केलन लुट्ज़, ग्लेन पॉवेल, विक्टर ओर्तीज़ और रोंडा  रॉसी जैसे युवा चेहरों को अपनी भाड़े के हत्यारों की टीम का सदस्य बनाया है. शायद स्टैलोन का इरादा एक्सपेंडब्ल्स को आगे कुछ अन्य कड़ियों में खींचना है. इस फिल्म को इसकी स्टार कास्ट के कारण हिंदुस्तान में दर्शक मिलेंगे.  

बॉक्स ऑफिस की 'मर्दानी' रानी मुख़र्जी

सक्षम अभिनेत्री कैसी भी भूमिका को बड़ी सहजता  से निभा सकती है. मुंबई क्राइम ब्रांच की सीनियर इंस्पेक्टर शिवानी शिवाजी रॉय की भूमिका में रानी मुख़र्जी ने इसे साबित कर दिखाया है. रानी मुख़र्जी कई फिल्मों में इमोशनल भूमिकाओं को कई बार कर चुकी हैं. इस बार मर्दानी में उन्होंने एक ईमानदार पुलिस अधिकारी के रफ़ टफ किरदार को किया है. इस भूमिका में रानी मुख़र्जी बिना लाउड हुए रफ़ टफ लगती हैं. अपनी छोटी कद काठी के बावजूद वह शिवानी के किरदार को स्वाभाविक बना ले जाती हैं. फिल्म में कई इमोशनल सीक्वेंस हैं. रानी हर सीन में मर्दानी लगती हैं. फिल्म की कहानी दिल्ली और मुंबई में मानव तस्करी और देह व्यापार पर केंद्रित है. शिवानी क्राइम ब्रांच की इंस्पेक्टर होने के नाते इस व्यापार पर निगाह रख रही है. जब उसे पता चलता है कि एक गिरोह जवान लड़कियों को अगवा कर देह व्यापर में धकेल रहा है और नकली पासपोर्ट के जरिये विदेशों में बेच रहा है, तब वह इसका पर्दाफाश करने का निर्णय लेती है. उसे रोकने के लिए गिरोह उसके डॉक्टर पति पर हमला करता है. पर वह डिगती नहीं. अंततः वह इस गिरोह को उखाड़ फेंकती है. मर्दानी को गोपी पुथरन ने लिखा है. उन्होंने घटनाओ को सहज और स्वाभाविक बनाने की सफल कोशिश की है. ख़ास तौर पर फिल्म का क्लाइमेक्स. गोपी ने फिल्म को छोटे छोटे दृश्यों में बाँधा है. इससे फिल्म में गति आयी है तथा वह पूरी गति से बिना किसी बाधा के चलती रहती है. उन्होंने अनावशयक नृत्य गीत न डाल कर (हालाँकि, इसकी काफी गुंजाईश थी), फिल्म को लम्बा नहीं होने दे कर ११३ में मिनट में समेट  दिया है. मर्दानी को आर्थर जुरव्स्की के कैमरा ने काफी सपोर्ट किया है. संपादक संजीब दत्ता ने अनावश्यक दृश्यों को छोटा कर दिया है. मर्दानी यशराज फिल्म्स की एडल्ट सर्टिफिकेट पाने वाली पहली फिल्म है. परन्तु, इसमे अश्लीलता नहीं है. पूरी फिल्म रानी मुख़र्जी के कन्धों पर रफ़्तार भरती है. उनके सामने, उनके पति डॉ रॉय की भूमिका में जिस्शु सेनगुप्ता और खलनायक कत्याल की भूमिका में अनंत शर्मा उभरने नहीं पाते. कार्तिक राजा का पार्श्व संगीत फिल्म की जान है. बताया जाता है कि अपने किरदार को स्वाभाविक बनाने के लिए रानी मुख़र्जी ने जिम में घंटों पसीना बहाया था. फिल्म में उनकी यह मेहनत रंग लाती नज़र आती है. निर्देशक प्रदीप सरकार ने मानव तस्करी जैसे विषय पर अपना पूरा नियंत्रण बनाये रखा है. हर चरित्र उनके नियंत्रण में रहता है. वह छोटे से छोटे चरित्र को शिवानी के चरित्र को पूरा सहयोग देने वाला  बना देते हैं. इस फिल्म को अच्छी फिल्मों के शौकीनों द्वारा देखा जाना चाहिए.

Friday 25 July 2014

सलमान खान की 'किक' को ईदी देंगे दर्शक.

सलमान खान की इस 'किक' में किक है यार. सलमान खान की पिछली दो फ़िल्में 'जय हो' और 'दबंग २' पूरी तरह से सलमान खान की इमेज को भुनाती कमज़ोर फ़िल्में थीं. लेकिन, साजिद नाडियाडवाला की 'किक' में कहानी (वक्कन्थम वाम्सी) है, स्क्रिप्ट (लेखक रजत अरोरा, साजिद नाडियाडवाला, कीथ गोम्स और चेतन भगत) बढ़िया है, बेशक साजिद नाडियाडवाला का निर्देशन कुछ ख़ास नहीं, लेकिन वह सलमान खान को कुछ अलग भूमिका दे पाने में कामयाब हुए हैं. दिलचस्प तथ्य यह है कि सलमान खान डेविल और देवी लाल सिंह के अपने दुहरे किरदारों को अच्छी तरह कर ले जाते है. नवाज़ुद्दीन सिद्द्की ने लाउड अभिनय किया है, पर वह प्रभाव डालते हैं. जैक्विलिन फर्नांडीज की संवाद अदायगी ख़राब है. लेकिन दर्शक उनकी सेक्स अपील के दीवाने हो जाएंगे. रणदीप हुडा अपने रोल में उभर कर आये हैं. फिल्म का संगीत हिमेश रेशमिया, यो यो हनी सिंह और मीत ब्रोठेर्स ने दिया है. पर धुन एक भी अच्छी नहीं. सलमान खान का गया और उन्ही पर फिल्मांकित गीत धुन के लिहाज़ से बेहतर है. ईद के मौके पर दर्शक सलमान खान को ईदी ज़रूर देंगे. 


Friday 18 July 2014

सुरवीन चावला की सेक्स अपील की स्टोरी

कभी अभिनेत्री नेहा  धूपिया ने कहा था कि बॉक्स ऑफिस पर २ 'एस ' बिकते हैं.  उनका इशारा उस समय के सुपर स्टार शाहरुख़ खान और सेक्स की तरफ था।  नेहा धूपिया ने सेक्स का सहारा लेकर नाम और दाम कमाया। फिर लगा कि  सेक्स के सहारे बॉलीवुड में लम्बी पारी नहीं खेली जा सकती।  सो रास्ता थोड़ा सुधार लिया. वह आज भी फिल्मों में छोटे बड़े रोल करती दिखायी पड़ रही हैं।  शाहरुख़ खान आज भी सुपर स्टार स्टार हैं।  पर नेहा धूपिया के दूसरे एस यानि सेक्स को बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ साबित कर रही है, आज की तमाम अभिनेत्रियां।  आज अभिनेत्री सुरवीन चावला ने साबित कर दिया कि  उनका सेक्स भी बिकाऊ है अगर वह टू  पीस रंगीन बिकिनी में है और दो शरीर ऊपर नीचे दिखाए जाएँ । यही कारण था कि रमज़ान के बावजूद सिनेमाघरों में सुरवीन चावला की सेक्स अपील का आनंद उठाने के लिए लोग सेक्युलर मुद्रा में हेट स्टोरी २ के टिकिटों पर टूटे पड़ रहे हैं।  बाकी, फिल्म हेट स्टोरी २ में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो देखने के लिए नया हो। एक औरत के अपने प्रेमी की मौत के बाद उसके हत्यारों को एक एक कर मौत के घाट उतारने की यह कहानी बिलकुल सपाट है। इसे पहले भी बार बार दिखाया जा चूका है। सुशांत सिंह के जिस करैक्टर पर फिल्म आधारित है, वह ही बड़ा खराब लिखा गया है।  यह कहीं साफ़ नहीं होता की म्हात्रे अपनी रखैल को लेकर कत्ल करने क्यों जाता है? सुरवीन में ऐसा क्या है कि वह उसे तमाम नफ़रत के बावजूद प्यार करता है? विशाल पंड्या ने बड़े सामान्य ढंग से इसे फिल्मा दिया है।  कोई भी फ्रेम उनकी कल्पनाशीलता का उदाहरण नहीं बनता. पटकथा लेखिका माधुरी बनर्जी कहीं भी कहानी में घुस नहीं पायी।  जय भानुशाली ने यह फिल्म क्यो की, यह तो शायद वह भी नहीं बता सके। सुरवीन चावला थोड़ा प्रभावित करती हैं. पर उन्हें अपने अभिनय में भिन्नता लानी होगी।  सुशांत सिंह ने करैक्टर के अनुरूप अभिनय किया है।  कहीं कहीं वह प्रभावित करते हैं तो कहीं मुंह के बल गिरते हैं. संगीत के लिहाज़ से केवल एक गीत 'आज फिर तुमसे प्यार आया है' ही कर्णप्रिय है और तमाम गरम सीन भी इसी गीत में हैं. वैसे गीतों की ज़रुरत नहीं थी. सनी लियॉन पर फिल्मांकित पिंक लिप्स बकवास और ठंडा है।  इन तमाम गीतों को काट कर फिल्म की लम्बाई कम की जा सकती थी।
हेट स्टोरी २ अपनी प्रीक्वेल फिल्म हेट स्टोरी से काफी कमज़ोर है. परन्तु, इसे दर्शकों का समर्थन हेट स्टोरी की इरोटिका के कारण ही मिल रहा है. 
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Friday 4 July 2014

राजीव कपूर की शक्ल वाले अरमान

ले कर हम दीवाना दिल के अरमान जैन को एक्टिंग करने की क्या सूझी. पिता का अच्छा खासा बिज़नेस है, उसे आगे बढ़ाते. अब अगर एक्टिंग करने का कीड़ा काट ही गया था तो एक बार अपनी शक्ल आईने में देख लेते. उन्हें मामा राजीव कपूर याद आ जाते. उस समय उन्हें यह भी याद आ जाता कि मामे को एक्टिंग नहीं आती थी. तभी राम तेरी गंगा मैली जैसी हिट फिल्म के बावजूद घर में पिज़्ज़ा खाते हुए समय न काटते. अरमान की शक्ल और एक्टिंग राजीव कपूर से मिलती जुलती है. काफी हद तक बोर करते हैं. रही दीक्षा सेठ की बात तो उन्हें सबसे पहले किसी से अच्छी स्क्रिप्ट छांटने की दीक्षा प्राप्त करनी चाहिए थी. इस फिल्म से ऐसा नहीं लगता कि दीक्षा फिल्मों के मामले में सेठ साबित होंगी. गरीब दीक्षा. इस फिल्म को देखने से यह पता चलता है कि एक कुत्ते का पिल्ला दो प्रीमियों को जुड़ा भी कर सकता है और मिला भी सकता है. जीते रहो आरिफ अली. कभी रोड मूवी जैसा कुछ बनाते हो तो कभी नक्सल इलाके में घुस जाते हो, फिर नाहक नायक नायिका में टकराव पैदा करते हो. और अपने भाई जैसी बचकानी शैली में नायक नायिका को मिला भी देते हो.
लगता नहीं कि दर्शक इस फिल्म को देखने अपना दीवाना दिल लेकर आएंगे.

बॉबी की जासूस विद्या बालन

बॉबी जासूस क्या जासूसी फिल्म है? क्योंकि, इसके शीर्षक में जासूस शब्द लगा है. क्या यह हैदराबाद के मुस्लिम समुदाय पर फिल्म है? क्योंकि, फिल्म की नायिका बिलकीस सहित, सभी पत्र मुस्लिम है. फिल्म देखें तो पाएंगे कि इसे पूरी तरह से जासूसी या किसी ख़ास समुदाय की फिल्म नहीं कहा जायेगा. बिलकीस उर्फ़ बॉबी का अरमान जासूस बनना है. वह एक बड़ी जासूसी कंपनी में काम करना चाहती है. पर काम नहीं मिलता. इसलिए वह छोटे मोटे जासूसी के काम कर कुछ कम लेती है. तभी उसके पास ५० हजार कमाने के लिए एक लड़की की खोज करने का प्रस्ताव आता है. इसके साथ ही बिलकीस की ज़िंदगी में भूचाल आ जाता है. बॉबी जासूस क्लाइमेक्स में थोड़ा पकड़ छोड़ देती है. इसके बावजूद अपनी बढ़िया कथा पटकथा के जरिये दर्शकों को बाँध ले जाती है. इसके लिए फिल्म के निर्देशक समर शेख की पत्नी संयुक्त चावला शेख बधाई की हक़दार है. उनकी कसी स्क्रिप्ट से बंधा दर्शक विद्या बालन के शानदार अभिनय का कायल हो जाता है. वह पूरी फिल्म को अपने कंधे पर ले कर दौड़ा देती हैं. विद्या बालन यह साबित कर जाती हैं कि वह आज की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं. वह ऎसी अभिनेत्री हैं, जिसमे स्टार पावर भी है. पाकिस्तान से आये अभिनेता अली फज़ल विद्या बालन का साथ बखूबी निभाते हैं. अर्जन बाजवा को ज़्यादा मौके नहीं मिले. किरण कुमार, राजेंद्र गुप्ता, तन्वी आज़मी, सुप्रिया पाठक और ज़रीना वहाब सामान्य है.  रमजान के दौरान रिलीज़ विद्या बालन की फिल्म बॉबी जासूस हिट होगी या फ्लॉप, यह मायने नहीं रखता. क्योंकि, स्टार पावर और हीरोडम से प्रभावित दर्शक माउथ पब्लिसिटी के बाद ही ऎसी फ़िल्में देखने सिनेमाघर तक जाता है. वैसे जो फिल्म देखने जायेंगे, उन्हें निराशा नहीं होगी. 


Monday 27 January 2014

बॉक्स ऑफिस पर नहीं हुई सलमान खान की जय !


                    कम से कम ट्रेड पंडितों को बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी कि सलमान खान की इस मोस्ट hyped  फ़िल्म  जय हो को इतनी कमज़ोर ओपनिंग मिलेगी। लेकिन, फ़िल्म के ट्रेलर के चावलों से पूरी खिचड़ी का मज़ा बदमज़ा जान लेने वाला दर्शक चख चूका था कि जय हो केवल सलमान खान को ध्यान में रख कर बनायी गयी एक बेहद कमज़ोर पटकथा, निर्देशन और संवादों वाली फ़िल्म है. फ़िल्म की रिलीज़ से पहले इस फ़िल्म का संगीत भी बेजान साबित हो रहा था. हालाँकि सलमान खान ने अपनी फ़िल्म को ज़बरदस्त प्री रिलीज़ पब्लिसिटी दिलाने की भरपूर कोशिश की. वह मुम्बई की सडकों पर आम आदमी के लिए चैरिटी करते घूमे। उन्होंने चैनलों पर आम आदमी की बात की. लेकिन, यह भूल गए कि पब्लिसिटी कमज़ोर फ़िल्म को सहारा नहीं दे पाती।
                    नतीज़ा यह हुआ कि जय हो पहले दिन केवल १७. ५५ करोड़ ही कमा सकी. यह कलेक्शन २०१२ में रिलीज़ सलमान खान की फ़िल्म एक था टाइगर के ३० करोड़ के कलेक्शन की तुलना में काफी कम था. दूसरे दिन फ़िल्म का बॉक्स ऑफिस  कलेक्शन  गिर कर  १६ करोड़ रह गया. वीकेंड के तीसरे दिन सन्डे भी था और रिपब्लिक डे भी. इसलिए फ़िल्म को भीड़ खींचनी ही थी।  जय हो ने तीसरे दिन २५ करोड़ की कमाई की और कुल वीकेंड कलेक्शन ५८.५५ करोड़ का हुआ। इसके साथ साथ ही सलमान खान की जिस फ़िल्म से बॉक्स ऑफिस पर  तीन सौ करोड़ कमा लेने और वीकेंड में पहला सैकड़ा मार लेने की उम्मीद की जा  रही थी, उस फ़िल्म के सन्दर्भ में कब तक सौ करोड़ कमा लेती है का अनुमान लगाया जाने लगा.
                       जय हो में तीन सौ क्या दो सौ करोड़ का कलेक्शन करने की दम नहीं है. यह फ़िल्म हर प्रकार से काफी कमज़ोर फ़िल्म है. निर्देशक सोहैल खान तो जैसे भैया सलमान खान को लेकर ही निहाल  थे. उन्होंने सलमान खान को हर फ्रेम में वैसे ही खड़ा कर दिया, जैसे वह अमूमन अपने इवेंट्स को अटेंड करते समय खड़े होते हैं।  सोहैब ने सलमान खान के करैक्टर के ज़रिये हर आदमी को तीन लोगों का भला करने का जो सन्देश देना चाहा था, उसे वह अपनी फ़िल्म के चरित्रों तक ही नहीं  पहुंचा सके. फ़िल्म के लेखक दिलीप शुक्ल ने तेलुगु फ़िल्म स्टॅलिन का खाका होने के बावज़ूद बेहद कमज़ोर फ़िल्म लिखी। यहाँ तक कि उन्होंने सलमान खान के करैक्टर जय अग्निहोत्री को तक मज़बूत और प्रभावशाली गढ़ने की ज़रुरत नहीं समझी। उन्होंने, तब्बू,  नादिरा बब्बर, सुनील शेट्टी, सना खान, डेज़ी शाह, गेनेलिअ डिसूज़ा जैसे कलाकारों के ज़रिये छोटे बड़े तीन दर्जन चरित्र जुटा ज़रूर लिए, परन्तु उन्हें एक  कहानी में नहीं जुटा पाये। सभी एक्टर एक दूसरे से तू चल मैं फीस लेकर आया कहते लग रहे थे. ऎसी कहानी वाली फ़िल्में दर्शकों को तनिक भी नहीं जोड़ पाती। उस पर सलमान खान का बेहद साधारण अभिनय और भाव प्रदर्शन कोढ़ में खाज कि तरह था. फ़िल्म के लिए इतने घटिया संगीत की उम्मीद कम से कम साजिद वाजिद से तो बिलकुल नहीं की जाती थी. अनिल अरासु, देव जज और  रवि वर्मा के स्टंट सीन ही अच्छे बन पड़े हैं.
                        जय हो के बाद  बॉलीवुड शायद अगले दो तीन खानों की फिल्मों को दर्शकों द्वारा ठुकराए जाने का इंतज़ार करेगा। हो  सकता है कि उसके बाद वह खानों या किसी स्टार पर भरोसा करने के बजाय कहानी और स्क्रिप्ट पर भरोसा करेगा तथा अपने नए स्टारों की तलाश भी गम्भीरता से करेगा। तब तक खानों कि जय हो !  

Friday 20 December 2013

धूम ३- धूम.....धूम.... धूम....धड़ाम !!!!!!!!!!!!!

                      
                         धूम ३ की रिलीज़ से ठीक पहले, मुंबई के अखबारों में खबर थी कि आमिर खान की फिल्म धूम ३ के साथ सलमान खान की फिल्म जय हो का ट्रेलर दिखाया जायेगा. एक मल्टीप्लेक्स थिएटर में धूम ३ से पहले गुंडे का ट्रेलर दिखाया गया. उसके बाद फिल्म शुरू हो गयी. पीछे से आवाज़ आई- ओह शिट! जय हो का ट्रेलर नहीं दिखाया. टिकट वापस कर दो. इंटरवल ख़त्म होने पर, फिल्म शुरू होने से ठीक पहले जय हो का ट्रेलर दिखाया जाना शुरू हो गया. पूरा थिएटर दर्शकों की ख़ुशी भरी चीख, सीटियों और तालियों से गूँज रहा था. आमिर इसे कहते हैं स्टार पॉवर।
                        धूम ३ की समीक्षा से पहले इसे बताने का सबब यह कि ज़रूरी नहीं कि हर किसी को हर किसी के पैरों के जूते फिट बैठ जाएँ. आमिर खान ने जॉन अब्राहम और ऋतिक रोशन के जूते में पैर ठूंसने की कोशिश की. बिना यह सोचे समझे कि इस प्रकार से बने जूते उनके पैरों में फिट होंगे या नहीं. ख़ास तौर पर यह भी सोचना चाहिए था कि जब एक कंपनी का जूता कोई दो लोग पहन लेते हैं, तो तीसरे के उसी जूते को पहनने पर, ख़ास तौर पर बॉलीवुड के फैशन सर्किल में  नक़ल बता दिया जाता है और कहा जाता है-  सेम सेम की तर्ज पर.… शेम शेम !
                        धूम ३  शुरू होती है एक सर्कस चलाने वाले जॅकी श्रॉफ के करैक्टर से जो अपना थिएटर बचाने के लिए बैंक वालों के सामने अपना आखिरी शो रखता है. लेकिन, अपने थिएटर को बिकने से नहीं बचा  पाता  और आत्महत्या कर लेता है. अब उसका बेटा  साहिर इसका बदला लेने बैंक की दो शाखाओं में डाका डालता है और मौके पर जोकर का मुखौटा तथा  हिंदी में बैंक वालों की ऎसी की तैसी लिख डालता है.(जय हिंदी-शिकागो में गूँज गयी) बेचारी शिकागो पुलिस इस चोर को पकड़ नहीं पाती। इसलिए भारत से एसीपी जय दीक्षित और उसके मसखरे मित्र अली को बुलाया जाता है (भारतीय पुलिस के लिए तालियां और शिकागो पुलिस को गालियां) . शिकागो पहुँच कर क्या होता है? अरे भैया---अपना पुलिस हीरो उसे पकड़ते पकड़ते नहीं पकड़ पायेगा---और क्या! धूम सीरीज की फिल्मों की कहानिया ऐसी ही लिखी जाती हैं.
                       बिलकुल रद्दी कूड़ा कहानी को यशराज फिल्मे के होनहार मालिक आदित्य  चोपड़ा ने धो पोंछ कर लेखक विजय कृष्णा आचार्य को थमा दिया। टशन की सुपर असफलता के टेंशन में विक्टर ने इस कहानी की स्क्रिप्ट में सीन दर सीन रेस रेस और रेस लिख दिया। कभी शिकागो पुलिस मोटर साइकिल से भाग रहे आमिर खान के पीछे मोटर साइकिल से भाग रही है और कभी बड़ी बड़ी गाड़ियों से. बावज़ूद इसके पकड़ नहीं पाती। (भाई आमिर के फेन तालियां तभी बजाते हैं) पूरी फ़िल्म में करीब सत्तर मिनट चौपड़ा और आचार्य के सर पर chase का क्रेज चढ़ा रहता है, बाकी समय लम्बे लम्बे आधा दर्जन गाने और धूम धूम के रीमिक्स। इस बीच कटरीना कैफ आती हैं. थोडा दिखाती हैं और फिर गायब हो जाती है. इस बीच सस्पेंस बनाने के लिए आमिर खान का डबल रोल बना दिया गया. डबल रोटी जैसे आमिर खान के डबल रोल दर्शकों से झेले नहीं जाते।  बुढ़ौती उनके चहरे पर साफ़ नज़र आती है. हालाँकि,वह बढ़िया अभिनय करते हैं. कहा जाए तो वह और जॅकी श्रॉफ ही फ़िल्म के सेविंग ग्रेस हैं. विक्टर (फ़िल्म के लेखक डायरेक्टर विजय कृष्ण आचार्य का पेट नेम (?) यही है) दर्शकों को रिझाने की हरचंद कोशिश करते हैं, लेकिन असफल रहते हैं. यही कारण है कि जब फ़िल्म ख़त्म हो रही होती है और कटरीना कैफ का भड़काऊ आइटम चल रहा होता है, युवा दर्शक हॉल छोड़ना शुरू कर देता है.
                        फ़िल्म में मसाला भरने की हर कोशिश की गयी है. पहले भाग में खूब chase, डांस, कटरीना और आमिर खान का टैप  डांस है. पर सब कुछ बेजान। दूसरे भाग में इमोशन है, ड्रामा है. पर प्रभावहीन। विक्टर आमिर खान को भी हारा हुआ साबित कर देते है. कटरीना कैफ के नाम तीनों खानों के साथ फ़िल्म करने का कीर्तिमान दर्ज हो गया. लेकिन, इस फ़िल्म को करने का उन्हें अफ़सोस होना ही चाहिए। उदय चोपड़ा पहले दो धूमो में जोकरियागिरी करते थे. इस धूम में छोरा गंगा किनारे वाला का नरीमन पॉइंट में घूमने वाला छोरा भी शामिल हो गया. ईश्वर गंगा की आत्मा को शांति दे.
                             फ़िल्म हर लिहाज़ से कमज़ोर है. कथा पटकथा और संवादो के साथ साथ गीत संगीत भी कमज़ोर है. प्रीतम प्यारे कब तक धूम धूम की धूम धूम करते रहोगे। कुछ नया और स्टाइलिस्ट देने की कोशिश करो न! आदित्य चोपड़ा ने फ़िल्म को इंटरनेशनल लुक देने के लिए शिकागो में फ़िल्म की शूटिंग की है. विदेशी चमड़ियां दिखायी हैं. विदेशी तकनीशियन लिए है. लेकिन, यह भूल गए कि भैया जितना पोलिश मारोगे उतना ही जूता चमकेगा। आप सेकंड ग्रेड के पैसे देकर फर्स्ट ग्रेड का काम नहीं ले सकते। पर कुछ एक्शन सींस बढ़िया बन पड़े हैं. मगर सांस रोकने वाले नहीं  क्योंकि,ऐसे सीन हिंदी दर्शक पहले ही देख चूका है. बाकी के लिए तो बिलकुल कुछ नहीं कहना और पाठकों का सब कुछ पढ़ समझ लेना ही स्पेस के लिहाज़ से अच्छा है.
                     अंत में भैया विक्टर---और उनके भैया आदित्य यह डॉल्बी atmos  क्या होता है.…फ़िल्म में भी तो कुछ होना चाहिए ना!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!   

Friday 29 November 2013

गैंगस्टर, नेता और पुलिस की आड़ में दर्शकों को मूर्ख बनाने का तिग्मांशु धुलिया का नेक्सस

  Displaying Saif Ali Khan at Kakori Railway track.JPG


                   तड़ातड़  तड़ातड़ गोलियां चल रही हैं. लोग चीखते चिल्लाते इधर उधर भाग रहे हैं. पुलिस का नामोनिशान नहीं है. सैफ अली खान लखनऊ के सबसे फैशनेबुल बाज़ार हज़रतगंज से कारों के बीच दौड़ते हुए गुलशन ग्रोवर का पीछा कर रहे हैं और अंततः उन्हें कैसरबाग़ बारादरी हैं.
                   आम तौर पर निर्देशक तिग्मांशु धुलिया की फिल्मों से किसी नयेपन की उम्मीद की जाती है. डाकू पान सिंह तोमर को हीरो बनाने वाले, साहब बीवी और गैंगस्टर तथा साहब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स में महिला चरित्र को बोल्ड और बन्दूक पसंद  दिखाने वाले तिग्मांशु धुलिया की आज रिलीज़ फ़िल्म बुलेट राजा की कुछ ऎसी ही शुरुआत होती है और ऐसे ही ख़त्म भी होती है. फ़िल्म में सैफ अली खान का बोला डायलाग कि जब हम आते है तो गरमी बढ़ जाती है ठंडक का एहसास ख़त्म नहीं करता। तिग्मांशु धुलिया नेता, गैंगस्टर और पुलिस का कथित नेटवर्क पेश करने की कोशिश करने में बिलकुल असफल रहते है. वह एक गैंगस्टर की गैर मामूली कहानी को उतने ही ज़यादा मामूली ढंग से दर्शकों के सामने परोसते हैं. सैफ अली खान और जिम्मी शेरगिल लखनऊ में अपनी बेकारी दूर करने आते हैं और नेताओं के चक्कर में जेल  जाने को मज़बूर होते हैं. वहाँ उनकी मुलाक़ात एक क़ैदी से होती है, जो उन्हें एक नेता के लिए काम करने के लिए कहता है. प्रोफेशनल गुंडों से काम करवाने वाला वह नेता, क्यों  दो लौंडों को अपना काम सौंपता हैं, इसे धुलिया ही अच्छी तरह से बता सकते हैं. बहरहाल, इसके बाद पूरी फ़िल्म में अनियंत्रित गोलीबारी, भाग दौड़ और सैफ अली खान और सोनाक्षी सिन्हा का ठंडा रोमांस देखने को मिलाता है. यहाँ तक कि सेक्स बम माही गिल भी कोई गरमी पैदा नहीं कर पाती।
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                            पूरी फ़िल्म अविश्वसनीय कारनामों से भरी हुई है. दो मामूली लड़कों का बरसती गोलियों के बीच बच निकलना, बिल्डिंग में काम कर रहे मज़दूरों का भागने के बजाय उनके लिए तालियां बजाना, बीच हज़रतगंज में गैंगवॉर  के बावज़ूद पुलिस का नज़र न आना, सोनाक्षी सिन्हा का चालू पीस न होने के बावज़ूद दो गुंडों के साथ एक कमरा शेयर करना, जैसे प्रसंग काफी नकली लगते हैं. राज बब्बर का लखनऊ के आईजी पुलिस से इटावा के इंस्पेक्टर का लखनऊ ट्रान्सफर करवाना जैसे प्रसंग धुलिया की समझदारी का नमूना हैं. ऎसी बहुत सी नासमझदारी वाली खामियां हैं, जिन्हे धुलिया को अवॉइड करना चाहिए था. 
 Displaying Mahie Gill in the song 'Dont Touch my Body' from Bullett Raja.JPG
                           फ़िल्म की कमज़ोर कड़ी खुद तिग्मांशु धुिलया है. वह सैफ अली खान के स्टारडम में फंस  हैं. उनका पूरा ध्यान सैफ के करैक्टर के बूते पर फ़िल्म को सफल बनाने की और लगा रहा. इस फेर में उन्होंने राज बब्बर, गुलशन ग्रोवर, विद्युत् जम्वाल और चंकी पाण्डेय के चरित्र अधूरे लिखे। अब यह बात दीगर है कि बिलकुल निष्प्रभावी सैफ अली खान पर जिमी शेरगिल भरी पड़ते हैं. सोनाक्षी सिन्हा फ़िल्म की जान बन सकती थीं, लेकिन तिग्मांशु ने उन्हें बिलकुल बेजान भूमिका दी. वह किसी भी प्रकार से न तो फ़िल्म अभिनेत्री लगती हैं, न ही बंगालिन सुंदरी। जिमी शेरगिल ज़रूर प्रभावित करते हैं. रवि किशन का धंधा भोजपुरी फिल्मों में मंदा लगता है. अन्यथा, वह इस प्रकार का रोल नहीं चुनते। 



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                          हिंसा से भरपूर इस फ़िल्म में संगीत रिलीफ दे सकता था. फ़िल्म की रिलीज़ से पहले यह कहा गया था कि साजिद वाजिद ने तिग्मांशु धुलिया के लिए डोंट टच माय बॉडी कई सालों से सुरक्षित राखी थी. समझ में नहीं आ रहा कि माही गिल पर फिल्मांकित इस गीत को कौन फ़िल्म मेकर पसंद करता। इतना बेकार गीत है यह. ऐसे में बाकी गीतों पर कुछ कहना बेकार है. फ़िल्म के संवाद तिग्मांशु धुलिया के साथ अमरेश मिश्रा ने ऐंवें ही लिखे हैं. आर एस विनोद ने अपना कैमरा जहाँ तिग्मांशु ने चाहा रख दिया है।  बाकी कुछ भी ख़ास नहीं।
                          कुछ बातें फ़िल्म के निर्देशक, नायक और नायिका से.
                          सोनाक्षी सिन्हा सावधान हो जाओ. ऐसे ही रोल करती रही तो बॉलीवुड से बाहर होने में देर नहीं लगेगी। लुटेरा जैसे रोल ढूंढो।
                         सैफ अली खान अब तुम्हे मालूम हो गया होगा कि एसआरके डॉन क्यों है!
                         तिग्मांशु धुलिया, गैंगस्टर मूवीज के उस्ताद रामगोपाल वर्मा ने गैंगस्टर फिल्मों से तौबा कर ली है। अब आप भी तौबा कर लो. पान सिंह तोमर जैसे कुछ करैक्टर देखो।
                          अब दर्शकों से. सैफ अली खान के प्रशंसक हो फ़िल्म देख अ पछतावा कम होगा। अन्यथा---!

Friday 15 November 2013

लम्पट रोमांस और हिंसा के चटख रंगों वाली दीपिका-रणवीर की लीला

 


निर्देशक संजयलीला भंसाली दिल से फ़िल्में बनाते रहे हैं. उनकी रोमांस फ़िल्में दर्शकों को अन्दर तक छू जाती हैं. हम दिल दे चुके सनम के समीर और नंदिनी का रोमांस दर्शकों पर खुमार की तरह कुछ इस तरह चढ़ा है कि सलमान खान और ऐश्वर्या राय की जोड़ी, केवल एक फिल्म के बावजूद, सबसे अधिक रोमांटिक जोड़ी समझी जाती है. शाहरुख़ खान के देवदास से छलका दर्द आज की खिलंदड युवा पीढ़ी को भी प्रभावित कर गया. लेकिन, राम-लीला में वह दिल खो चुके सनम लग रहे हैं. उन्होंने यह फिल्म दिल से नहीं दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल कर बनायी हैं. मोटे तौर पर राम-लीला शेक्सपियर के नाटक रोमियो एंड जूलिएट पर आधारित है. ऐसे कथानक पर बनी फ़िल्में दर्शकों के दिमाग पर कब्ज़ा कर लेती हैं. पिछले साल रिलीज़ अर्जुन कपूर और परिणीती चोपड़ा अभिनीत फिल्म इशक़जादे वायलेंट
रोमांस फिल्म का बढ़िया उदाहरण है. इस लिहाज़ से राम-लीला मे भी रोमांस तगड़ा होना चाहिए था. मगर, संजयलीला भंसाली  ने रोमियो जूलिएट को अपने तौर पर परिभाषित कर रोमांस को सेक्स की तगड़ी डोज़ में बदल दिया है तथा इमोशन  पर एक्शन और वायलेंस को तरजीह दी है. गुजरात के दो गैंगस्टर गुटों के खून खराब से शुरू हो कर यह कहानी रणवीर सिंह के छैला डांस और फिर होली के दिन दीपिका पादुकोण आक्रामक रोमांस में आकर यह फिल्म गर्मागर्म उत्तेजक
 
चुम्बनों की बौछार के साथ साथ गोलियों की बौछार की रासलीला से भी दर्शकों का मनोरंजन करती है. फिल्म की शुरुआत में, होली के दिन रणवीर के होंठों पर अपने होंठ रख कर तथा जाते जाते दाहिनी आँख हलके से दबा कर दीपिका पादुकोण जिस गर्मागर्म रोमांस का वायदा करती हैं, उसे वह फिल्म की आखिरी से पहले तक पूरा करती हैं. दीपिका ने अपनी सेक्स अपील का रोमांस प्रदर्शन के लिए भरपूर इस्तेमाल किया है. वह गुजराती बाला के रूप में खूबसूरत लगी हैं. उन्होंने अंग प्रदर्शन करने में कोताही नहीं बरती है. बेहिचक बोल्ड संवाद बोले हैं. रणवीर सिंह रसिया राम को साकार करते हैं. लेकिन, सब कुछ मशीनी तरीके से होता है. फिल्म का अंत होते होते रणवीर और दीपिका डॉन का चोला ओढ़ लेते हैं. उस समय ऐसा लगता है कि ज़बरदस्त अभिनय, भावनाओं का टकराव और तालियाँ बटोरी संवाद  सुनने को मिलेंगे. लेकिन, यहीं आकर संजयलीला भंसाली बिखर जाते है. फिल्म के आखिरी में इशक़जादे के अर्जुन कपूर और परिणीती चोपड़ा की तरह रणवीर और दीपिका का एक दूसरे को गोली मारना दर्शकों को निराश कर देता है.
 
संजयलीला भंसाली ने गरिमा और सिद्धार्थ के साथ मिल कर फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है. उन्होंने उत्तेजक रोमांस के मौके तैयार किये है. बोल्ड सिचुएशन और उन्माद की परिस्थितियां हैं. बीच बीच में खून खराबा भी है. बेतहाशा तनाव भी. दर्शकों को देखते रहने के अलावा कुछ सोचने का मौका नहीं मिलता. अलबत्ता, अपने इस प्रयास में यह टीम इन दो  गेंगस्टर के बीच टकराव के खतरनाक होने को उभार नहीं पाए हैं. सब बच्चों का खेल जैसा सोचा समझा लगता है. कुछ दृश्य बहुत शानदार बने हैं. मसलन, रणवीर के भाई और दीपिका के भाई के बीच गोली चला कर शराब की बोतल तोड़ने, रणवीर की विधवा भाभी का दूसरे गैंग के लोगों से बचने के लिए भागने, रणवीर सिंह का दीपिका के पास जाने के लिए नदी में छलांग लगाने के दृश्य कल्पनाशील हैं.
 
संजयलीला भसाली ने दीपिका पादुकोण के ग्लैमर और उनकी उत्तेजना को खूब अच्छी तरह से भुनाया है. वह उन्हें गुजराती जूलिएट तो नहीं बना पाए, लेकिन  उत्तेजक अभिसारिका ज़रूर बना पाए हैं. राम और लीला का समर्पण नहीं उतर पाया है. संजय ने  फिल्मसिटी में महंगे सेट खड़े कर भव्यता बनायी है. पूरा गुजराती माहौल बखूबी उतरा है.इसके लिए प्रोडक्शन डिज़ाइनर वसीक खान और  costume डिज़ाइनर जोड़ी  मक्सिमा बासु और अंजू मोदी बधाई के पत्र हैं, जिन्होंन   भंसाली को डिज़ाइनर सब्यसाची मुखर्जी की याद तक नहीं आने दी. शाम कौशल के स्टंट ज़बरदस्त हैं. संजयलीला भंसाली ने बतौर संगीतकार फिल्म का माहौल बना दिया है. उनकी धुनें चरित्रों को उभारती है. राम-लीला में उत्तेजक रोमांस और वायलेंस हैं. इस माहौल में लाल और चटख रंग ख़ास होते हैं. एस रवि वर्मन का कैमरा इन चटख रंगों को बखूबी उभरता है. उन्होंने किसी दृश्य को दिखाते समय आसपास के माहौल को भी पकड़ा है. रणवीर की भाभी बरखा बिष्ट को दीपिका के गैंग के लोग पकड़ने के लिए दौडाते हैं. उसके सर पर पानी का कलसा है. वह जब भागती है तो वह सर से गिर कर ढलान पर भागती बरखा के तेज़ रफ़्तार कदमों के साथ कलसा भी लुढ़कता जाता है. यह दृश्य वर्मन की प्रतिभा का परिचायक है.
 
राम-लीला कहानी दो चरित्रों की है. पर गंग्स्टरों के टकराव पर इस फिल्म में चरित्रों की भरमार है. दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह के अलावा फिल्म में सुप्रिया पाठक, अभिमन्यु सिंह, ऋचा चड्ढा, बरखा बिष्ट, गुलशन देवैया, शरद केलकर, अंशुल त्रिवेदी, आदि जैसे सशक्त कलाकार हैं. यह सभी फिल्म को ज़बरदस्त सपोर्ट करते हैं. पर दीपिका पादुकोण एक बार फिर अपनी सेक्सी इमेज को पुख्ता करते हुए अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करती है. ख़ास तौर पर उनके डॉन के रूप में परिवर्तित होने के सीक्वेंस प्रभावशाली है. वह अपनी आँखों और चहरे के हाव भाव से दर्शकों के नाता जोड़ लेती हैं. रणवीर सिंह ने अपना दर्शक वर्ग तैयार कर लिया है. वह राम को अपने तरीके से बखूबी कर ले जाते हैं. हालाँकि,  लेखकों ने दीपिका का चरित्र को उभरने पर ज्यादा ध्यान दिया है. गुलशन देवैया भवानी के रूप में
 
प्रभावित करते हैं. लेकिन, उनका चरित्र काफी कमज़ोर लिखा गया है. वह पूरी तरह से खल चरित्र में नहीं उभरा है. बरखा बिष्ट और ऋचा चड्ढा अपने अपने रोल सहज तरीके से कर ले जाती हैं. अभिमन्यु सिंह और शरद केलकर स्वाभाविक हैं. सुप्रिया पाठक को लेडी डॉन के रूप में देखना सुखद लगता हैं. भाव सम्प्रेषण की तो वह उस्ताद हैं ही. प्रियंका चोपड़ा एक आइटम में नज़र आती हैं. वह मनोरंजक लगती हैं. अगर मनोरंजन नहीं भी करती तो चलता .
संजयलीला भंसाली ने बतौर निर्माता एक भव्य फिल्म बनायी हैं. फिल्म के चटख रंग आँखों को सुखद लगते हैं. लेकिन, जहाँ तक रोमांस की बात है, वह उभरने नहीं पाता. गोलियों की रास लीला के साथ दीपिका की रोमांस लीला साधारण काम-लीला बन जाती हैं.




















































Friday 1 November 2013

स्वागत कीजिये भारत के सुपर हीरो कृष का

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                      हिंदुस्तान में विज्ञान फंतासी फिल्म  बनाने के   अपने खतरे होते हैं. अव्वल यह फ़िल्में काफी महंगी होती हैं. फिल्म की लागत निकालने में निर्माता को पसीने छूट जाते हैं. शाहरुख़ खान  गवाही देंगे कि उनकी महत्वकांक्षी फिल्म रा.वन अपनी लागत नहीं निकाल पायी थी. फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई तो सब कुछ चौपट हो जाता है. दर्शकों की पसंदगी के आड़े आती हैं हॉलीवुड से विज्ञान फंतासी फ़िल्में. बॉलीवुड की विज्ञानं फंतासी फिल्मों पर हॉलीवुड की नक़ल का आरोप आसानी से लग जाता है. जिस प्रकार से हॉलीवुड  की फ़िल्में भारतीय भाषाओँ में डब होकर रिलीज़ हो रही हैं, भारतीय दर्शकों के लिए ऎसी तुलना करना आसान भी  हो जाता है.
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                    राकेश रोशन ने यह खतरा कृष ३ बना कर उठाया है. मानना पड़ेगा कि अपने इस प्रयास में वह खतरों के खिलाड़ी साबित होते हैं. राकेश रोशन ने कृष ३ को सुपरहीरो बना कर हॉलीवुड को ललकारा है. उन्होंने उत्कृष्ट SFX के जरिये कल्पना का ज़बरदस्त संसार बनाया है. कृष की तुलना बॉलीवुड के सुपरहीरो से होगी. कई दृश्य हॉलीवुड की सुपरमैन और आयरनमैन फिल्मों की याद दिलाते हैं. ख़ास तौर पर बिल्डिंग से गिर रहे लोगों और हवाई जहाज को क्रेश होने से बचाने के लिए उड़ रहे कृष के दृश्य सुपरमैन और बैटमैन की याद दिलाते हैं. कृष का गिरती बिल्डिंग को अपने हाथों से रोकना  स्पाइडर मैन की याद दिला देगा.  कृष को बिल्डिंगों पर दौड़ते देख कर अनायास ख्याल आता है कि जब कृष हवा में उड़ सकता है तो वह दौड़ क्यों रहा. क्लाइमेक्स में काल द्वारा अपने शरीर को  लोहे से ढकना आयरनमैन  में रोबर्ट डाउनी जूनियर के आयरनमैन बनाने का दृश्य याद करा देता है. लेकिन, इसके बावजूद कृष ३ खालिस भारतीय है. स्पेशल इफेक्ट्स और कैमरा ट्रिक्स का ज्यादा इस्तेमाल के बावजूद फिल्म में भारतीयता है. राकेश रोशन अपने किरदारों के बीच ज़बरदस्त इमोशन स्थापित करते हैं. कृष्णा और रोहित तथा  प्रिया के बीच जुड़ाव प्रभावित करने वाला है.
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फर्स्ट इंडियन सुपर वुमन
                     कृष ३ की आधी से ज्यादा शूटिंग VFX में हुई है. स्पेशल इफेक्ट्स तैयार करने में ज्यादा समय लगा है. कलाकारों के साथ ज्यादा मेहनत VFX  टीम को करनी पड़ी है. इस टीम ने हैरतंगेज़ फंतासी का निर्माण किया है. हिन्दुस्तानी दर्शकों के लिए किसी हिंदी फिल्म में ऐसे दृश्य अभूतपूर्व है. एस थिरु ने कैमरा ट्रिक द्वारा तमाम फंतासी दृश्य बड़े स्वाभाविक बनाए हैं. रजत अरोरा ने चुस्त संपादक होने का परिचय दिया है. राकेश रोशन की कहानी पर कृष की पटकथा राकेश रोशन के साथ रोबिन भट्ट, इरफ़ान कमल, हनी इरानी और आकर्ष खुराना ने लिखी है. संवाद संजय मासूम के हैं. राकेश रोशन ने एक बार फिर विज्ञानं फंतासी फिल्म बनाने के क्षेत्र में खुद के प्रतिभाशाली होने का परिचय दिया है.सलीम सुलेमान का बैकग्राउंड म्यूजिक काफी लाउड है. राजेश रोशन का संगीत काम चलाऊ है.
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सब  पर  भारी विवेक ओबेरॉय

                       तकनीक पर ज्यादा निर्भर कृष ३ के सोने पर सुहागा है ऋतिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा और कंगना रानौत का अभिनय. लेकिन इन सब पर भारी पड़ते हैं विवेक ओबेरॉय. फिल्म में विवेक काल की भूमिका में हैं. यह भूमिका बेहद कठिन थी. पूरी फिल्म में वह व्हीलचेयर पर हैं. ऐसे में केवल चहरे के हाव भाव से ही वह दर्शकों को प्रभावित कर सकते थे. उन्होंने अन्य कलाकारों को पछाड़ कर यह काम बखूबी अंजाम दिया है. कंगना रानौत को एक प्रभावशाली भूमिका मिली है. इसे वह बखूबी अंजाम देती हैं. वह जितनी खूबसूरत लगती हैं उतनी ही सेक्सी और  अभिनयशील भी.  प्रियंका चोपड़ा में गज़ब की सेक्स अपील है. लेकिन, वह ज्यादा प्रभावित करती हैं अपने अभिनय से. ऋतिक रोशन रोहित मेहरा, कृष्णा और कृष की तिहारी भूमिकाओं को संजीदगी से करते हैं. वह भारत के रोबर्ट डाउनी जूनियर साबित होते हैं. अपनी नृत्य प्रतिभा से वह दर्शकों की तालियाँ बटोर पाने में कामयाब होते हैं.  अन्य कलाकारों ने बस भरपाई की है.
                        कृष ३ बच्चो के लिए बेहतरीन फिल्म है. काल और काया के अलावा राइनोमैन, चीतावुमन, अंटमैन और फ्रॉग मैन बच्चों को आकर्षित करने वाले म्युटेंट हैं. कृष के साथ इनकी भिडंत बेहद रोमांचक है और बाल दर्शकों के आकर्षण का केंद्र भी.
                     

Saturday 26 October 2013

'मिक्की' एक 'वायरस' जिससे हर कोई इन्फेक्ट होना चाहेगा!

http://www.wowwindows8.com/wp-content/uploads/2013/10/mickey_virus_movie-wowwindows8.jpg
फिल्म के बारे में भ्रम पैदा करने वाला प्रचार और पोस्टर
                    आज जब युवा कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, आदि से खेलने लगा है तो वह वायरस और एंटी वायरस से भी ख़ास परिचित हो गया है. कभी अमेरिका और यूरोप में नामचीन होने वाले हैकर हिंदुस्तान में भी मशहूर होने लगे हैं. ऐसे में वायरस और हैकर पर फिल्म बनाना दिलचस्प हो सकता है. ख़ास तौर पर, इस विषय पर एक अच्छी थ्रिलर फिल्म बनाना. राइटर डायरेक्टर सौरभ वर्मा अपने साथियों एल्विन  राजा और कुलदीप रूहिल के साथ ऐसा प्रयास करते हैं. वह इस प्रयास में ज़बरदस्त तरीके से सफल भी होते हैं. मिक्की अरोरा उर्फ़ मिक्की वायरस, जो की छोटा मोटा हैकर है और हैकिंग को अपना पेशा नहीं, छोटी मोटी रकम उड़ाने में ही इस्तेमाल करता है. एक दिन उसके पास ACP सिद्धार्थ चौहान और इंस्पेक्टर भल्ला  आते हैं और साईट हैक करने के लिए कहते हैं. वह आसानी से इस साईट को खोल देता है. अब होता यह है कि मिक्की घटनाओं के जाल में कुछ इस प्रकार से फंसता है कि उस पर एक हत्या का आरोप लगाने वाला है, इससे बचने के लिए उसे कुछ भी करना है. वह किस प्रकार से इन परिस्थितियों से उबरता है, यह फिल्म के दिलचस्प घटनाक्रमों से साफ़ होता जाता है.

कामायनी से इन्फेक्ट हो गया वायरस 
                 मिक्की वायरस रफ़्तार, पेंचदार और रहस्य के गहरे आवरण में लिपटी फिल्म है, जो रील दर रील दिलचस्पी कम नहीं होने देती. लेकिन, इसे बैकफायर करता है, इसका उल्टा प्रचार. डार मोशन पिक्चरस. ट्रिलोजिक डिजिटल मीडिया और Awesome Films ने मिक्की वायरस का प्रचार एक कॉमेडी फिल्म के बतौर किया है, जबकि यह एक थ्रिलर फिल्म है. उन्होंने ऐसा शायद अपनी फिल्म के हीरो की इमेज को ध्यान में रखते हुए, दर्शकों को आकर्षित करने के लिए किया है. मिक्की वायरस बने मनीष पॉल मशहूर एंकर हैं. आम तौर पर, वही अपनी एंकरिंग से दर्शकों को हंसाते हैं. शायद इसीलिए मिक्की वायरस को मनीष पॉल की कॉमेडी फिल्म बताया गया, क्योंकि अगर सीरियस फिल्म बताया जाता तो शायद उतने दर्शक भी नहीं मिलते. बहरहाल, मिक्की वायरस को बढ़िया थ्रिलर फिल्म तो कहा ही जा सकता है. युवाओं से जुदा सब्जेक्ट होने के कारण युवा दर्शकों में इसमें ख़ास मसाला है. मनीष पॉल अपने काम को बहुत अच्छा अंजाम देते हैं. वह जितना अच्छा कॉमिक सेंस रखते हैं, उतना ही सीरियस काम भी कर ले जाते हैं. फिल्म की खासियत है कि इसमे पुलिस वालों के नाम छोड़ दिए जाएँ, तो अन्य के नाम चालू मार्का हैं. मसलन, चटनी, फ्लॉपी, पैन्चो. संकटमोचन, आदि आदि. इन चालू नामो वाली अपनी भूमिकाओं को पूजा गुप्ता, राघव कक्कड़, विकेश कुमार और आशीष वर्मा ने क्या खूब किया है. हर चेहरा अपने चरित्र पर फिट है और इन्हें स्वाभाविक तरीके से पेश करता है.फिल्म में मिक्की की नायिका कामायनी की भूमिका विदेशी मूल की इल्ली एवरम ने की है. वह अपनी सेक्स अपील में मिक्की के साथ साथ दर्शकों भी उलझाये रखती हैं. ACP चौहान के रोल में मनीष चौधरी खूब जमे हैं, लेकिन उनसे बाजी मार ले जाते हैं उनके जूनियर बने वरुण बडोला. वह सभी पर भारी पड़ते नज़र आते हैं.
मनीष चौधरी और वरुण वडोला 

                   फिल्म को सौरभ वर्मा ने अपने दो साथियों के सहयोग से लिखा है, लेकिन संवाद उन्होंने खुद लिखे हैं. बहुत आम प्रकार से लिखे गए संवाद दर्शकों की समझ से तालमेल बैठा लेते हैं. सौरभ ने आज के युवाओं की ज़ल्द ही ढेर सा कमा लेने की ललक को खूब लताड़ा है. वह अपने संवाद से कि हम लोगों को नौकरी नहीं मिलती, पर नेता हैं कि हज़ारों करोड़ का काला धन बैंक में रखते हैं. इसके साथ ही सौरभ यह जताना नहीं भूलते कि इसका मतलब यह नहीं कि युवा धन हड़पने के लिए अपराध करें. सौरभ वर्मा को बधाई. उनका निर्देशन कौशलपूर्ण है. वह दर्शकों को दिल्ली की गलियों और  ओवरब्रिज पर उलझाए रखने में कामयाब रहते हैं. फैजान, अग्नेल रोमन और हनीफ शैख़ का संगीत फिल्म में हलके फुलके क्षण लाने के लिए है. संपादक अर्चित डी रस्तोगी ने अपनी कैंची का बखूबी इस्तेमाल करते हुए फिल्म को लम्बा नहीं होने दिया है और दर्शकों की रूचि बनाए रखी है. अंशुमन महाले अपने कैमरा से मिक्की की उलझनों को दिखाते हुए, फिल्म को रहस्य के परदे में डालने में सफल हुए हैं. तारीफ करनी होगी अभिषेक बनर्जी की कि उन्होंने हर चरित्र के लिए एकदम फिट कास्ट का चुनाव किया है. लगता नहीं कि हम करैक्टर को नहीं किसी अभिनेता को एक्टिंग करते देख रहे है. प्रद्युम्न ने अपने स्टंट से दिलचस्पी बनाए रखी है, हालाँकि, यह हैरतंगेज़ नहीं हैं. सुभाष साहू का ध्वनि आलेखन माहौल को उभारने वाला है.
               बेहतरीन थ्रिल्लिंग सीक्वेंस और अभिनय से सजे इस मिक्की वायरस से कौन नहीं इन्फेक्टेड होना चाहेगा. दर्शकों को सलाह है कि वह सिनेमाहाल जाएँ और मिक्की के वायरस से इन्फेक्ट हो के आयें .  मनीष पॉल की यह फिल्म केवल ११ करोड़ के बजट से बनी. मिक्की वायरस को १२ सौ प्रिंट्स में रिलीज़ किया गया है. इसलिए यह फिल्म घाटे का सौदा तो नहीं साबित होगी, लेकिन एक हफ्ते बाद दिवाली होने और कृष ३ के रिलीज़ होने के कारण मिक्की वायरस को दर्शकों का टोटा हो सकता है. इस फिल्म को तमिल और तेलुगु में भी बनाए जाने की खबर है.

Thursday 17 October 2013

त्यौहार है...अक्षय कुमार है....तो देखने में कोई हर्ज नहीं है....बॉस!!!

  http://mail-attachment.googleusercontent.com/attachment/?ui=2&ik=136e54ebdd&view=att&th=14196e0ee2654e15&attid=0.4&disp=inline&realattid=f_hmbinudg3&safe=1&zw&saduie=AG9B_P83I_uKDyjMONkv8T_YiKvK&sadet=1381978080429&sads=SB4fwIHInvO6dAy8UuB_uZjC14Q&sadssc=1 
                   एक स्कूल टीचर सत्यकांत के दो बेटे सूर्य और शिव हैं. सूर्य गुस्सैल है. एक हादसे में उसके हाथों से अपने सहपाठी का क़त्ल हो जाता है. उसे जुवेनाइल कोर्ट द्वारा तीन साल कीसज़ा हो जाती है. जब वह लौट कर आता है तो पिता सूर्यकांत उसे घर सेनिकाल देता है . वह ट्रांसपोर्ट की आड़ में गलत धंधे करने वाले बिग बॉस के लिए काम करने लगता है. बिग बॉस उसे बॉस नाम देता है. एक दिन उसे एक मंत्री द्वारा अपने ही छोट भाई का क़त्ल करने की सुपाड़ी दी जाती है. जब उसे इस बात का पता चलता है तो वह उस मंत्री और उसके लिए काम करने वाले क्रूर पुलिस ऑफिसर का खत्म कर देता है. कैसे? यह अविश्वसनीय घटनाओं से भरी कहानी है.
                        बॉस मलयाली फिल्म पोक्किरी राजा का हिंदी रीमेक है. बॉलीवुड में अक्षय कुमार और उनके मित्रों ने इसे इसी लिए रीमेक किया था कि यह फिल्म साउथ में सुपर हिट थी. इसलिए कहानी तो मोटा मोटी वहीँ से उडायी गयी है, हालाँकि फिल्म में फरहाद साजिद को इसका क्रेडिट दिया गया है. इस जोड़ी ने फिल्म की पटकथा और संवाद भी लिखे हैं. इस क्षेत्र में यह नवेली जोडी कुछ हद तक ही सफल हुई है. लेकिन, इसे एक बड़ी फिल्म के अनुरूप लिखा नहीं माना जा सकता. बचकाने प्रसंगों से भरी हुई यह फिल्म. डरपोक पुलिस वाला जीजा अपने साले को वर्दी पहना कर, मंत्री की बेटी की सुरक्षा में भेज देता है. जहाँ वह मंत्री के बेटे और साथियों को ही पीट देता है. एक पुलिस अधिकारी अपने इलाके से हट कर कहीं भी गोला बारी, क़त्ल, आदि कर लेता है. कोई अख़बार या चैनल इसे नहीं छपता-देखता, जब तक बॉस नहीं आ जाता है. फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी मंत्री के लिए काला सफ़ेद करने वाले पुलिस अधिकारी आयुष्मान ठाकुर की भूमिका में रोनित रॉय. इसमे कोई शक नहीं कि वह एक्टिंग अच्छी करते हैं. लेकिन, एक्शन फिल्मों के विलेन के लिए अभिनय से ज्यादा विश्वसनीयता का संकट होता है. वह अक्षय कुमार के बॉस को टक्कर देने वाले विलेन साबित नहीं होते. उन्हें देखते समय कसौटी ज़िंदगी की और बड़े अच्छे लगते हैं के रोनित रॉय की याद आती रहती है. अलबत्ता वह अदालत के पाठक से बाहर नज़र आते हैं. रोनित रॉय की कमी का खामियाजा फिल्म को भोगना पड़ेगा. अक्षय कुमार का काम हमेशा की तरह है. वह ऐसे रोल आसानी से कर ले जाते हैं. या यों कहा जा सकता है कि वह ऐसे रोल ही कर सकते हैं. 'शैतान' शिव पंडित में कमर्शियल फिल्मों का हीरो बनने का मटेरियल नहीं. वह अनुराग कश्यप और उनके चेले चपाटों की फिल्मों में ही बेहतर हैं. अदिति राव हैदरी अगर हैदरी न होती तो उन्हें फिल्म कैसे मिलती! उन्हें  इलाज़ की सख्त ज़रुरत है. वह एक्टिंग और शरीर से भी कमज़ोर लगती हैं. उनकी बिकनी को अनावश्यक तूल दिया गया. वह बिकनी बाड तो हैं ही नहीं.सुदेश बेरी तो अपने चहरे पर नारियल फोड़वा कर ढेर हो जाते हैं. संजय मिश्र, जोनी लीवर, परीक्षित साहनी और मुकेश तिवारी को अपनी बरबादियों पर रोना आ रहा होगा. आना भी चाहिए, ऐसे घटिया रोल कोई पैसे के लिए ही लेगा, कला के नाम पर तो कतई नहीं. फिल्म का चेहरा बचाते हैं बॉस के रोल में डेनी तथा सूर्यकान्त की भूमिका में मिथुन चक्रवर्ती. दोनों ने फिल्म को खूब सम्हाला है. निश्चित रूप से मंत्री बने अभिनेता गोविन्द नामदेव ने खल भूमिकाओं की टिप्स इन दोनों वेटेरन एक्टर्स से ज़रूर ली होगी. आकाश धाबडे कुछ हद तक हंसाने में कामयाब हुए हैं, लेकिन जोनी लीवर से अधिक.
                             अन्थोनी डिसूजा ने बॉस को नया कलेवर देने की कोशिश की है. लेकिन, वह इतना नया तो अपनी पहली फिल्म ब्लू में कर चुके थे. लेकिन, बाप बेटा सम्बन्ध फिल्म को थोडा हट कर बनाते हैं.  आजकल फिल्मों में यो यो हनी सिंह के आइटम रखने का चलन हो गया है. अब वह आइटम सोंग सिंगर के रूप में पोपुलर हो गए हैं. निश्चित रूप से किसी दिन, मिका के साथ वह भी फिल्म इतिहास के कूड़ेदान में नज़र आयेंगे. फिलहाल तो वह खूब बेसुरा गा रहे हैं और माल बटोर रहे हैं. मीत ब्रदर्स, यो यो हनी सिंह, पी ए दीपक और चिरंतन भट्ट ने दर्शकों को बाथरूम जाने का खूब मौका दिया है. संदीप शिरोधकर का बैकग्राउंड म्यूजिक ठीक है. लक्ष्मण उटकर का छायांकन फिल्म का मूड उभरता है. एडिटर रामेश्वर एस भगत अगर फिल्म के सारे गीत उड़ा देते तो दर्शकों की गालियों के हक़दार होते, क्योंकि तब दर्शक सू सू करने नहीं जा पाते. लेकिन, वह अपना काम सही अंजाम देते. क्योंकि, फिल्म के सभी गीत अनावश्यक हैं. अनल अरासु के स्टंट फिल्म की जान हैं. वह अक्षय कुमार को तालियाँ दिला जाते हैं.प्रभु देवा से लेकर गणेश आचार्य तक फिल्म के पांच कोरियोग्राफर कुछ भी थिरकता हुआ नहीं दे पाए.
                                 अक्षय कुमार को बाज़ार और दर्शकों की समझ है. उन्होंने बॉस को ११ के बजाय १६ को बकरीद वीकेंड में रिलीज़ किया. अगर वह ११ को रिलीज़ करते तो फिल्म की कमजोरी का खामियाजा भुगतते. बकरीद आते आते, फिल्म बॉक्स ऑफिस का बकरा बन जाती. इसका का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि फिल्म के कैमिया में सोनाक्षी सिन्हा तक जान नहीं डाल पातीं. वैसे यह त्यौहार का मौका है, आप अक्षय कुमार के फैन हैं, तो इस फिल्म को देखने में कोई हर्ज नहीं है. लेकिन, इल्तिजा है कि अपना दिमाग घर पर रख के आइयेगा. फिल्म और अक्षय कुमार से बहुत उम्मीदें मत रखियेगा. खुश रहेंगे. 

Saturday 12 October 2013

इस 'वॉर' को मत छोड़ना यार !

            http://www.hdwallpaper.org/wp-content/uploads/2013/10/war-chhod-na-yaar-movie-HD.jpg                           भारत पाकिस्तान के बीच तनाव और युद्ध का लम्बा रिश्ता रहा है. इसीलिए, इस तनाव की पृष्ठभूमि में हकीकत से लेकर बॉर्डर तक न जाने कितनी फ़िल्में रिलीज़ हो चुकी हैं. इन तमाम फिल्मों में मानवीय संबंधों के अलावा गोला बारूद वाली हिंसा का ही प्रदर्शन हुआ है. इसीलिए, जब फ़राज़ हैदर वॉर छोड़ न यार ले कर आते हैं तो लगता है कि वह भी इंडियन वॉर मूवीज की लिस्ट में अपना नाम लिखने आये हैं. अलबत्ता, फिल्म का टाइटल इसके कॉमेडी होने की और इशारा करता है. लेकिन, यह कॉमेडी किस स्तर की होगी, भारत पाक युद्ध संबंधों को किस मुकाम पर ले जायेगी, शंका इसी को लेकर बनी रहती है. फिल्म की शर्मन जोशी, सोहा अली खान, जावेद जाफरी, संजय मिश्र, मुकुल देव और मनोज पाहवा जैसी मामूली स्टार कास्ट के कारण फिल्म से बहुत अपेक्षाएं नहीं रहती. लेकिन, तारीफ करनी होगी फ़राज़ हैदर की कि उन्होंने भारत पाक संबंधों, दोनों देशों की सेनाओ और दोनों देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप, वेपन लॉबी, आदि को समेत कर एक ज़बरदस्त व्यंग्यात्मक फिल्म बना डाली है.
                    कहानी इतनी है कि एक चैनल की रिपोर्टर रुत दत्ता (सोहा अली खान) को भारत का रक्षा मंत्री (दिलीप ताहिल) एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए बुलाता है. इस इंटरव्यू में वह बताता है कि तीन दिन बाद भारत पाकिस्तान के बीच वॉर छिड़ने जा रही है. वह रुत से सीमा पर जाने को कहता है, ताकि वह वहां पहुँच कर पब्लिसिटी पा सके. सीमा पर जाने के बाद रुत को भारत पाकिस्तान सैनिकों के बीच संबंधों के बारे में पता चलता है. वह भारतीय सेना के कप्तान राज (शर्मन जोशी) को हकीकत बताती है और युद्ध रोकने के लिए कहती है. लेकिन, राज साफ़ कर देता है कि वह पोलिटिकल लीडर्स के आदेश मानने के लिए बाध्य है. तब रुत खुद इस वॉर को रोकने की कोशिश करती है. वह इस कोशिश में कामयाब होगी. लेकिन, कैसे ? यही इस फिल्म का दिलचस्प पहलू है.
                      वॉर छोड़ न यार के निर्देशक फ़राज़ हैदर ही फिल्म के लेखक भी हैं. कहानी उन्होंने लीक से हट कर ली है. ट्रीटमेंट भी बढ़िया है. रील दर रील दर्शकों में उत्सुकता बनी रहती है. ११९ मिनट की इस फिल्म की स्क्रिप्ट में थोड़ी मेहनत और की जानी चाहिए थी. फिल्म के संवाद काफी व्यंग्यात्मक है. कहा जा सकता है कि ठीक राजनीतिज्ञों के दिलों पर कील ठोंकने वाले. दर्शक हँसता है और राजनीतिज्ञों की चालबाजियां समझता हुआ उनकी बेबसी का मज़ा भी लेता है. फ़राज़ ने मस्त सीक्वेंस बनाये हैं. उन्होंने  जहाँ भारत पाकिस्तान के सैनिकों के बीच दोस्ती, हँसी मज़ाक और तनाव को दिखाया है, वहीँ पाकिस्तानी सैनिकों की दुर्दशा का भी व्यंग्यात्मक चित्रण हुआ है. वह कई दिनों  से मुर्ग मुसल्लम  उड़ाने की फिराक में हैं. उनकी बीमारी, बेबसी और भारत के आवाम के प्रति दोस्ती के ज़ज्बे का भी चित्रण हुआ है. फ़राज़ ने कहीं भी पाकिस्तान को सहानुभूति के काबिल नहीं बताया है, लेकिन इसका दोषी राज नेताओं को माना है. वह बताते हैं कि दोनों देशों के नेता वेपन लॉबी से कमीशन लेकर हथियार खरीदते हैं. अपने पुराने और सड़े हथियार बेचने के लिए उनकी बेचैनी का भी प्रदर्शन हुआ है. फ़राज़ ने चीनी सामान और हथियारों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं. दर्शक इसे खूब एन्जॉय करता है.  पाकिस्तानी सैनिक प्रशासकों को मूर्ख दिखाना थोडा जमा नहीं . लेकिन, एक कॉमेडी फिल्म में यह सब चलता है . इस फिल्म का क्लाइमेक्स महत्वपूर्ण था. युद्ध कैसे ख़त्म होता है, वह अस्वाभाविक सा था, लेकिन जन भावना के अनुरूप था. फिल्म में भारत पाकिस्तान के सैनिकों को अन्त्याक्षरी खेलते दिखाया गया है. फ़राज़ ने फिल्म के क्लाइमेक्स इसका बहुत खूब उपयोग किया है. पाकिस्तान के सैनिक पहली बार अन्त्याक्षरी जीतते हैं, लेकिन भारत की फिल्म शोले के ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे गा कर. फिल्म देखते दर्शक तालियाँ बजाने को मजबूर हो जाते हैं.
                         फिल्म में सोहा अली खान और शर्मन जोशी अपना काम बखूबी अंजाम देते हैं. दलीप ताहिल भारत, पाकिस्तान, अमेरिकी प्रशासन और हथियारों के सौदागर की अपनी भूमिका को भिन्न रख पाने में सफल हुए हैं. पाकिस्तान के जनरल की भूमिका में मनोज पहावा खूब जमे हैं. संजय मिश्र एक बीमार सैनिक की भूमिका में दर्शकों को हंसा हंसा कर लोटपोट कर देते हैं. वह गज़ब के एक्टर हैं. पाकिस्तानी कप्तान कुरैशी के रोल में जावेद जाफरी ने स्वाभाविक अभिनय किया है. असलम केई नें माहौल के अनुरूप धुनें तैयार की हैं. सजल शाह का कैमरा युद्ध के दृश्यों को रोमांचक बना पाने में कामयाब हुआ है.
                         इस फिल्म को देखने के बाद मन में एक ख्याल आता है कि फ़राज़ हैदर के पास ज्यादा फाइनेंस होता तो वह अच्छा परिणाम दे सकते थे. वह इन ज्यादा पैसों से बड़ी कास्ट लेकर इतना अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ सकते थे. लेकिन, फिल्म का तकनीकी स्तर ऊंचा हो जाता और फिल्म ज्यादा दर्शक बटोर पाती. अगर आप को स्वस्थ मनोरजन की दरकार है और  ऎसी फ़िल्में आगे भी बनते देखना चाहते हैं, तो वॉर छोड़ न यार मस्ट वाच फिल्म है.

Wednesday 2 October 2013

इतना भी 'बेशरम' नहीं...!

           
रणबीर कपूर की फिल्म  बेशरम की, सलमान खान की फिल्म दबंग से तुलना करना बेमानी होगी। सलमान खान को लेकर, उनकी लोकप्रिय इमेज के हिसाब से फिल्में बनायीं जाती हैं। रणबीर कपूर की इमेज सलमान खान की इमेज से बिल्कुल अलग है। या यह कह सकते हैं कि रणबीर कपूर खुद को एक्टर स्टार के बतौर प्रस्तुत करना चाहते हैं। सलमान खान को अभी एक्टिंग आना बाकी हैं। उनके पास मैनरिज़म है बस। इस लिहाज से दबंग और बेशरम की तुलना तो बिल्कुल भी नहीं की जा सकती। दबंग खालिस एक्शन फिल्म थी, बेशरम साठ के दशक की छौंक वाली हास्य नायक वाली फिल्म। अलबत्ता इन दोनों फिल्मों के निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप के काम की तुलना ज़रूर की जा सकती है। जब अभिनव ने सलमान खान के साथ फिल्म दबंग बनाई थी, तब उन के काम की काफी प्रशंसा की गयी थी। उन्होने सलमान खान को बिल्कुल नयी इमेज में ढाला था। हल्की मूंछों वाला चुलबुल पांडे हिट हो गया। इसी दौरान अभिनव, सलमान और फिल्म के निर्माता अरबाज़ खान के बीच के मतभेद भी सामने आए। लगा कि सलमान खान और उनके भाई अभिनव को फिल्म की सफलता का थोड़ा श्रेय भी नहीं देना चाहते। वहीं, अभिनव दबंग  को खुद का चमत्कार समझ रहे थे। अरबाज़ ने बाद में बिना अभिनव के और सलमान खान को लेकर इस फिल्म का सेकुएल दबंग 2 हिट करवा दिया। इसलिए, पूरी निगाहें बेशरम पर थी कि अभिनव बेशरम से साबित करेंगे कि दबंग की सफलता उनके विजन   की सफलता थी। लेकिन, आज जब कि बेशरम रिलीस हो चुकी है, यह कहा जा सकता है कि अभिनव कश्यप बिल्कुल साधारण फिल्मकार हैं। उन्होने न केवल पुरानी धुरानी साठ  के दशक वाली, हीरोइन से एक तरफा प्यार करने वाले टपोरी चोर की कहानी ली है, बल्कि, उसे भी उसी पुराने ढर्रे पर फिल्माया है। कहाँ नज़र आता है आजकल ऐसा चोर। रणबीर के किरदार बबली द्वारा पहने गए भयंकर रंगीन शर्ट और पैंट तथा उस पर बेहूदा सा चश्मा और स्कार्फ, कोफ्त पैदा करता है। अब तो रणबीर की तरह सड़क छाप गुंडे तक नहीं रहते। दर्शकों में खीज पैदा करने वाले हीरो से हीरोइन पटे तो कैसे और पटे भी तो दर्शकों के गले से कैसे उतरे। कोढ़ में खाज कहिए या करेले पर नीम चढ़ा कहिए, फिल्म की घटिया स्क्रिप्ट और स्क्रीन प्ले ने सब गुड गोबर कर दिया। क्योंकि, कहानी तो दबंग की भी घटिया थी। मगर कथा पटकथा ने सब सम्हाल लिया था। इस मामले में राजीव बरनवाल के साथ अभिनव कश्यप बिल्कुल फ़ेल साबित होते हैं। वह एक भी सीन ऐसा नहीं लिख पाये, जिसे देख कर दिल में उत्साह पैदा हो। अभिनव ने फिल्म में आधा दर्जन गीतों  की लाइन लगा दी है। लेकिन, संगीतकार ललित पंडित  केवल लव की घंटी गीत को ही कर्णप्रिय बना पाये हैं। बाकी गीत बस ठीक ठाक ही हैं। फिल्म के संपादक प्रणव धीवर को कैंची का प्रयोग करना चाहिए था, लेकिन वह कैंची केवल हाथ में पकड़े रहे बस। फिल्म की कहानी की तरह फिल्म के संवाद भी बासी हैं। मधु वन्नीएर का कमेरा चटख रंगो को समेटने में लगा रहा। शाम कौशल के स्टंट बढ़िया बने हैं।

                  बेशरम रणबीर कपूर के स्टारडम को ज़ोर का झटका दे सकती है। यह जवानी हे दीवानी की सौ करोडिया सफलता के बाद रणबीर बड़े हीरो बनने के जो  सपने  देख रहे होंगे, बेशरम से उन्हे नुकसान पहुंचेगा । पल्लवी शारदा को दर्शक माइ नेम इज खान, दस तोला, लव ब्रेक अप्स और ज़िंदगी में देख चुके हैं। वह रणबीर से उम्र में बड़ी लगती हैं। वह कहीं प्रियंका चोपड़ा की झलक भी देती हैं। अब यह कहना ज़रा मुश्किल हे कि जावेद जाफरी  को अभिनव ने बर्बाद किया या जावेद ने खुद ही खुद को चोटिल कर लिया। वह लाउड अभिनय करने के बावजूद जोकर से अधिक नहीं लगे। फिल्म का बड़ा आकर्षण ऋषि कपूर और नीतू सिंह कपूर की जोड़ी   हो सकती थी। लेकिन, यह दोनों रियल लाइफ पति पत्नी भी जम नहीं सके। बमुश्किल तमाम उन्हे देख कर हंसी आती हे। फिल्म में उभर कर आते हैं रणबीर के दोस्त टीटू के रूप में अभिनेता अमितोष नागपाल। वह बेहद सहज अभिनय करते हैं। हिन्दी फिल्मों में हास्य अभिनेता को वह एक दर्जा दिलवा सकते हैं।
                    फिल्म का एक संवाद 'न सम्मान का मोह, न अपमान का भय' अभिनव कश्यप पर मुफीद बैठता हे। क्योंकि, उन्होने फिल्म ही ऐसी बनायी ।  
                     




  

Monday 23 September 2013

फटा पोस्टर निकला चूहा !

                          File:Phata Poster Nikhla Hero Theatrical Poster (2013).jpg
                   शाहिद कपूर अच्छे अभिनेता हैं. डांसिंग में भी वह लाजवाब हैं।  इसका पता उनकी फिल्म फटा  पोस्टर  निकला हीरो को देख  कर चलता है। फ़िल्म में पोस्टर फाड़ कर उनकी एंट्री पर दर्शकों के शोर का सैलाब हिलोरें लेने लगता है.  वह जब डांस करते हैं, तब सिनेमाघर में बैठा दर्शक झूमने लगता है। अपने अभिनय से वह दर्शकों को प्रभावित करते हैं. लेकिन, घिसी- पुरानी कहानी और लंगडी स्क्रिप्ट उन्हें लम्बी रेस का घोड़ा साबित नहीं  होने देती। वह बीच दौड़ में लुढ़क जाते हैं.
                     फटा पोस्टर की कहानी पुरानी है- साठ के दशक की फिल्मों जैसी माँ बेटा और ईमानदारी का पाठ. आजकल के युवाओं को ऎसी उपेशात्मक कहानी रास नहीं आती. वह तो लम्पट, चोर, धोखेबाज, नशेबाज और लौंडिया को बिस्तर पर धर पटकने वाले हीरो को पसंद करते हैं। अभी ग्रैंड मस्ती, शुद्ध देसी रोमांस और आशिकी२  इसका प्रमाण है. कहानी से मात खायी यह फिल्म लेखन के मामले में भी मात खा जाती है। अगर राजकुमार संतोषी फिल्म को लिखने में किसी दूसरे लेखक  का सहारा लेते तो बेहतर फिल्म दे पाते। मध्यांतर से पहले शाहिद कपूर की कॉमिक timings  और डांस से दर्शकों को बांधे रखने वाली फिल्म, मध्यांतर के बाद बिलकुल  बिखर जाती है।  खुद शाहिद कपूर भी असहाय से नज़र आते हैं. फ़िल्म की जान टीनू वर्मा और कनाल कन्नन के एक्शन हैं।  शाहिद कपूर को यह एक्शन फबते भी खूब हैं. जहाँ तक प्रीतम चक्रवर्ती की धुनों का सवाल है, केवल मीका का गाया एक  गीत तू मेरे अगल बगल ही बढ़िया बना है. इरशाद कामिल और अमिताभ भट्टाचार्य के संवाद काम चलाऊ ही कहे जा सकते हैं.
                      फिल्म मे इलियाना डी'सौजा, पद्मिनी कोल्हापुरे, दर्शन  जरीवाला,जाकिर हुसैन, सौरभ शुक्ल, मुकेश तिवारी और संजय मिश्रा जैसे सक्षम कलाकारों की भरमार है. लेकिन, सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं भ्रष्ट पुलिस वाले के रूप में जाकिर हुसैन। संजय मिश्र का काम भी अच्छा है।  दुःख होता है इलियाना को देख कर. वह फ़िल्म की नायिका हैं, लेकिन उनका रोल ही सबसे ज्यादा कमज़ोर लिखा गया है। 
                      कहा जा सकता है कि अजब प्रेम की गज़ब कहानी के राजकुमार संतोषी की यह बेहद कमज़ोर  फिल्म है, इतनी कि सलमान खान का कैमिया और नर्गिस फाखरी का आइटम भी फटे पोस्टर से निकलते हीरो हीरो को जीरो बनने से रोक नहीं सका. बढ़िया हीरो शाहिद कपूर की इस फिल्म को फटा पोस्टर निकला चूहा कहना  ज़्यादा ठीक होगा।
 

Saturday 14 September 2013

रूह फ़ना कर देने वाली हॉरर स्टोरी !

                         

                         आम तौर पर भयावनी फिल्मों में खून सने, जले हुए और विकृत चहरे दर्शकों को डराने के काम आते हैं. रामगोपाल वर्मा ने भूत फिल्म से साउंड के ज़रिये दर्शकों को डराने का सफल प्रयास किया था. निर्माता- निर्देशक  विक्रम भट्ट  मायने में अलग हैं. उनकी फिल्मों में डरावने चेहरों का महत्व  नहीं होता। वह ऐसा माहौल तैयार करते हैं कि दर्शक सहमा सा रहता है. उनकी नयी फिल्म हॉरर स्टोरी बॉलीवुड फिल्मों की श्रंखला की सबसे बढ़िया और सही  मायनों में हॉरर फिल्म है.
                          सात दोस्तों की इस फिल्म की कहानी इतनी सी है कि वह सातों एक भुतिया होटल के एक haunted  कमरे में रात बिताने जाते हैं. वहां पहुंचाते ही सातों उस होटल में क़ैद हो जाते है. उसके बाद शुरू होता है एक के बाद एक उनका क़त्ल. यह क़त्ल करती है एक भटकती आत्मा।
                          फिल्म की कहानी में ऐसा कुछ नहीं है, जो नया हो. इसका नयापन है स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले। सात दोस्तों के होटल के अन्दर जाने के बाद एक एक सीन दहला देने वाला है. सब कुछ कल्पना से परे भयावना होता है. फिल्म के पत्र होटल के अन्दर जैसे जैसे आगे बढ़ाते हैं, दर्शकों के दिलों की धड़कने तेज़ होती जाती हैं. सिहरन सर से पैर तक महसूस होती है. आप पसीने से भी नहा जाते हैं. हॉरर फिल्मों को खासियत होती है दर्शकों का भय. अगर दर्शक डर महसूस करता है तो परदे का हॉरर सच साबित हो जाता है. हॉरर स्टोरी को देखता दर्शक सीन शुरू होने से पहले ही चीखने चिल्लाने लगता है. यह अपने महसूस किये जा रहे डर की अभिव्यक्ति  है. फिल्म के लेखक विक्रम भट्ट और मोहन आज़ाद अपने इस प्रयास में खासे सफल कहे जा सकते हैं. उन्होंने हर सीक्वेंस इस प्रकार से लिखा है कि एक दृश्य के ख़त्म होते ही दर्शक दूसरे दृश्य के भय से उलझ जाता है. निर्देशक आयुष रैना ने विक्रम भट्ट के स्क्रीनप्ले को अपनी कल्पनाशीलता के ज़रिये बहुत खूब उतारा है. फिल्म में नए चहरे लिए गए हैं. टीवी स्टार करण कुंद्रा नील, रविश देसाई मंगेश, हस्सन जैदी सम्राट, निशांत मलकानी अचिंत, नंदिनी वैद सोनिया, अपर्णा बाजपाई मैगी और राधिका मेनन ने नीना के अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है. यह नए चहरे भय की अभिव्यक्ति अपने चेहरों से बखूबी कर ले जाते हैं,यही कारण है कि दर्शक डेढ़ घंटे तक एक पल भी चैन महसूस नहीं करता है.फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक भय पैदा करने में कामयाब रहा है. एडिटिंग ने फिल्म को चुस्त बनाये रखा है.  हॉरर फिल्मों के शौक़ीन दर्शकों के लिए यह 'ज़रूर देखें' फिल्म है.

 

ग्रैंड मस्ती : बूब्स, एस और.……!

             
             जब निशाने पर औरत के अंग और उसके साथ सेक्स करने की कभी ख़त्म न होने वाली इच्छा हो तो वह ग्रैंड मस्ती है।  कम से कम, ग्रैंड मस्ती के निर्देशक इन्द्र कुमार और उनके तीन हीरो विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख और आफताब शिवदासानी यही सोचते हैं.
             ग्रैंड मस्ती कहानी है ( अगर इसे आप कहानी कह सकें तो ) तीन किरदारों अमर, मीत मेहता और प्रेम चावला की. इन भूमिकाओं को हिंदी फिल्मों के लगभग असफल अभिनेताओं रितेश देशमुख, विवेक ओबेरॉय और आफ़ताब शिवदासानी ने किया है. यह तीनों सेक्स के भूखे है. हरदम अपनी अपनी पत्नियों को बिस्तर पर ले जाने की जुगत में रहते हैं. एक दिन उन्हें अपने कॉलेज SLUT, जिसे वह स्लत कहते हैं बुलावा आता है. यह तीनो अपना सारा कामकाज छोड़ कर कॉलेज की लड़कियों के साथ मौज मस्ती यानि सेक्स करने की इच्छा से जाते हैं. वहां क्या होता है यह अंत तक अश्लील हाव भाव और संवादों की दास्ताँ है. यह सब किया गया है सेक्स कॉमेडी के नाम पर.
              रितेश देशमुख का करियर सोलो हीरो फिल्म लायक नहीं रहा. विवेक ओबेरॉय अब खलनायक बनने की राह पर हैं. अफताब शिवदासानी तो अब नज़र ही नहीं आते. फिल्म में अभिनेत्रियों की भरमार है. सोनाली कुलकर्णी मराठी अभिनेत्री हैं. कायनात अरोरा और वह हिंदी फिल्मों में अपना भाग्य आजमा रही हैं. करिश्मा तन्ना टीवी के लिए याद की जाती है. कायनात अरोरा ने मार्लो की भूमिका में, मरयम ज़कारिया ने रोज और ब्रुन अब्दुल्लाह ने मैरी के रोल में केवल अपने अंगों को उभारने और उत्तेजक ढंग से पेश करने को ही एक्टिंग समझा है. सुरेश मेनन अब अश्लील मुद्राओं में द्वीअर्थी संवाद बोलने के महारथी बन गए हैं. जब फिल्म में इतने 'प्रतिभावान' और 'सेक्सी' लोग जुटे हों तो ग्रैंड मस्ती अश्लील होगी ही. फिल्म हर प्रकार की अश्लीलता का प्रदर्शन करती है.
                मिलाप जावेरी ने अपने संवादों और चरित्र चित्रण के जरिये औरत को सेक्स ऑब्जेक्ट के तौर पर पेश किया है, जो तीन नायकों की कामुक इच्छाओं को पूरा करने के लिए हर समय तैयार रहती हैं. फिल्म में इस प्रकार की कल्पनाशीलता है, ताकि औरत का उत्तेजक और कामुक स्वरुप उभरे। तीनो हीरो कामुक मुद्राओं में नज़र आते हैं. फिल्म के तमाम पुरुष किरदारों के जननांग असली या नकली तौर पर चैतन्य रहते हैं. फिल्म का अंत अनीस बज्मी की नक़ल में और प्रदीप रावत के किरदार के जननांगों के उठाने के साथ ख़त्म होती है.
                यह एक बेहद निराशाजनक, घटिया और कमोबेश पोर्नो टाइप की फिल्म है. रही  के पसंद आने कि  तो पूरी फिल्म के दौरान हर सीन और संवाद में आवारा  सीटियाँ,तालियाँ और चीख चिल्लाहट उभरती रही. इससे यह साबित होता है कि पोर्नो फिल्मों के शौक़ीन दर्शकों के लिए सेंसर बोर्ड ने अच्छा मसाला परोस दिया है. 

Saturday 7 September 2013

अपूर्व लाखिया की ज़ंजीर में बंधे रामचरन

काम न आया संजय दत्त से हाथ मिलाना 
                    हर निर्देशक आनंद एल राज नहीं होता कि किसी धनुष को हिंदी दर्शकों का राँझना बना सके. अपूर्व लाखिया ऐसे निर्देशक नहीं। उन्होंने रामचरन को हिंदी  दर्शकों से introduce कराने के लिए चालीस साल पहले की फिल्म का रीमेक बनाया। उन्होंने एक पल नहीं सोचा कि सत्तर के दशक की कहानी आज के दर्शकों को क्यों कर पसंद आयेगी ! कहानी में फेरबदल  किया तो केवल यह कि विलेन  तेल माफिया था. बाकी कहानी पूरी की पूरी १९७३ की ज़ंजीर वाली घिसीपिटी थी. इस कहानी पर वह बढ़िया स्क्रीनप्ले बनवा कर नयापन ला सकते थे. मगर, स्क्रीनप्ले राइटर सुरेश नायर पुरानी ज़ंजीर से आगे नहीं सोच सके. अलबत्ता, माही गिल के किरदार से अश्लीलता भरने की कोशिश ज़रूर की गयी. देखा जाए तो अपूर्व लाखिया अमिताभ बच्चन से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने पहले ही यह मान लिया कि अमिताभ बच्चन के किरदार को दूसरा कोई नहीं कर सकता है. इसलिए, उन्होंने अपना सबसे बेहतर चुनाव रामचरन को लिया तो लेकिन, उनके साथ कोई मेहनत नहीं की. ऐसा लगा जैसे साउथ के इस सुपरस्टार को कुछ भी करते रहने की छूट दे दी गयी थी. अपूर्व ने रामचरन को इंस्पेक्टर विजय खन्ना के किरदार में ढालने की कोई कोशिश नहीं की. रामचरन के हावभाव और चाल ढाल पुलिस वाले बिलकुल नहीं लगे. हालाँकि, उन्होंने खुद के सक्षम एक्टर होने का प्रमाण दिया. अपूर्व ने संजय दत्त को महत्त्व देते हुए रामचरन के किरदार को कर दिया. एक पल को यह नहीं सोचा कि हिंदी दर्शक हीरो को हीरो बनाते देखना चाहता है. संजय दत्त को महत्त्व देने में अपूर्व यह नहीं याद रख सके कि अगर संजय में दम होता तो वह अपनी फिल्म पोलिसगिरी को हिट करा ले गए होते। माला के किरदार में प्रियंका चोपड़ा ने दम भरने की कोशिश ज़रूर कि उनका आइटम पिंकी झटके दार भी था. मगर बेदम लेखन ने प्रियंका को भी बेदम कर दिया. आयल माफिया बना तेजा का चरित्र प्रकाश राज कर रहे थे. लेकिन, समझ नहीं आया कि उन्हें कॉमिक टच देने की क्या ज़रुरत पद गयी थी. साउथ की फिल्मों में रामचरण के अपोजिट विलेन खूंखार होता है और इसे प्ले करने वाला अभिनेता लाउड एक्टिंग करता है. निश्चित रूप से माही गिल ने अश्लीलता का दामन थाम, लेकिन वह सेक्सी नहीं लग सकीं। संजय दत्त जब आते हैं, अपनी पंच लाइनों से तालियाँ बटोर डालते हैं.
                फिल्म में निर्देशक अपूर्व लाखिया, स्क्रीनप्ले राइटर सुरेश नायर ने अपना काम अच्छी तरह से अंजाम नहीं दिया. उनकी इस गलती का खामियाजा ज़ंजीर २.० भोगेगी ही, बेचारे रामचरन के माथे पर असफलता का दाग भी लग गया है. फिल्म संगीत के लिहाज से भी कमज़ोर है. एडिटर चिन २ सिंह फिल्म एडिटिंग में चिंटू ही साबित होते हैं.
                यह फिल्म सिंगल स्क्रीन ऑडियंस के लिए थी. यह ऑडियंस फिल्म देखने भी गया. लेकिन बाहर निकला निराश हो कर. ऐसे निराश दर्शक की प्रतिक्रिया काफी खतरनाक होती है. इसलिए कोई शक नहीं अगर बॉक्स ऑफिस पर ज़ंजीर ज़ल्दी टूट जाये. अफ़सोस रामचरन तेजा।

देसी रोमांस का बैंड बजाती फिल्म शुद्ध देसी रोमांस

परिणीती के कमीज़ के बटन खोलते सुशांत 
                  मनीष शर्मा बैंड बाजा बरात और लेडीज वर्सेज रिक्की बहल के बाद शुद्ध देसी रोमांस लेकर आते हैं, तो उनके प्रशंसक दर्शकों को उम्मीद बधती है कि उन्हें एक अच्छी मनोरंजक फिल्म देखने को मिलेगी. लेकिन, मनीष शर्मा अपनी पहले की फिल्मों की सफलता से इतने आत्म मुग्ध हो गए कि उन्होंने अपनी पहले की दोनों फिल्मों का कुछ न कुछ डाल लिया. बैंड बाजा बरात में मैरिज प्लानर की कहानी थी तो शुद्ध देसी रोमांस में शादी की बरात में अच्छे कपडे पहन कर अंग्रेज़ी बोलने वाले किरदार है. फिल्म के दौरान जब रघु शादी के मंडप पर लड़की छोड़ कर भाग जाता है और परिणीती पर डोरे डालने लगता है तो लेडीज वर्सेज रिक्की बहल की याद ताजा हो जाती है. हाँ, तो फिल्म की बात हो रही थी. अब होता यह है कि शादी की बरात में नाचने वाले ऐसे ही एक किरदार रघुराम की शादी की बरात जा रही है. उसमे शामिल होने के लिए अल्ट्रा मॉडर्न गायत्री आती है. ऐन शादी के वक़्त रघु को पेशाब लगती है और वह टॉयलेट से भाग खड़ा होता है. अगले ही सीन में रघु से गायत्री मिलती है. दोनों चालू पीस हैं.  गायत्री तीन चार लड़कों के साथ पहले भी सो चुकी है. वह और रघु भी एक साथ सोते है. दोनों शादी की दहलीज़ तक पहुंचते हैं कि इस बार गायत्री को पेशाब लगती है और वह टॉयलेट से फरार हो जाती है. अब रघुराम को मिलती है तारा। इस बार रघु उसकी और आकर्षित होता है. एक शादी में गायत्री भी मिल जाती है. दो लड़कियों की जद्दो जहद में फंसे रघु की फिल्म का अंत भी बाथरूम में होता है.
                      फिल्म  में कहानी नदारद है. मनीष शर्मा ने एक लड़का, दो लड़की, एक बाथरूम, एक बारात, धकाधक चुम्बन चाटन और सेक्स दृश्यों के सहारे दो घंटे से ज्यादा की फिल्म बना डाली है. यह सब सिचुएशन  और संवादों के सहारे इतनी बार दिखाया जाता है कि फिल्म का अंत इसी पर ख़त्म होता देख कर दर्शक  निराशा से भर उठता है. यशराज फिल्म्स से इतनी अधकचरी फिल्म की अपेक्षा नहीं की जाती। निर्माता आदित्य चोपड़ा को यह समझना होगा कि संवाद के सहारे बनी कोई फिल्म बिना दूल्हे की बारात जैसी होती है. एडिटर नम्रता राव अगर अपनी कैंची चलाती तो फिर पहले पेशाब प्रसंग के अलावा रिपीट हुए कोई दृश्य नहीं बचते. मनु आनंद का छायांकन जयपुर के खूबसूरत दृश्यों को दर्शकों के सामने लाता है. सचिन जिगर का संगीत यादगार नहीं कहा जा सकता. केवल एक दो धुनें ही ठीक बनी हैं. अभिनय की बात की जाए तो सुशांत को उनकी भोली शक्ल और पवित्र रिश्ता वाली इमेज के कारण लिया जाता है. सुशांत अपनी हर फिल्म में पवित्र रिश्ता के मानव को दोहराते हैं. परिणीती चोपड़ा भी सीमित प्रतिभा की अभिनेत्री है। इसलिए वह गायत्री के चरित्र को आराम से कर ले जाती हैं. वाणी कपूर को बहुत मौके नहीं मिले। पर वह अपने ग्लैमर से आकर्षित करती हैं. सबसे बढ़िया और स्वाभाविक काम उन बाथरूमों का रहा है, जो नेचुरल नज़र आते हैं.
                        शुद्ध देसी रोमांस छोटे शहरों और कस्बों के युवाओं की मानसिकता को ध्यान में रख कर बनायी गयी है. निर्देशक मनीष शर्मा जानते हैं कि  यह दर्शक घटिया और भद्दे शब्दों वाले संवादों पर तालियाँ और सीटियाँ बजाता है. उसे लौंडिया का लपक कर चुम्बन चमेटने  वाला हीरो रास आता है. जब हीरो हेरोइन को बिस्तर दे मारता है तो यह युवा कुर्सियां तोड़ने को तैयार हो जाता है. फिल्म में यही कुछ इफरात में है.
                         अगर  आप छोटे कस्बे वाली मानसिकता वाले दर्शक है और केवल संवादों के सहारे फिल्म देख सकते हैं तो यह फिल्म आपके ही लिए बनी है.