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Friday 15 May 2015

मखमल में पैबंद की तरह 'बॉम्बे वेल्वेट'

अगर 'ऑथेन्टिसिटी' की बात करें तो फिल्म इज़ ग्रेट।  सिक्सटीज का बॉम्बे परदे पर ला दिया अनुराग ने।
अगर फोटोग्राफी की बात करे तो सिनेमेटोग्राफर राजीव रवि ने कमाल कर दिया है। 
अगर आर्ट डायरेक्शन, सेट डेकोरेशन, कॉस्ट्यूम, मेकअप, स्पेशल इफेक्ट्स और विसुअल इफेक्ट्स की बात करें तो सब कमाल ही कमाल।  
अगर स्टोरी की बात करें तो फिल्म अमिताभ बच्चन की सत्तर के दशक की फिल्मों और गुरु दत्त की पुरानी फिल्म की याद दिलाती है। 
अगर अभिनेता रणबीर कपूर की बात करें तो गैंगस्टर फ़िल्में करके अमिताभ बच्चन सुपर स्टार बन गए, रणबीर कपूर का दर्ज़ा भी कुछ गज़ ऊपर हो जायेगा।  
अगर अनुष्का शर्मा की बात की जाए तो वह दूसरी हुमा कुरैशी साबित होती है।  शाहरुख़ खान और आमिर खान के साथ  रोल कर चुकी अनुष्का शर्मा के लिए यह 'गन्दी बात' है।  
अगर करण जौहर की बात की जाये तो वह अच्छे विलेन साबित हो सकते हैं अगर उन्हें इसी प्रकार की के एन सिंह टाइप की फ़िल्में मिल जाए।  क्योंकि लाउड विलेन में तो उनकी आवाज़ ही फट जाएगी।  
अगर मनीष चौधरी की बात जाये तो उन्होंने जिमी मिस्त्री को क्या कंट्रोल्ड प्ले किया है। 
अगर सत्यदीप मिश्रा की बात की जाये तो उनका चिमन कमाल करता है।  लगे रहो चिमन भाई। 
अगर अमित त्रिवेदी की बात की जाये तो पुराना म्यूजिक नया बनाये रहो भैया।  अगर अनुराग भैया आगे फिल्म बना सके तो आपकी दूकान चलती रहेगी। 
अगर कहानी की बात की जाए तो 'बॉम्बे वेलवेट' ज्ञानप्रकाश के उपन्यास 'मुंबई फैबल्स' पर आधारित है।  ज्ञानप्रकाश १९५२ की पैदाइश हैं यानि आज़ादी के पांच साल बाद के पैदा हैं ज्ञानप्रकाश ।  जबकि उनका उपन्यास आज़ादी के दो साल बाद के बॉम्बे पर है और पुर्तगाल शासित गोवा की।  उन्होंने आपने उपन्यास में जो लिखा वह सब पढ़ा हुआ और सुना हुआ ही है।  क्योंकि, उन्होंने १९७३ में दिल्ली से डिग्री पाई है।  इसीलिए उनकी कहानी में १९७५ में निर्देशित यश चोपड़ा की फिल्म 'दीवार' का अमिताभ बच्चन और परवीन बाबी का रोमांस नज़र आता है।  
अगर बॉक्स ऑफिस की बात की जाये तो इतने पुरानेपन वाली फिल्म कौन ससुरा देखने जायेगा। फिर फिल्म में अनुष्का शर्मा के गर्मागर्म चुम्बन और सेक्स सींस गायब है। इसलिए अब तक अपनी फिल्मों में अपने चरित्रों की फाड़ते आ रहे अनुराग कश्यप की भी फटने जा रही है।  अस्सी करोड़ तो गए पानी में।

Friday 3 April 2015

फ़ास्ट है.… फ्यूरियस है…लेकिन आखिरी नहीं है सातवी फिल्म !

दो घंटा १८ मिनट तक सांस रोकनी पड़े।  इतने ही समय तक अगले सीन के लिए बेताबी हो।  एक पल भी कुर्सी के किनारे से हट नहीं पाएं।  तो इसे क्या कहेंगे !!! यह फ़ास्ट एंड फ्यूरियस ७ का साँसे रोक देने वाला एक्शन है। भरी गाड़ियों की खतरनाक पहाड़ी मोड़ पर तेज़ रफ़्तार दौड़ है।  २००१ में शुरू फ़ास्ट एंड फ्यूरियस सीरीज की इस सातवी फिल्म में पहले वाली छह फिल्मों से अधिक रफ़्तार है और हैरतअंगेज एक्शन है।  इन एक्शन के लिए विन डीजल, पॉल वॉकर, ड्वेन जॉनसन, मिशेल रॉड्रिगुएज़, जोर्डाना ब्रूस्टर, टायर्स गिब्सन, लुडक्रिस, लुकास ब्लैक और जैसन स्टेथम से अच्छा चुनाव और कोई नहीं हो सकता था।  विन डीजल, पॉल वॉकर, दवाएं जॉनसन और मिशेल रॉड्रिगुएज़ तथा जैसन स्टेथम अपने एक्शन दृश्यों से दर्शकों को दहलाते हैं। वहीँ धुंआधार खतरनाक एक्शन के बीच बढ़िया कॉमेडी के सीक्वेंस भी हैं। टायर्स गिब्सन और लुडक्रिस की जोड़ी इसे बखूबी अंजाम देता है। खतरनाक चेस सेक्वेन्सेस और एक्शन से सहमा दर्शक हँसते हँसते लोटपोट हो जाता है और रिलीफ महसूस  करता है।  पॉल वॉकर और जोर्डाना ब्रूस्टर तथा विन डीजल और मिशेल रॉड्रिगुएज़ की रोमांटिक जोड़ियां फिल्मों को खालिस एक्शन फिल्म होने से बचाती है।  
डॉमिनिक टोरेंटो और ब्रायन ओ'कोनर और उनके साथी खतरों का काम छोड़ कर अपनी अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हो गए हैं।  लेकिन, डेकार्ड शॉ इन लोगों से अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहता है।  वह उनके साथी हान को मार देता है।  जब टोरेंटो और उसके साथियों को इसका पता चलता है तो वह शॉ को ख़त्म करने निकल पड़ते हैं।  इसी के साथ शुरू होता है फ़ास्ट एंड फ्यूरियस की खतरनाक सफर।
'फ़ास्ट एंड फ्यूरियस ७' के अंग्रेजी संस्करण के अलावा हिंदी, तमिल, तेलुगु और बांगला संस्करण भी रिलीज़ किये जा रहे हैं।  स्तरीय डबिंग के कारण फिल्म का प्रभाव बरकरार रहता है। इंडियन बॉक्स ऑफिस के अब तक के जो समाचार हैं, उसके अनुसार 'फ़ास्ट एंड फ्यूरियस ७' हॉलीवुड की सबसे अधिक बॉक्स ऑफिस कलेक्शन करने वाली फिल्म तो बनने जा ही रही है, यह २०१५ का हिंदी फिल्मों में बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का रिकॉर्ड भी तोड़ने जा रही है।  वैसे 'फ़ास्ट एंड फ्यूरियस सीरीज के भारत के प्रशंसकों के लिए खुशखबरी ! 'फ़ास्ट एंड फ्यूरियस ७' सीरीज की आखिरी फिल्म नहीं। इस फिल्म के तीन हिस्से और भी देखने को मिलेंगे।  'फ़ास्ट एंड फ्यूरियस ७' के आखिरी दृश्य, जिसमे शॉ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता है, इसका संकेत भी मिलता है।
तो देर क्या है आप भी देख आइये न हॉलीवुड का हैरतअंगेज कारनामा -'फ़ास्ट एंड फ्यूरियस ७'
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Monday 26 January 2015

दर्शकों को थ्रिलिंग मज़ा देगा अक्षय कुमार का 'बेबी'


अक्षय कुमार ने 'बेबी' फिल्म की रिलीज़ से पहले ही कह दिया था कि यह फिल्म पाकिस्तान के विरुद्ध नहीं है।  इसके बावजूद 'पीके' को हाथों हाथ लेने वाले पाकिस्तान ने 'बेबी' को अपने देश में रिलीज़ नहीं होने दिया।  'बेबी' में पाकिस्तान का नाम नहीं लिया गया है।  लेकिन, सन्देश साफ़ है।  सीमा पार से बड़े आतंकवादी संगठन भारत पर निगाहें गड़ाए हुए हैं। भारत के शासक ज़ुबानी जमा खर्च करने के अलावा कुछ नहीं कर रहे।  ऐसे में, जबकि फिल्म में हफ़ीज़ सईद की दाढ़ी वाला आतंकवादी 'बेबी' में दिखाया गया है, पाकिस्तान फिल्म को कैसे  होने दे सकता था। अक्षय कुमार की गणतंत्र दिवस वीकेंड में रिलीज़ हुई फिल्म 'बेबी' एक अच्छी देशभक्तिपूर्ण थ्रिलर फिल्म है।  अजय सिंह राजपूत और उसकी टीम बेबी विदेश में भारत पर घात लगा कर बैठे आतंकवादियों का सफाया करती रहती है।  वह इन आतंकियों को विदेश में घुस कर मारने में कोताही नहीं बरतती।  फिल्म इस मायने में बड़ी अच्छी है कि यह फिल्म अंडरकवर एजेंट की स्थिति, राज नेताओं का दोगलापन और मंत्रालयों के स्टाफ में शहीदों के प्रति अवमानना दर्शाती है। नीरज पाण्डेय ने अपनी थ्रिलर फिल्म का एक एक फ्रेम बहुत खूब लिखा और फिल्माया है।  'बेबी' १५९ मिनट लम्बी है, लेकिन एक सेकंड को भी भटकती नहीं।  दर्शकों में अगले फ्रेम  को देखने की उत्सुकता बनी रहती है। फिल्म की शूटिंग काठमांडो, अबु धाबी और इस्तांबुल में होने के कारण फिल्म में वास्तविकता बनी रहती है। मुंबई में एक आतंकवादीयों  के मददगार और मुसलमानों के नेता को उसके मोहल्ले में घेरने वाला दृश्य थ्रिल पैदा करता है।  नीरज पाण्डेय ने अक्षय कुमार  के करैक्टर के ज़रिये फिल्म को विवादित होने से बचा लिया है।  मौलाना रशीद रहमान की अपने समर्थकों के सामने तकरीर का दृश्य भी बढ़िया बना है।  रहमान को अबु धाबी से भारत लाने का सीक्वेंस रोमांचक है। गृह मंत्री के पीए के मुंह पर अक्षय का तमाचा तालियां बटोर ले जाता है।
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'बेबी' नीरज पाण्डेय और अक्षय कुमार की जोड़ी की है।  नीरज पाण्डेय ने अक्षय कुमार के चरित्र को ख़ास तरजीह दी है। अक्षय कुमार कहीं से भी बॉलीवुड  के सुपर स्टार नहीं लगते।  जहाँ अन्य बॉलीवुड सितारों की फ़िल्में उनकी मैंनेरिस्म पर भरोसा करती हैं, अक्षय कुमार की फ़िल्में उनके चरित्र पर भरोसा करती हैं।  स्पेशल २६ और अब बेबी में अक्षय कुमार यह साबित करते हैं कि अगर कंटेंट चाहिए तो अक्षय  कुमार की फिल्म देखों।  बेबी में अक्षय कुमार के अलावा डैनी डैंग्जोप्पा का फ़िरोज़ अली खान का चरित्र लेखक की चतुराई दर्शाने वाला है।  इस चरित्र के कारण ही नीरज पाण्डेय को मुसलमानों को पाक साफ़ बताने के लिए नाहक भाषणबाज़ी नहीं करनी पड़ी ? डैनी ने फ़िरोज़ के करैक्टर को सहजता से किया है।  फिल्म में अनुपम खेर कुछ ख़ास करते नज़र नहीं आते।  फिल्म में राणा डग्गुबाती और तापसी पन्नू के चरित्र साउथ की ऑडियंस को आकर्षित करने के लिए क्रिएट किये गए लगते हैं। पाकिस्तान के मिकाल ज़ुल्फ़िकार और रशीद नाज़ अपने अपने करैक्टर के साथ न्याय करते हैं। मधुरिमा तुली के लिए बेबी एक मौका थी, जिसे उन्होंने जाने नहीं दिया।  केके मेनन और सुशांत सिंह कुछ ख़ास नहीं।

फिल्म में नाच गीत नहीं रख  कर,रफ़्तार को रुकने नहीं दिया गया है। सुदीप चटर्जी का कैमरा लॉन्ग शॉट और क्लोज अप शॉट के ज़रिये दृश्यों पर पकड़ बनाये रखता है। श्री नारायण सिंह की कैंची का कमाल ही है कि १५९ मिनट की फिल्म भी पकड़ बनाये रखती है।  विक्की सिडाना ने चरित्रों के अनुरूप कलाकारों को चुना है।  विज़ुअल इफेक्ट्स और साउंड इफेक्ट्स का इस फिल्म में ख़ास महत्त्व था।  इस लिए इस डिपार्टमेंट की पूरी टीम बधाई के काबिल है। स्टंट्स में अब्बास अली मुग़ल का ह्यूगो बरिल्लेर और सायरिल रफ्फैल्ली ने बढ़िया साथ दिया है।
तो गणतंत्र दिवस है.… झंडा फहराईये और फिर निकल जाइये निकट के सिनेमाघर में बेबी देखने।
 
 

Saturday 20 December 2014

हिरानी का 'पीके' पी के आया सौ ग्राम जी !


हिरानी की 'पीके' में अनुष्का शर्मा बिना पिए बेल्जियम में रहती है।  अमिताभ बच्चन के पप्पा जी की कविताओं की शौक़ीन है। ;एक ऑडिटोरियम में पप्पा की कविता और बच्चा की विनम्रता का प्रदर्शन हो रहा था।   पाकिस्तानी मुस्लमान सुशांत सिंह राजपूत अमिताभ बच्चन का फैनवा था. संयोगवश दोनों आ गए उसी थिएटर में. दोनों निकम्मे पैसे से तंग और चरित्र से लुच्चे थे. एक सौ रूबल का टिकट नहीं खरीद पाये तो लुच्चई पर उतर आये. हिन्दू लड़की चरित्र की ढीली। दूसरी मुलाक़ात में चुम्बन बाजी छोडो बिस्तर बाजी में उतर आयी. (बॉलीवुड की हिन्दू लड़कियां ऐसे ही चरित्र की दिखाई जाती हैं. विश्वास न हो तो करण जौहरवे से पूछ लो) वह फेसटाइम पर घर में बताती है। माँ बाप गुरु जी से पूछते हैं। गुरूजी कहते हैं, वह मुस्लमान है, धोखा देगा।  अनुष्का सुशांत से शादी करने के लिए कहती है।  तैयार हो जाता है।  हिन्दू लड़की  और मुस्लमान लड़का शादी करने के लिए चर्च जाते है. एक ईसाई जोड़ी की महिला जोड़ीदार अपनी बिल्ली हिन्दू लड़की को पकड़ा देती है. थोड़ी देर में हिन्दू लड़की के हाथों में एक पत्र आता है।  जिसमे लिखा है कि  वह शादी नहीं कर सकता।  लड़की, बिना कुछ शोर  शराब करे, सती नारी की तरह इंडिया वापस आ जाती है।  जबकि उसे मालूम है कि  वह लड़का पाकिस्तान दूतावास में काम करता है तथा वह बिस्तरबाज़ी करने लडके के घर तक गयी थी।
बेल्जियम से पहले, भारत के राजस्थान में १०० ग्राम पिए एक एलियन आता है।  एक चोर उसका रिमोटवा छीन ले जाता है। पीके उसका ट्रांजिस्टर छीन लेता है, ताकि अपना निचवाड़ा ढक सके।
अब होता यह है कि  पियक्कड़वा भी दिल्ली आ जाता है।  जहाँ, उसे अनुष्का शर्मा मिलती है।  जिसे वह आई लव यू लिखता है. अपने रिमोटवा की तलाश में वह गॉड के घर घूमता है।  उसे हिन्दू गॉड से ख़ास खुंदक है.  कयोंकि, बाकी गॉड से उसकी खुद फट जाती है (बेशक हिरानी की ) चलिए इस १५३ मिनट की फिल्म का मर्म यो समझते हैं कि  उस पीकेवे को गॉड के मठाधीशों का रिमोटवा गलत लगा लगता  है।  वह हिन्दू बाबा को टीवी पर शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारता है।  मुल्ला और फादर को ललकारता तो वह उसके पिछवाड़े मूली डाल  कर बिना शादी के फादर बना डालते।
शाश्त्राथ में पेंच आता है।  पेंच  लाता है पीके।  उस पीके की खासियत है कि  वह किसी का हाथ पकड़ कर उसके मन की बात जान लेता है।  बाबा उससे पूछता है कि  मंदिर आदमी को सहारा देते हैं, नहीं तो सब निराश हो कर आत्महत्या कर लें।  इसमे गलत क्या है। 
अब १०० ग्राम पीके क्लाइमेक्स लाता है।  वह बताता है कि  बाबा जी आपने अनुष्का शर्मा का मुस्लमान प्रेमी छुड़वा दिया. बाबा कहता है कि  वह धोखेबाज़। था  पियक्कड़ कहता है कि  वह धोखेबाज़ नहीं था।  लड़की ईसाई जोड़ीदार की चिट्ठी पढ़ कर गलतफेमिली में आ गयी थी।  (समझ में नहीं आया बेल्जियम वाला चमत्कार उस एलियन ने कैसे पकड़ लिया, जो अपना रिमोट ढूंढने के लिए शहर शहर भटक रहा था) लड़का पाकिस्तान में आज भी उसका इंतज़ार कर रहा है।
बहरहाल, बात राजकुमार हिरानी जी से।  भाई आप ने यह क्यों नहीं साबित किया कि धर्म किसी को निराशा से नहीं बचाता। क्योंकि, बाबा ने कहा था कि हम ढोंग से ही सही, युवाओं को निराशा से बचाते हैं. क्या यह सही नहीं है ? क्या आपकी  इंडस्ट्री के लोग मस्जिद, मंदिर और दरगाह में अपनी फिल्मों को हिट बनाने की प्रार्थना करने नहीं जाते ! सुशांत सिंह वाला एपिसोड तो आप अपनी सुविधा के लिए एंड में ले आये। धर्म के मठाधीशों की पोल तो आपसे ज़्यादा सही ढंग से ओह माय गॉड में खोली गयी थी।  आप तो केवल कॉमेडी मारने के चक्कर में लगे रहे। आपने एक ऐसा मुस्लमान एक्टर लिया था, जो एक हिन्दू लड़की को तलाक़ और दूसरी हिन्दू लड़की से शादी कर चुका था, उसकी मौजूदगी में मुल्लाओं के आतंकवाद फैलाने की तकरीरों को क्यों नहीं उठाया।  क्या आप नहीं जानते कि  मुस्लिमों में ज़हालियार्त बहुत ज़्यादा है।  या आपकी फट गई थी!!!


Saturday 6 December 2014

फुल 2 फुल टॉस एंटरटेनिंग मसाला फिल्म है 'एक्शन जैक्सन'

अगर आप एक्शन जैक्सन देख रहे हैं तो यह फिल्म आपको पसंद आएगी, बशर्ते कि  आप मीन मेख निकालने वाले न हो।  इस शैली की फिल्मों में कुछ ढूंढना आसान होता है।  ढेरों कमियां होती हैं. लेकिन, मनोरंजन भरपूर है।  फिल्म में अजय देवगन की दोहरी भूमिकाएं ( विषि और जय यानि एक्शन जैक्सन) हैं, उनका एक अच्छा दोस्त मूसा (कुणाल रॉय कपूर) है, दो दो अजय देवगन पर मर मिटने वाली तीन हीरोइनें ख़ुशी (सोनाक्षी सिन्हा), अनुषा (यामी गौतम) और अर्ध नग्न- खूंरेज वैम्प मरीना (मनस्वी ममगाई) हैं, पत्थर की एक आँख वाला गंजा विलन ज़ेवियर (आनंदराज) भी है। एस रवि वर्मन का खूब ज़बरदस्त एक्शन है।  हिमेश रेशमियां ने नाच कूद वाली धुनें तैयार की हैं, जिन पर सभी कलाकार प्रभुदेवा, विष्णुदेव, वीजे शेखर और यू जोगशेखर के स्टेप्स पर खूब थिरके हैं।  कहने का मतलब यह कि निर्देशक प्रभुदेवा की कल्पनाशीलता और चुस्त पटकथा ने फिल्म को अजब गज़ब माहौल में ढाल दिया है।  लगता है जैसे हॉलीवुड की किसी फिल्म को देख रहे हों । एक्शन जैक्सन को देखना अनोखा- अनूठा अनुभव साबित होता है।  प्रभुदेवा की खासियत है कि  उनकी कहानी चाहे कितनी भी साधारण क्यों न हो, उनका कुशल संयोजन और घटनाओं की तेज़ रफ़्तार दर्शकों को कहानी के बारे में सोचने नहीं देती।  प्रभुदेवा ने हर कलाकार को बढ़िया मौका दिया है, उन्हें बड़े सितारों के सामने भी उभर कर आने दिया है।  तभी तो सोनाक्षी सिन्हा और यामी गौतम के सामने मनस्वी ममगाई दबने नहीं पातीं। इंस्पेक्टर शिर्के की भूमिका में पुरू राजकुमार दमदार लगे हैं। फिल्म की कथा पटकथा ए सी मुघिल के साथ शिराज और प्रभुदेवा ने लिखी है। शिराज के संवाद कहानी और चरित्रों के अनुरूप हैं। विजय कुमार अरोरा का कैमरा एक्शन को ज़बरदस्त थ्रिल से भर देता है।  एडिटर बंटी नागी ने फिल्म की रफ़्तार चुस्त रखी है। फिल्म की ज़्यादा शूटिंग मुंबई में और विदेश में बैंकाक में हुई है। गोवर्धन पी तनवानी और सुनील लुल्ला की फिल्म एक्शन जैक्सन दिसंबर की पहली सुपर हिट फिल्म साबित होने जा रही है।

Saturday 29 November 2014

खराब लेखन से 'उंगली ' करने की 'ज़िद'

इस शुक्रवार रिलीज़ दो फ़िल्में अच्छे सब्जेक्ट के 'उंगली' करने की बॉलीवुड फिल्म  निर्माताओं की 'ज़िद' के लिए जानी जाएंगी।  करण  जौहर के बैनर की फिल्म 'उंगली ' एक ऐसे उंगली गिरोह की कहानी है, जो यह सोचता है कि  जब सीधी उंगली से या टेढ़ी उंगली  से घी न निकले तो बीच का रास्ता निकालना पड़ता है।  चार युवाओ- एक लड़की और तीन लड़कों का यह गिरोह भ्रष्टाचार और शोषण के खिलाफ जंग छेड़े हुए है।  अब होता यह है कि  यह नेताओं और पुलिस वालों पर ही हाथ डाल  देते हैं।  तब इस गैंग को पकड़ने के लिए दो पुलिस अधिकारीयों को लगाया जाता है, जो उन्ही की तरह से काम करते हैं।  निर्माता अनुभव सिन्हा की फिल्म 'ज़िद' सस्पेंस थ्रिलर है।  एक पत्रकार गोवा में एक वीरान में स्थित मकान मे रहने आता है।  इस मकान में एक लड़की और उसका बीमार पिता रहता है।  लडके का अपनी प्रेमिका से सम्बन्ध टूट गया है।  मकान की लड़की लडके को प्रेम करने लगती है।  लड़का उसे सिर्फ दोस्त मानता है।  इसके बाद क़त्ल की वारदातें शुरू हो जाती हैं।  'उंगली ' और 'ज़िद' का विषय खास अच्छा और दर्शकों को अपील करने वाला था।  परन्तु, यह दोनों फ़िल्में ख़राब लेखन और अभिनय का शिकार हो गयीं। दोनों फिल्मों  की ख़ास बात यह है कि इन्हे लिखने में इनके निर्देशकों ने सहयोग दिया है।  फिल्म ज़िद का लेखन रोहित मल्होत्रा के 
साथ विवेक अग्निहोत्री ने किया है।  ऊँगली का लेखन मिलाप जावेरी के साथ रेंसिल डिसूज़ा ने किया है।  यह दोनों फ़िल्में घिसे पिटे घटनाक्रम के साथ आगे घिसटती चलती हैं। उंगली  की लीक तो इतनी पिटी हुई है कि  दर्शक झल्ला कर अपने ही उंगली  करने लगता है कि  आखिर वह इस फिल्म को देखने ही क्यों आया ? उंगली  में इमरान हाश्मी आकर्षण थे।  पर फिल्म में उनके करने लिए लिए कुछ नहीं था।  फिल्म में उन्होंने जो किया, उसके लिए उनका प्रशंसक दर्शक उन्हें नहीं पहचानता।  कंगना रनौत इस फिल्म में क्या कर रही थीं ? वह स्क्रिप्ट लेखन की ट्रेनिंग ले चुकी हैं।  उनकी फिल्म चुनने की क्षमता पर तरस आता है।  फिल्म में रणदीप हुडा, संजय दत्त, नील भूपलम, अंगद बेदी और नेहा धूपिया भी दर्शकों के उंगली करते नज़र आ रहे थे।  ज़िद भी एक्टर्स की उंगली करने की ज़िद का शिकार हुई।  इस फिल्म के लिए ज़ोर शोर से प्रचार किया गया था कि  ज़िद प्रियंका चोपड़ा की एक और बहन बार्बी हांडा उर्फ़ मन्नारा हांडा डेब्यू कर रही हैं।  इसमे कोई शक नहीं कि  खराब एक्टिंग के मामले में वह अपनी दीदी का नाम डुबो कर ही मानेंगी।  उन्हें अभिनय का मतलब अपनी बड़ी छातियाँ दिखाना ही लगता है।  करणवीर शर्मा के  चेहरे  के हाव भावों से एक्टिंग न कर पाने का दर्द झलकता रहता है।  दक्षिण की अभिनेत्री श्रद्धा दास ने कामुक अंग प्रदर्शन में मन्नारा को ज़बरदस्त टक्कर दी है।  मगर, उन्हें इसका कोई फायदा नहीं होने जा रहा।  फिल्म ऊँगली में संगीत के क्षेत्र में चार संगीतकारों सलीम-सुलैमान, सचिन-जिगर, गुलराज सिंह और असलम केई ने ऊँगली की है।  मगर , वह दर्शकों का दर्द बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं कर पाये।  ज़िद में शारिब-तोषी की संगीतकार जोड़ी का ठीक ठाक काम भी बर्बाद हो गया है।
करण  जौहर और अनुभव सिन्हा सफल फिल्म निर्माता और निर्देशक हैं।  इनकी फ़िल्में अच्छी स्क्रिप्ट की गवाह हैं।  समझ में नहीं आता कि  यह दोनों चूक कैसे गए।  वैसे करण   जौहर ने ऊँगली के  प्रचार से किनारा कर अपनी नाराज़गी दर्ज करा दी थी।
ज़िद में मन्नारा और उंगली  मे कंगना रनौत के  किरदार का नाम माया है।  लेकिन, लगता नहीं कि  नाम के अनुरूप फिल्मों को माया नसीब होगी।  


Just one film old Kriti Sanon, has won the race to star opposite Akshay Kumar in Prabhu Deva’s ‘Singh is Bling’.

Actresses like Katrina Kaif and Kareena Kapoor Khan were considered for the role. But, finally the makers have zeroed in Kriti Sanon for the role.

Kriti made her debut this year with the film ‘Heropanti’ and it is a big deal that the actress has left behind senior actresses like Katrina and Kareena.

Well, it will be interesting to watch Akshay Kumar romancing the much younger actress Kriti Sanon.
- See more at: http://www.calgaryindians.com/news/23230-heropanti-girl-kriti-beats-katrina-kareena.aspx#sthash.Gmb0odrs.dpuf
Just one film old Kriti Sanon, has won the race to star opposite Akshay Kumar in Prabhu Deva’s ‘Singh is Bling’.

Actresses like Katrina Kaif and Kareena Kapoor Khan were considered for the role. But, finally the makers have zeroed in Kriti Sanon for the role.

Kriti made her debut this year with the film ‘Heropanti’ and it is a big deal that the actress has left behind senior actresses like Katrina and Kareena.

Well, it will be interesting to watch Akshay Kumar romancing the much younger actress Kriti Sanon.
- See more at: http://www.calgaryindians.com/news/23230-heropanti-girl-kriti-beats-katrina-kareena.aspx#sthash.Gmb0odrs.dpuf

Saturday 15 November 2014

किल करती दिल लेती फिर खुद को किल कर लेती किल/दिल

गोविंदा, रणवीर सिंह, अली ज़फर और परिणीति चोपड़ा की फिल्म किल/दिल के लेखक के तौर पर तीन नाम नितेश तिवारी, श्रेयस जैन और निखिल मेहरोत्रा नज़र आते हैं। पर इनके जिम्मे पटकथा और संवाद ही हैं।  कहानी लेखक के रूप में किसी का नाम नहीं है, न ही फिल्म में  कोई कहानी है।  जो कहानी है वह कई बार कही जा चुकी है। इसी बैनर की इस साल के शुरू में  रिलीज़ फिल्म गुंडे की कहानी भी बचपन  से अपराध में लिप्त दो दोस्तों की थी।  देसी कट्टे की कहानी भी बिलकुल किल/दिल वाली थी। किल/दिल इंटरवल से पहले तक देव और टूटू की कहानी है, जिन्हे एक गुंडा भैयाजी कचरे से उठा कर लाता है, पाल पोस कर बड़ा करता है, पर पढ़ाता लिखाता नहीं, बन्दूक चलाना और सुपाड़ी लेकर लोगों को मारना सिखाता है। देव रणवीर सिंह बने हैं और टूटू अली ज़ाफर।  देव को एक लड़की से प्यार हो जाता है. उस लड़की से प्यार के बाद वह बन्दूक छोड़ देता है।  इस समय तक कहानी संवादों के सहारे ज़ोरदार ढंग से चलती है।  इंटरवल के बाद ! इंटरवल की कहानी तो खुद  निर्माता आदित्य चोपड़ा और निर्देशक शाद  अली को तक नहीं मालूम रही होगी. तभी, फिल्म क्लाइमेक्स पर बुरी तरह से बिखर जाती है. शाद अली तय नहीं कर पाये कि  फिल्म को कहाँ ख़त्म करे।  इस प्रकार की फिल्मों के के खतरे यही होते हैं।  इसीलिए शाद  पूरे बचकाने ढंग से एक सुपाड़ी के हाथों गोविंदा के करैक्टर को मरवा कर फिल्म ख़त्म कर देते हैं. कहा जा सकता है कि  आदित्य और शाद  की जोड़ी इंटरवल इंटरवल तक के किये कराये पर फ्लश चला देते हैं।
फिल्म के संवाद पंच वाले हैं।  इन पर रणवीर सिंह और अली ज़फर की जोड़ी ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया है।  दोनों की जोड़ी ज़मी भी खूब. गोविंदा बता जाते हैं कि खल अभिनय क्या होता है। वह अकेले ही अली और रणवीर की जोड़ी पर छा जाते हैं। परिणीति चोपड़ा की एक इमेज बन चुकी है।  उनके रोल टेलर मेड होते हैं।  इसी बल पर वह हिट फ़िल्में भी देख चुकी हैं।  पर अब वह उबाने की हद पर पहुँच चुकी हैं. हालाँकि, फिल्म में उनका काम बढ़िया है।  संवादों के अलावा फिल्म का बढ़िया पक्ष शंकर एहसान लॉय का  फिल्म के अनुरूप संगीत और उससे कहीं बहुत अर्थपूर्ण गुलज़ार के बोल हैं। इस फिल्म में गणेश  अचार्य  ने तमाम गीतों को इस तरह से फिल्माया है कि  कहानी को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं ।








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Saturday 8 November 2014

अक्षय कुमार को डुबोने वाली फिल्म 'द शौक़ीनस' !

तीन दिनों में ४०००+ प्रिंट रिलीज़ कर १०० करोड़ कमाने वाले खानों की इस भीड़ में अक्षय कुमार ही एक ऐसा नाम है, जिनकी फिल्मों से दर्शक कुछ अलग और मनोरंजक फिल्म की उम्मीद करते हैं।  अश्विन वर्डे, मुराद खेतानी, अक्षय कुमार की अभिषेक शर्मा  निर्देशित फिल्म 'द  शौक़ीनस' पूरी तरह से निराश करती है।  द  शौक़ीनस १९८२ में रिलीज़ बासु चटर्जी की फिल्म शौक़ीन का  रीमेक है।  पकी पकाई कहानी होने के बावजूद लेखक और संवाद लेखक तिग्मांशु धूलिया कुछ मनोरंजक पेश नहीं कर पाये। उनकी  स्क्रिप्ट में झोल ही झोल हैं।  सब कुछ ऐसे चलता है जैसे बच्चों का खेल।  पूर्वार्ध में पियूष मिश्रा, अन्नू कपूर और अनुपम खेर के चरित्रों का परिचय कराते और उन्हें विकसित करने वाले दृश्य हैं।  लेकिन इनमे कोई कल्पनाशीलता नहीं है. अविश्वसनीय और अनगढ़ दृश्यों की भरमार है।  संवाद बहुत  घिसे पिटे हैं।  ऐसे चरित्रों के मुंह से ऐसे ही संवाद बुलाये जाते हैं।
फिल्म की कहानी तीन शौकीनों की हैं,  जो किसी न किसी कारण से सेक्स को लेकर असंतुष्ट हैं।  इसलिए वह अपनी सेक्सुअल संतुष्टि के लिए अपनी  आँखें सेंकने से  लेकर कर लड़कियों को छूने तक का असफल प्रयास करते हैं और बेइज़्ज़त होते हैं।  फिर वह बैंकॉक जाकर अपनी इच्छा पूरी करने की कोशिश करते हैं।   लेकिन, घर में विरोध के कारण वहां नहीं जा पाते।  फिर वह मॉरीशस जाते हैं।  वहां उनकी मुलाकात अक्षय  कुमार की दीवानी लड़की से होती है।  वह उसे अक्षय कुमार से मिलाने का जतन  करते हैं, ताकि उसकी निकटता पा सकें। बड़े अविश्वसनीय घटनाक्रम होते हैं मॉरीशस में।  अजीब लगता हैं फिल्म में खुद की भूमिका कर रहे अक्षय कुमार का प्रेस कॉन्फ्रेरेन्स में पहले तीनों शौक़ीनस और उस लड़की को बेइज़्ज़त करना, फिर दुबारा  उनकी सफाई देने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करना।  यही कारण है कि जब फिल्म ख़त्म होती है तब दर्शक खुद को तीनों शौकीनों की तरह  असंतुष्ट महसूस करता है।
फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं जिसका ज़िक्र किया जाए, सिवाय अभिनय के।  अक्षय कुमार तो साधारण रहे हैं। शौक़ीनस तिकड़ी में पियूष मिश्रा और अन्नू कपूर का अभिनय बढ़िया है. अन्नू कपूर तो दर्शकों की खूब तालियां बटोरते हैं, जबकि पियूष मिश्रा दर्शकों की प्रशंसा के हक़दार  बनते हैं।  न जाने क्या बात थी कि  अनुपम खेर इन दोनों के सामने मुरझाये लगे।  लिसा हेडेन ने फिल्म क्वीन में जितना प्रभावित किया था, इस फिल्म उससे कई गुना ज़्यादा निराश करती हैं।  वह अपनी कमनीय काया का प्रदर्शन करती हैं, लेकिन कोई आकर्षण पैदा नहीं कर पातीं कि  दर्शक उनके इस अंग प्रदर्शन के लिए फिल्म देखने आये।
इस फिल्म को देख कर अक्षय कुमार के प्रशंसक भी निराश होंगे।




अभिनय से बदरंग रंग रसिया

अगर किसी फिल्म के साथ  बड़े नाम न जुड़े हों तो उस फिल्म को रिलीज़ में परेशानियां आती हैं, यह केतन मेहता की फिल्म 'रंग रसिया' के बारे में नहीं कहा जा सकता।  २००८ में पूरी हो चुकी रंग रसिया अपने कारणों से छह साल तक रिलीज़ नहीं हो सकी।  हालाँकि, विदेशी मेलों में इसे दिखाया गया।  परन्तु,  अब जबकि यह फिल्म रिलीज़ हो चुकी है, रणदीप हुडा और नंदना सेन जैसे नाम रंग रसिया के रंग को मंद कर रहे हैं। बतौर निर्देशक केतन मेहता ने एक मास्टरपीस बनाने की पूरी कोशिश की है।  वह महान पेंटर राजा रवि वर्मा के जीवन को पूरी सुंदरता और पवित्रता के साथ परदे पर पेश करते हैं।  उनकी ईमानदारी का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि  वह  रवि वर्मा और उनकी प्रेरणा सुगंधा के बीच के  रोमांस को कुछ इस  सुंदरता से पेश किया कि  नंदना सेन आवक्ष नग्न हो कर भी अश्लीलता और कामुकता की अनुभूति नहीं करा रही थी। केतन मेहता केवल इसी एक  दृश्य के लिए प्रशंसा के पात्र नहीं, वह राजा रवि वर्मा की पूरी कहानी को  ईमानदारी से एक एक विवरण देते प्रस्तुत करते हैं।  फिल्म को देखते हुए रवि वर्मा को न जानने वाले दर्शकों को भी उनके बारे में जानकारी हो जाती है।  वह अपने इस महान पेंटर के योगदान और कष्टों का अनुभव करता है।  इसमे केतन मेहता का साथ स्क्रिप्ट लिखने में संजीव दत्ता, संगीत के क्षेत्र में सन्देश शांडिल्य, कैमरा के पीछे राइल  रालत्चेव और क्रिस्टो बाक्लोव बखूबी देते हैं।  इन दोनों का कैमरा वर्क इस फिल्म को आकर्षक पेंटिंग की तरह पेश करता है।
फिल्म की कमी है इसके कलाकार।  ख़ास तौर पर मुख्य भूमिका में रणदीप हुडा और नंदना सेन अपने चरित्र के साथ न्याय नहीं कर पाते।  इन दोनों में न तो इतनी अभिनय प्रतिभा है और न ही व्यक्तित्व कि  इन चरित्रों को स्वाभाविक बना सकें।   परिणामस्वरूप, परेश रावल, दर्शन जरीवाला, सुहासिनी मुले, विक्रम गोखले, आदि सशक्त कलाकारों के बावजूद केतन मेहता की आकर्षिक पेंटिंग नहीं बन पाती।  वैसे जो लोग राजा रवि वर्मा को नहीं जानते हों, उनके बारे में जानना चाहते हों तो इस फिल्म को ज़रूर देखें।  बहुत कुछ जाएंगे. आपके दिलों में रवि वर्मा के प्रति सम्मान पैदा होगा। 
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Saturday 1 November 2014

'सुपर' तो नहीं ही है यह 'नानी'

इंद्र कुमार ने कभी दिल, बेटा, राजा, इश्क़, मन और रिश्ते जैसी मनोरंजक और परिवार से जुडी फिल्मों का निर्माण किया था।  यह फ़िल्में हिट हुई. सभी श्रेणी के दर्शकों द्वारा पसंद की गयी।  फिर वह मस्ती पर उतर  आये।  मस्ती जैसे सेक्स कॉमेडी बना डाली।  फिल्म हिट हो गयी तो प्यारे मोहन, धमाल, डबल धमाल और ग्रैंड मस्ती जैसी फ़िल्में बना डालीं।  इसके साथ ही परिवार उनका सरोकार  छूटता चला गया।  अब जबकि वह ग्रैंड मस्ती जैसी सौ करोडिया सेक्स कॉमेडी फिल्म के बाद सुपर  नानी से परदे पर रेखा को लेकर आये हैं तो लगता है जैसे वह फिल्म बनाना भूल गए हैं. उन्होंने रेखा जैसी बहुमुखी प्रतिभा वाली अभिनेत्री को नानी बनाया , लेकिन कहानी घिसी पिटी ले बैठे।  रेखा नानी बनी है, जिसका उसके घर में उसका पति और बच्चे अपमान और उपेक्षा करते हैं।  तभी आता है नाती शरमन जोशी।  वह यह सब देख कर अपनी नानी को सुपर नानी बनाने की कोशिश करता है।
जब तक रेखा नानी होती हैं, आकर्षित करती हैं. वह बेहतरीन अभिनय करती थीं , कर सकती हैं और आगे भी  लेंगी, फिल्म से साबित करती हैं।  लेकिन, जैसे ही वह सुपर नानी का चोला पहनती हैं, बिलकुल बेजान हो जाती हैं. यह इंद्र कुमार की असफलता है कि  वह पूरी फिल्म में रेखा की उपयोगिता नहीं कर सके।  इंद्र कुमार का रेखा को मॉडल बना कर सुपर नानी बनाने का विचार ही, अस्वाभाविक है।  वह किसी दूसरे एंगल से रेखा को सुपर नानी साबित कर सकते थे।  जैसे वह फिल्म में रेखा के बेटे से उधार लेनी आये गुंडे खुद के लिए रेखा की ममता देख कर वापस चले जाते  हैं.
फिल्म को इंद्र कुमार के लिए नहीं रेखा और शरमन जोशी की जोड़ी के कारण देखा जा सकता है।  यह जोड़ी जब भी परदे  पर आती  है,  छा  जाती है।  शरमन जोशी बेहद सजीव अभिनय करते हैं।  पता नहीं क्यों फिल्मकार उनका उपयोग घटिया कॉमेडी करवाने के लिए ही क्यों करते हैं।  इंद्र कुमार की बिटिया श्वेता के 'इंद्र कुमार की बिटिया' टैग से उबरने की जुगत फिल्म में नज़र नहीं आती।  रणधीर कपूर को न पहले एक्टिंग आती थी, न इस फिल्म में वह कुछ कर पाये हैं।  अनुपम खेर ने यह फिल्म निश्चित ही पैसों के लिए ही की होगी।  बाकी, दूसरों को जिक्र करने से कोई फायदा नहीं है।

बॉक्स ऑफिस पर 'रोर' टाइगर्स ऑफ़ द सुंदरबन्स



विक्टोरिया नंबर २०३, चोरी मेरा काम, यह रात फिर न आएगी, प्रोफ़ेसर प्यारेलाल, जैसे फिल्मों के निर्देशक ब्रिज  सडाना और पुरानी स्टंट फिल्मों की नायिका सईदा  खान के बेटे कमल सडाना ने लम्बे समय तक अजय गोयल और सुखवंत ढड्डा का निर्देशक असिस्टेंट रहने के बाद  कमल ने फिल्म बेखुदी से काजोल के साथ फिल्म डेब्यू किया।  बेखुदी को बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की बेरुखी मिली। लेकिन, काजोल चल निकली, कमल सडाना पीछे रह गए।  उन्होंने रंग और बाली उम्र को सलाम जैसी फ्लॉप फ़िल्में करने के बाद अपने हीरो को सलाम कर दिया और कर्कश फिल्म का निर्देशन किया।  फिल्म ज़्यादातर फेस्टिवल्स में देखि जा सकी।  अपने पिता की फिल्म विक्टोरिया नंबर २०३ का रीमेक बनाने के बाद वह तकनीकी प्रक्षिक्षण के लिए विदेश चले गए।  उन्होंने स्पेशल  इफेक्ट्स में ख़ास तौर पर वीएफएक्स में, रूचि दिखलायी।  इसी का नतीजा है इस शुक्रवार रिलीज़ फिल्म रोर टाइगर्स ऑफ़ द  सुंदरबन्स।  कमल सडाना ने रोर को लिखा और निर्देशित किया है।  फिल्म के संवाद और पटकथा आनंद गोराडिया ने लिखी है। 
फिल्म की कहानी सिर्फ इतनी है कि पंडित का भाई सुंदरबन के जंगलों में वाइल्ड फोटोग्राफी करने आता है।  वह  जंगल में शिकारियों द्वारा लगाए गए ट्रैप से एक सफ़ेद शेर के बच्चे को बचा कर अपने कमरे में ले आता है।  फारेस्ट अफसर उस बच्चे को अपने साथ ले जाती है।  शेर के बच्चे के मुंह में लगे खून को जिस तौलिये से पोंछा जाता है, वह जंगल के कमरे में ही रखा है।  शेरनी उसे सूंघते हुए आती है और पंडित के भाई को मार डालती है। शेरनी से अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए पंडित अपने फौजी साथियों के साथ जंगल आता है।  वह फारेस्ट अफसर के मना करने बावजूद शेरनी को मारने के लिए जंगल में पानी के रास्ते घुसता है। फिर सब कैसे एक एक कर मारे जाते हैं? क्या पंडित शेरनी को मार पाता  है? क्या होता है यह जानना देखने के लिहाज से ज़बरदस्त है।  
हिमार्षा
फिल्म की कहानी बेकार है।  अगर, इस फिल्म की कहानी केवल जंगल की घटनाओं को लेकर बनायीं जाती तो कुछ बात बनती।  क्योंकि, शेरनी बदला लेने की थ्योरी तो पहली ही नज़र खारिज हो जाती है।  इसे रोमांचक घटनों से गूंथा जा सकता था।  स्क्रिप्ट और  स्क्रीन प्ले के द्वारा इसे बखूबी किया गया है।  वीएफएक्स के द्वारा ऐसे ऐसे रोमांचक दृश्य फिल्माएं गए हैं, जो अभूतपूर्व हैं।  सिनेमाघर में बैठे दर्शक जंगल का रोमांच महसूस करते हैं।  इस फिल्म की खासियत यह है कि  यह कहानी चलने के साथ साथ सुंदरबन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां भी देती जाती हैं।  जानवरों और साँपों के व्यवहार का भी दर्शकों से परिचय कराती जाती है। इन्ही सब कारणों से फिल्म रोर टाइगर्स ऑफ़ द  सुंदरबन्स ख़ास बन जाती है।  निर्देशन के लिहाज़ से कमल सडाना अच्छा काम कर ले जाते हैं। रोमांच फिल्मों में संगीत (बैक ग्राउंड) और  फोटोग्राफी का ख़ास महत्त्व होता है।  जॉन स्टीवर्ट और माइकल वाटसन इस क्षेत्र में अपना काम ज़बरदस्त करते हैं।  उनके कारण फिल्म साधारण से असाधारण बन जाती है।  कमल सडाना के साथ मुजम्मिल नासिर ने अपने संपादन से फिल्म को सुस्त नहीं पड़ने दिया है।  एक के बाद एक रोमांचक दृश्य दर्शकों को चौंकाते जाते है।  जब फिल्म ख़त्म होती है तो वह तालियां बजाने से खुद को रोक नहीं पाता।  यही कमल सडाना और उनके साथियों की सफलता है।
नोरा फतेही
फिल्म में पंडित की मुख्य भूमिका में टीवी एक्टर अभिनव शुक्ल है।  उनका काम अच्छा है।  सुब्रता दत्त को भीरा की खल  भूमिका दी है।  पर लिखते समय भीरा को ख़ास तवज़्ज़ो नहीं दी गयी है।  इसलिए वह उभरने नहीं पाते। फिल्म की तमाम स्टारकास्ट काम पहचानी या नयी है। आरन चौधरी ने सूफी, प्रणय दीक्षित ने मधु, वीरेंदर सिंह घूमन ने सीजे, अचिंत कौर ने फारेस्ट अफसर, पुलकित ने उदय और अली क़ुली ने हीरो की भूमिका की है।  यह सब अपनी भूमिकाओं के उपयुक्त है।  यहाँ  जिक्र करना होगा दो अभिनेत्रियों का।  सीजे की भूमिका में नोरा फतेही और झुम्पा की भूमिका में हिमर्षा फिल्म को ख़ास बनाती है।  हालाँकि, यह दोनों अभिनेत्रियां अभिनय के लिहाज़ से कमज़ोर हैं, लेकिन अपनी सेक्स अपील से दर्शकों को बहला ले जाती हैं।  नोरा फतेही तो एक्शन भी खूब करती हैं।  जंगल में शेरों  से बच कर भाग सीजे दर्शकों को तालियां बजाने  को मज़बूर कर देती हैं।  


अगर आप जंगल की वास्तविकता देखना चाहते हैं, जंगल और उसके प्राणियों को समझना चाहते हैं, अगर आप रोमांच के दीवाने हैं, तो रोर टाइगर्स ऑफ़ द  सुंदरबन्स आपके लिए ही बनी है।  ज़रूर देखिएगा।  कमल सडाना से आगे भी कुछ अच्छी फिल्मे देखने को मिल सकती हैं।   
































Friday 24 October 2014

इतना भी "हैप्पी (नहीं है) न्यू ईयर"

फराह खान से अच्छी फिल्म की उम्मीद करना बेकार है।  वह मनोरंजक फिल्म बनाने का दावा करती हैं। पर आज दीवाली के दूसरे दिन रिलीज़ उनकी शाहरुख़ खान, दीपिका पादुकोण,  अभिषेक बच्चन, सोनू सूद, बोमन ईरानी और विवान शाह की फिल्म हैप्पी न्यू  ईयर आखिर के चालीस मिनटों में ही मनोरंजन करती लगती है, जब घटनाएँ तेज़ी से घटती है, इमोशन के रंग और देश भक्ति का तिरंगा बुलंद होता है।  अन्यथा यह पूरी फिल्म इंटरवल से पहले तीस  मार खान के आस पास रहती है. बेहद सुस्त रफ़्तार से एक एक चरित्र का  परिचय देती है।  फिल्म शुरू होने के करीब एक घंटे बाद दीपिका पादुकोण 'मोहिनी मोहिनी' की पुकार के बीच अपने शरीर के तमाम विटामिन प्रदर्शित करती आती हैं।  वह फिल्म में बार डांसर बनी हैं, लेकिन, किसी बड़े नाईट क्लब जैसे माहौल में कैबरेनुमा डांस करती प्रकट होती है।
कहानी बस इतनी है कि  छह लूज़र्स यानि असफल वर्ल्ड डांस कम्पटीशन की आड़ में ३०० करोड़ के हीरे लूटने के  लिए दुबई के अटलांटिस द  पाम जाते हैं।  इन लोगों में चार्ली अपने पिता का बदला लेने के लिए यह डकैती डालना चाहता है।  इसमे चार्ली की मदद उसके पिता के मित्र और साथ काम करने वाले करते हैं।  बेहद बकवास सी फिल्म की कहानी को बचकाने तरीके से आगे बढ़ाती हैं फराह खान।  फिल्म में देखे जाने योग्य अगर कुछ है तो भव्यता।  फराह ने सेट्स पर जम  कर पैसा बहाया है।  यही सेट्स ही दर्शकों को आकर्षित करते हैं।  दुबई को होटल अटलांटिस द  पाम के खूबसूरत दृश्य इस होटल और फिल्म की खूबसूरती है।  पूरी फिल्म की शूटिंग और फिल्म का प्रीमियर भी इसी होटल में हुआ है।
कहानी की लिहाज़ से कूड़ा इस डकैती फिल्म में पुलिस फराह खान के निर्देशन की तरह नदारद रहती हैं।  हालाँकि, धूम ३ से अलग इस फिल्म में हीरो की चोरी करते दिखाया गया है। दर्शकों की इसमे दिलचस्पी रहती है।  फराह खान ने कई हिंदी फिल्मों, अपनी पहले की फिल्मों के दृश्यों और संवादों का सहारा लेकर मनोरंजन करने की  कोशिश की है। वह विशाल डडलानी  और अनुराग कश्यप के समलैंगिक जजों के चरित्रों के जरिये घटिया हास्य पैदा करने की असफल कोशिश करती हैं। इसके बावजूद फिल्म घिसटते हुए चलती है।  रफ़्तार दूसरे अर्ध में ही आती है, जब छह लूज़र्स डकैती डालने जाते हैं।  ख़ास तौर पर आखिर के चालीस मिनट में दर्शक खुद को अब तक की फिल्म से अलग माहौल में पाता है। इसी हिस्से में फिल्म मनोरंजक भी लगती है।
अभिनय के लिहाज़ से हर एक्टर लाउड अभिनय करता है ।  शाहरुख़ खान के हिस्से में जो इमोशनल सीन आये थे, वैसे सीन वह काफी कर चुके हैं।  यह पहली फिल्म है, जहाँ हॉलिडे क्राउड के बीच भी दीपिका पादुकोण बहुत कम तालियां और  सीटियां पाती हैं। वह अपना सब कुछ दिखा देने के बावजूद अपने लिए कुछ ख़ास नहीं जुटा पातीं। फिल्म की नवीनता यही है कि  पहली बार हीरो नहीं हीरोइन कहानी को मोड़ देती है। सोनू सूद ने खुद को बेकार कर दिया है।  चार्ली उन्हें उभरने नहीं देता।  अभिषेक बच्चन से अभिनय कराने की करामात  फराह कैसे दिखा सकती थीं।  सो नहीं  दिखा पायीं।  दोहरी भूमिका के बावजूद अभिषेक उभर नहीं पाते।  बोमन ईरानी लाउड थे, लाउड  हैं और लाउड रहेंगे।  विवान शाह को अपने पप्पा नसीरुद्दीन शाह और ममा रत्ना पाठक शाह से अभिनय के ककहरे सीखने चाहिए।
विशाल-शेखर का संगीत तेज़ धुनों वाला है. फिल्म में अच्छा लगता है।  हो सकता है कि दीपिका पादुकोण पर फिल्माया मनुआ लागे गीत कुछ दिनों तक लोगों की जुबान पर रहे।  मानुष नंदन की फोटोग्राफी बढ़िया है।  मयूर पूरी के संवाद ठीक ठाक हैं।  मादर…छोड़ न यार जैसे संवाद कई बार दोहराये गए हैं।  फिल्म की पटकथा एल्थिया कौशल के साथ फराह खान ने लिखी है।  ऐसा लगता है अटलांटिस पहुँच कर ही पटकथा लिखी गयी है. फिल्म के काफी दृश्य ओसन  ११ और सीरीज की याद ताज़ा कर देते हैं।
अगर आप तीन घंटा लम्बी इस फिल्म के शुरू के १३६ मिनट मिनट आखिर के ४० मिनटों की खातिर झेलना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपकी है।  लेकिन, यह तय है कि  खान की यह फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस के आसपास तक नहीं। हैप्पी  न्यू  ईयर को मैं हूँ न और ओम शांति ओम के बाद सबसे कमज़ोर और तीस मार खान के बात एक और बोर फिल्म कहना ठीक होगा। इसलिए दिवाली के बावजूद उतनी  सफल होने नहीं जा रही।  सोमवार से फिल्म में ज़बरदस्त ड्राप आएगा।

Friday 3 October 2014

मानसिक रूप से बीमार कश्मीर का हैदर !

विशाल भरद्वाज क्या क्या हैं, ज़रा गिनिये।  वह फिल्म निर्देशक है।  निर्माता भी हैं।  पहले वह संगीतकार और गीतकार हुआ करते थे।  गाने भी लगे।  फिल्म लिखना तो लाजिमी था. इतने सब गुणों के साथ हर साल एक फिल्म देना ज़रूरी हो जाता है। बतौर निर्माता वह जितनी फिल्मे बनाते हों, उन्हें समझना ऐरे गैरे नत्थू खैरे के बूते की बात नहीं।  ७ खून माफ़, मटरू  की बिजली का मंडोला और डेढ़ इश्क़िया ज़्यादातर के सर के ऊपर से निकल गयी।  यह फ़िल्में प्रियंका चोपड़ा, अनुष्का शर्मा, इमरान खान, माधुरी दीक्षित, आदि जैसी बड़ी स्टार कास्ट के बावजूद थोड़े दर्शक तक नहीं बटोर सकी।  इसी श्रंखला की एक कड़ी हैदर भी लगती है।  विशाल भरद्वाज  इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक और कंपोजर हैं ही, संवाद और पटकथा भी लिखी है। हैदर शेक्सपियर  के नाटक हैमलेट पर आधारित है।  हैदर के सभी मुख्य चरित्रों की रचना हैमलेट के किरदारों पर ही की गयी है. सिर्फ पृष्ठभूमि पर कश्मीर और आतंकवाद, सेना और नेताओ की मिलीभगत है। हैदर के हैदर यानि हैमलेट के प्रिंस हैमलेट शाहिद कपूर हैं।  उनकी माँ गज़ाला यानि गरट्रूड तब्बू बनी है।  किंग हैमलेट यानि हैदर के पिता डॉक्टर हिलाल मीर  नरेंद्र झा बने हैं।  हैमलेट की प्रेमिका ओफेलिआ यानि अर्शिया श्रद्धा कपूर हैं।  हैमलेट के घोस्ट आइडेंटिटी मैसेंजर के रूप को इरफ़ान खान ने रूहदार के नाम से किया है।  के के मेनन क्लॉडियस उर्फ़ खुर्रम हैं।  हैदर के पोलोनियस सेना के अधिकार ललित परिमू हैं।  कुछ अन्य चरित्र भी फिल्म के छोटे बड़े अंग हैं. विशाल भरद्वाज की फिल्म के किरदार चाहे हैमलेट से प्रेरित हों, लेकिन, हैदर को विशाल भरद्वाज द्वारा कश्मीर की पृष्ठभूमि पर फिल्म के बतौर देखना होगा।  विशाल ने कश्मीर की पृष्ठभूमि रखी है, तो ख़ास मक़सद होगा ही. कभी लगता है कि  वह आतंकवादी, आम कश्मीरी, कुटिल नेता और सेना के स्वार्थी अधिकारीयों के गठजोड़ को दिखाना चाहते होने कि  किस प्रकार कश्मीर का आवाम आतंकी-नेता-सेना गठजोड़ का शिकार हो रहा है।  कभी यह हैमलेट की तर्ज पर एक शाही यहाँ राजनीतिक परिवार के बीच का संघर्ष लगता है।  नतीजे के तौर पर हैदर चूं चूं का मुरब्बा बन जाती है।  विशाल भारद्वाज इतने ज़्यादा कलात्मक हो जाते हैं कि  दर्शक अपनी सीटों पर पहलू बदलने लगता है।  उन्होंने हर चरित्र को इतना जटिल बना दिया है कि  दर्शक उलझ जाता है और उसके पास उकताने के अलावा कुछ शेष नहीं रहता।  फिल्म में ढेरों प्रसंगो को एक में मिला दिया है।  क्या आतंकवादी स्वार्थी नेता खुर्रम को मारना चाहते हैं? क्या वह हैदर को आतंकवादी बनाना चाहते हैं? एक करैक्टर के द्वारा विशाल ने दिखाया है कि सेना के बार बार रोकने और तलाशी के कारण लोग मानसिक बीमार हो गए हैं? जबकि, हैदर के किरदार में ऐसे कोई लक्षण नज़र नहीं आते।  श्रद्धा कपूर का किरदार कश्मीरी होते हुए भी सामान्य है। नतीजे के तौर पर ऐसे सभी किरदार मिलकर हैदर को कमज़ोर कर देते हैं। विशाल फिल्म को हैमलेट की कहानी पर ओमकारा की तरह बनाते तो फिल्म प्रभावशाली बनती।  पर कश्मीर का लोभ उन्हें ले डूबा।  हैदर के किरदार में शाहिद कपूर, ग़ज़ल के किरदार में तब्बू और खुर्रम  के किरदार में केके मेनन प्रभावित करते हों। शाहिद के पिता की भूमिका में नरेंद्र झा छोटे रोल में भी दर्शकों को आकर्षित करते हैं।  अर्शिया के किरदार में श्रद्धा कपूर कमज़ोर रही. इरफ़ान खान अपना काम कर ले जाते हैं।
विशाल भरद्वाज हर क्षेत्र में कमज़ोर साबित होते हैं. यहाँ तक कि  संगीत भी प्रभावित नहीं करता।  एक दो दृश्यों को  छोड़ कर फिल्म बेहद साधारण बन पड़ी है।  














































एक्शन की बैंग बैंग !

बॉलीवुड की माने तो नक़ल में अक़ल की ज़रुरत नहीं होती. लेकिन, अभिनय करने में तो अक़ल  की ज़रुरत होती ही है।  सिद्धार्थ आनंद की फिल्म बैंग बैंग  इन दोनों कथ्यों को प्रमाणित करने वाली फिल्म है।  बताते चलें कि  बैंग  बैंग  हॉलीवुड की जेम्स मैनगोल्ड निर्देशित एक्शन कॉमेडी फिल्म नाइट एंड डे की ऑफिसियल रीमेक फिल्म है।  नाइट एंड डे में मुख्य भूमिका टॉम क्रूज और कैमरॉन  डियाज की थी. नाइट एंड डे को २०th सेंचुरी फॉक्स ने वितरित किया था. फॉक्स स्टार स्टुडिओ बैंग  बैंग  के निर्माता हैं।  चूँकि, बैंग बैंग ऑफिसियल नक़ल है, इसलिए अकल  की क्या ज़रुरत।  बैंग  बैंग  के तमाम एक्शन सींस हू -ब -हू  नाइट एंड डे की नक़ल हैं, तो बहुत बढ़िया और हैरतअंगेज बन पड़े हैं।  हिंदी दर्शकों के लिए, जो हॉलीवुड फ़िल्में नहीं देखते या जिन्होंने नाइट एंड डे नहीं देखी, बैंग  बैंग  के एक्शन सांस रोक देने वाले हैं।  इन दृश्यों को हॉलीवुड के एक्शन डायरेक्टर और स्टंट मेन  से करवाया गया है।  इसलिए, इनमे नयापन लगता भी है. सुनील पटेल और विकास शिवरामन के साथ हॉलीवुड के कैमरामैन बेन जेस्पर ने फिल्म की फोटोग्राफी की है. कैमरा स्टंट दृश्यों को बखूबी पकड़ता है, दर्शकों में रोमांच पैदा करता है। बेन जेस्पर पहली किसी फिल्म की फोटोग्राफी कर रहे हैं।  फिल्म के प्रभाव के लिहाज़ से बैकग्राउंड म्यूजिक महत्वपूर्ण होता है. बैंग  बैंग  में जस्टिन जोसे और ऋषि  ओबेरॉय इस काम को बढ़िया करते हैं।  विशाल- शेखर का संगीत लाउड है. फिल्म के माहौल के अनुरूप है।  ऋतिक रोशन और कटरीना कैफ को कमर मटकाने और शरीर तोड़ने का खूब मौका मिला है।  अब बात करते हैं अभिनय की।  अभिनय की नक़ल नहीं की जा सकती।  इसके लिए अभिनय प्रतिभा भी होनी चाहिए।  कटरीना कैफ इस डिपार्टमेंट में कमज़ोर ही नहीं, महा कमज़ोर हैं, क्योंकि, उनकी हिंदी अभी तक पिछड़ी हुई है।  इस फिल्म में हास्य अभिनय की ज़रुरत थी। कटरीना कैफ  हर हाल में कुछ सोचती सी लगती हैं. वह कहीं से भी कैमरों  डियाज के आस पास तक नहीं लगती।  इस फिल्म में तो वह खूबसूरत भी नहीं लगी हैं।  पूरी फिल्म कटरीना के अलावा ऋतिक रोशन के इर्द गिर्द है।  ऋतिक की तुलना भी टॉम क्रूज से करना बेकार होगा।  वह एक्टर और डांसर बेहतर है, पर उनमे एक एजेंट वाली चालाकी, चपलता  और स्फूर्ति नज़र नहीं आती।  पता नहीं क्यों, उन्होंने अपने बाल हीरो कट और ब्लॉन्ड रखना ठीक समझा।  वह ख़ास प्रभावित नहीं कर पाते। फिल्म के मुख्य विलेन डैनी डैंग्जोप्पा हैं। उनका किरदार कमज़ोर लिखा गया है।  इसलिए वह उसे कर ले जाते हैं।  जिमी शेरगिल केवल एक सीन में हैं, ठीक है।  पवन मल्होत्रा, जावेद जाफरी, कंवलजीत सिंह, दीप्ति नवल, आदि जाने पहचाने चेहरों के साथ ढेरों देसी विदेशी चहरे अपना काम कर ले जाते हैं। एक्शन फिल्मों में कहानी की ख़ास ज़रुरत नहीं होती. परन्तु एजेंट फिल्मों के लिए कोई प्लाट होना ही चाहिए।  इस फिल्म में सुभाष नायर  ने एक आतंकवादी को पकड़ने के लिए कोहेनूर चोरी का प्लाट तैयार किया है। पर सब कुछ आसानी से गले नहीं उतरता।  स्क्रिप्ट बेहद कमज़ोर हो गयी है।  सब कुछ बिखरा बिखरा सा लगता है।  किसी  दृश्य का औचित्य नज़र नहीं आता। बैंग  बैंग  को अबु धाबी ने को-प्रोडूस किया है।  इस फिल्म की तमाम शूटिंग प्राग में की गयी है।  फिल्म के समुद्र के तमाम एक्शन सीन थाईलैंड और ग्रीस में फिल्माए गए हैं. खूब बन पड़े हैं।  ऋतिक रोशन ने फ्लाईबोर्ड स्टंट के लिए खूब ट्रेनिंग ली और मेहनत की थी।  फ्लाईबोर्ड स्टंट और ऍफ़-१ कार को पहली बार किसी हिंदी फिल्म में देखा जायेगा। 
बैंग  बैंग  पांच हजार प्रिंट में रिलीज़ की गयी है. गांधी जयंती, ईद और दशहरा वीकेंड में रिलीज़ बैंग  बैंग  ज़बरदस्त बिज़नेस करेगी ही.  लेकिन,अगर इस फिल्म में कहानी और स्क्रिप्ट पर ध्यान दिया गया होता तो एक बढ़ी बॉलीवुड एक्शन, कॉमेडी और एजेंट फिल्म बन जाती।
बैंग  बैंग लखनऊ में सिंगल स्क्रीन शुभम थिएटर और प्रतिभा सिनेमा के अलावा पीवीआर सहारा मॉल और फ़ीनिक्स, एसआरएस मॉल, आई-नॉक्स, फन सिनेमाज और वेव सिनेमाज में लगी है।

Friday 26 September 2014

अब कहाँ चलते हैं 'देसी कट्टे' !

आनंद कुमार २००७ में बतौर लेखक-निर्देशक पहली बार फिल्म डेल्ही हाइट्स में नज़र आये थे।  फिल्म को चर्चा और प्रशंसा दोनों मिली।  फिर छह साल बाद वह जिला  ग़ाज़ियाबाद में पश्चिम उत्तर प्रदेश की रियल लाइफ गैंग वॉर को लेकर आये. अब वह देसी कट्टे के ज़रिये दर्शकों के सामने हैं. यकीन मानिये, अपनी पहली फिल्म से तीसरी फिल्म तक आते आते वह तीन कदम नीचे उतरते चले गए।  देसी कट्टे भटकती फिल्म है. दो बच्चे ज्ञानी और पाली देसी कट्टों को इधर उधर पहुंचाने का काम करते हैं. परिस्थितियां उन्हें कानपूर का शार्प शूटर बना देती हैं. सुनील शेट्टी इन दोनों की निशानेबाज़ी से प्रभावित होते हैं. वह उन दोनों को कट्टे  से दुश्मनों को मारने के बजाय पिस्तौल से निशाना लगाने के लिए कहता है।  ज्ञानी सुनील शेट्टी के साथ चला जाता है।  जबकि, पाली नेता का शूटर बन जाता है. फिल्म बेहद उलझी हुई है।  यह साफ़ नहीं होता है कि आनंद कुमार क्या दिखाना चाहते हैं ? वह उत्तर प्रदेश के शार्प शूटरों की कहानी दिखाना चाहते हैं या एक शूटर को ओलंपिक्स चैंपियन बनाना चाहते हैं।  पूरी फिल्म बेदिल से चलती हुई बेसिर पैर की कहानी भेजती रहती है।  आशुतोष राणा और अखिलेन्द्र मिश्रा जैसे अभिनेता तक निर्जीव लगते हैं।  जय भानुशाली कुछ हद तक ही जमते हैं. साशा आगा और अखिल कपूर को एक्टिंग का 'क ख  ग नहीं आता।  टिया बाजपाई न सुन्दर लगती हैं, न सेक्सी। आर्यन सक्सेना ने फिल्म लिखी है, जो बेहद कमज़ोर है ।  कैलाश खेर का संगीत न तो फिल्म के माहौल के अनुरूप है, न मधुर है।  बाकी, दूसरे पक्ष भी कमज़ोर हैं. फिल्म में ज्ञानी और पाली को कट्टों से  लगातार फायर करते दिखाया गया है।  ऐसे कट्टे  कहाँ मिलते हैं आजकल। अब कट्टों से गैंग वॉर भी नहीं लड़ी जाती। 

3 AM तक जागना मना है !

विशाल महाडकर भट्ट कैंप से हैं।  वह मोहित सूरी के असिस्टेंट रहे।  ब्लड मनी उनकी बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी. कुणाल खेमू और अमृता पूरी अभिनीत यह फिल्म चली नहीं. क्राइम थ्रिलर फिल्म ब्लड मनी २०१२ में रिलीज़ हुई थी।  दो साल बाद, विशाल की दूसरी फिल्म 3 AM इस शुक्रवार रिलीज़ हुई है. यह हॉरर जेनर की फिल्म है।  भट्ट कैंप की हॉरर फिल्मों का अपना फॉर्मेट होता है. विशाल की फिल्म 3 AM  भी उसी फॉर्मेट में बनी बेहद कमज़ोर फिल्म है।  फिल्म में कहानी है ही नहीं. अब कहानी नहीं है तो स्क्रिप्ट कैसे अच्छी हो सकती है। विशाल महाडकर 3 AM  के लेखक, निर्देशक और निर्माता हैं।  इसके बावजूद वह एक अच्छी कहानी और  स्क्रिप्ट पर फिल्म नहीं बना सके।  फिल्म की पृष्ठभूमि मुंबई की है, पर फिल्म की शूटिंग राजस्थान के  भानगढ़ किले में हुई है। यह किला विश्व का सबसे भयावना किला माना जाता है. कहानी इतनी है कि तीन लोग पैरानॉर्मल एक्टिविटीज पर सीरियल बनाने के लिए एक ऐसी मिल में जाते हैं, जो जल गयी थी और इसमे कई मिल मज़दूर जल मरे थे।  इनमे उस मिल का मालिक भी है, जो बड़ा अत्याचारी है।  कहानी सुन कर ही लगता है कि  वास्तविकता के बजाय कल्पना पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। वरना, मुंबई की किसी मिल में साथ के दशक की फिल्मों के जमींदार जैसा, मिल मालिक हो। बहरहाल, यह टीम शूटिंग करने के लिए एक पूरी रात मिल में शूट करती है। पर इस दौरान तीनों मालिक की रूह द्वारा मार दिए जाते हैं। फिल्म में डराने की कोशिश की गयी है, पर फिल्म प्रभावहीन साबित होती है।  फिल्म के तमाम एक्टर रणविजय सिंह, अनिंदिता नायर, कविन दवे और सलिल आचार्य अभिनय के लिहाज़ से बेहद कमज़ोर है. अनिंदिता को तो ठीक से हिंदी बोलना तक नहीं आता।  अनिंदिता को अभी अमित साहनी की लिस्ट में भी देखा गया था।  हिंदी फिल्मों में उनका भविष्य नज़र नहीं आता। फिल्म का संगीत बेकार है।  तमाम गीत ठूंसे गए हैं।  फिल्म की गति का सत्यानाश कर देते हैं।  विजय मिश्रा का कैमरा दर्शकों को डरावने माहौल में ले जाने में कामयाब होता है. फिल्म का संपादन थोड़ा ज़्यादा तेज़ तर्रार होना चाहिए था ।


Friday 19 September 2014

कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया इस दावत-ए -इश्क़ में

यशराज फिल्म्स का एक गिरोह जैसा बन गया है।  इनकी फिल्मों का एक सेट बन गया है. यशराज बैनर की तमाम छोटे बजट की फ़िल्में छोटे शहरों पर केंद्रित होती हैं. आजकल, बॉलीवुड को लखनऊ ख़ास रास आने लगा है।  रोमांस और कॉमेडी का तड़का रहता है।  वही परिणीति चोपड़ा कभी सुशांत सिंह राजपूत  के साथ तो कभी अर्जुन कपूर या रणवीर सिंह के  रोमांस करती नज़र आती हैं. उनकी अभिनय की सीमित रेंज है. उनका अपना स्ट्रुक्टर है. वह आम तौर पर तेज़ तर्रार या यो कहिये बोल्ड लड़की के रूप में नज़र आती हैं.  वह बोल्ड संवाद  बेझिझक बोल डालती हैं. जैसे ही मौका लगता है अपने हीरो के साथ सो भी लेती हैं. यह इमेज परिणीति के किरदारों की बन चुकी है. हबीब फैसल को छोटे शहर के या माध्यम वर्ग के किरदारों पर छोटे बजट की फ़िल्में  बनाने में महारत हासिल है।  दो दूनी चार और इशकजादे में उन्होंने अपने कौशल का परिचय भी दिया था।  परिणीति चोपड़ा और हबीब फैसल इशकजादे के बाद दूसरी बार एक साथ हैं।  इसलिए दर्शकों की उम्मीदें ख़ास होना लाज़िमी भी है।  इस बार फैसल ने परिणीति के साथ आदित्य रॉय कपूर को लिया है।  परिणीति हैदराबाद की एमबीए लड़की हैं. वह अमेरिका जाना चाहती हैं. पर दहेज़ आड़े आता है।  हर आने वाला रिश्ता दहेज़ की वजह से जुड़ने से पहले ही टूट जाता है। परिणीति  टीवी पर राधा रेड्डी का दहेज़ विरोधी अधिनियम ४९८ ए के बारे में सुनती है।  वह अपने पिता के साथ लखनऊ आ जाती है, ताकि, दहेज़ के लालची लोगों को झूठी शादी कर फंसाये और शादी के बाद दहेज़  माँगने का आरोप लगा कर पैसे ऐंठ सके. सुनने में  यह कहानी दिलचस्प लगती है, पर कहानी चलने से पहले ही दर्शक जान जाता है कि  हैदराबाद की एमबीए और लखनऊ  शेफ की शादी हो कर रहेगी।  होता भी वैसा है।   लेकिन,सब कुछ बेहद उदासीन तरीके से।  हबीब फैसल स्टार्ट और कट बोलते हैं. इन दो शब्दों के बीच परिणीति चोपड़ा, कभी आदित्य के साथ कभी अन्य पात्रों के साथ संवाद बोल कर निकल लेती हैं. इससे होता यह है कि दर्शकों को न तो  लखनऊ के खाने का स्वाद आता है, न  रोमांस का मज़ा।
परिणीति चोपड़ा ने अपनी इमेज के अनुरूप किरदार तो किया है।  पर इसमे बोलडनेस गायब है।  उन्हें देख कर लखनऊ का दर्शक भी शहर देखने के बजाय चीखना चिल्लाना शुरू कर देता है कि  अब बोल्ड  संवाद और चुम्बन आलिंगन देखने को मिलेगा।  पर दोनों ही चीज़े परिणीति की पहले की फिल्मों की तुलना में कम भी हों और ठंडी भी।  आदित्य के साथ परिणीति के केमिस्ट्री जमी नहीं।  वैसे आदित्य कहीं कहीं प्रभावित करते हैं।  पर उन्हें संवाद बोलने में कठिनाई आती है।  अनुपम खेर ने अपने सर की विग की तरह अपना काम भी किया है।  आजकल यशराज फिल्म के मालिक आदित्य चोपड़ा टीवी कलाकारों को छोटा मोटा मौका दे रहे हैं। इस फिल्म में करण वाही को बेकार किया गया है। अन्य सब कलाकार भरपाई का काम कर जाते हैं.
हबीब फैसल ने फिल्म को खुद ही लिखा है।  पर कुछ कल्पनाशील नहीं दे पाये।  सब कुछ घिसा पिटा  सा है।  साजिद वाजिद का संगीत सिनेमाघर में ही ठीक लगता है।  फिल्म की लम्बाई काम हैं अन्यथा फिल्म को ज़्यादा झेलना मुश्किल हो जाता। 
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यह सोनम "खूबसूरत" कपूर नहीं है !

शशांक घोष के निर्देशन में सोनम कपूर की फिल्म खूबसूरत की १९८० में रिलीज़ ऋषिकेश मुख़र्जी के निर्देशन में रेखा की फिल्म खूबसूरत की तुलना कतई  नहीं की जानी चाहिए।  क्योंकि, इस लिहाज़ से सोनम कपूर रेखा की पासंग भी नहीं हैं।  लेकिन, अगर शशांक की सोनम कपूर को बतौर एक्टर आकलन किया जाए तो सोनम कपूर बेहद कमज़ोर अभिनेत्री साबित होती हैं. उनकी कन्वेंटी हिंदी कोफ़्त पैदा करती है।  ऐसा लगता है जैसे वह च्युइंगगम चबाते हुए अपने संवाद बोल रही हैं. खूबसूरत सोनम कपूर के करैक्टर डॉ मिली चक्रवर्ती पर केंद्रित है।  वह आईपीएल टीम की फिजिओ हैं. उन्हें एक महाराजा का इलाज़ करने के लिए कहा जाता है. पूरी फिल्म की डॉ सोनम कपूर किधर भी न तो डॉ लगती हैं, डॉक्टरी करती हैं. रंग बिरंगी पोशाकें पहन कर, बचकानी हरकते करके वह खुद को मासूम तो साबित नहीं कर पाती, बेवक़ूफ़ ज़रूर लगती हैं. इस फिल्म को लिखने में महिलाओं की मुख्य भागीदारी है।  डी एन  मुख़र्जी की कहानी का स्क्रीनप्ले इंदिरा बिष्ट ने लिखी है और पात्रों को संवाद जूही चतुर्वेदी की कलम से निकले है. इनके संवादों की सिर्फ एक बानगी देखिये, जब सोनम कपूर फवाद खान से पूछती हैं, "क्या तुम्हे गंदे गंदे ख्याल नहीं आते." संगीत स्नेह खानवलकर का है।  सीमाब सेन ने पार्श्व संगीत दिया है. सभी बेहद कमज़ोर साबित हुए हैं. फवाद खान पाकिस्तान के जाने माने अभिनेता हैं।  लेकिन, उनके अभिनय में कच्चापन  साफ़ नज़र आता है. वह सोनम कपूर के सामने सहमे सहमे से लगते हैं.  वह किसी स्टेट के प्रिंस तो किसी कोण से नहीं नज़र आते।  सोनम और फवाद के बीच कोई रोमांटिक केमिस्ट्री नहीं बन पाती।  इन दोनों का चुम्बन भी बेहद ठंडा लगता है। रत्ना पाठक किसी भी कोण से रानी नहीं लगती हैं. उनका अभिनय भी बेहद खराब है।  किरण खेर को देख कर ऊब लगती है. नाहक लाउड अभिनय करती हैं।  प्रसेनजित चटर्जी,  राजा हुसैन, गार्गी पटेल, मेहमान भूमिका में अदिति राव हैदरी और साइरस साहूकार को जाया  किया गया है.
खूबसूरत का निर्माण  अनिल कपूर की फिल्म प्रोडक्शन कंपनी ने वाल्ट डिज्नी ने किया है।  अनिल कपूर का पुत्री मोह तो समझ में आता है.  लेकिन,वाल्ट डिज्नी की समझ पर तरस आता है. यह स्टुडिओ पूरे विश्व में कैसे इतना मशहूर बन गया है.
बहरहाल, इस फिल्म को आप देखना चाहें तो अपने रिस्क पर देखें। सर दर्द की गोलियां सप्लाई नहीं की जा सकतीं हैं

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Friday 12 September 2014

बिपाशा बासु और विक्रम भट्ट की सफल क्रीचर ३ डी

बॉलीवुड की सेक्सी ब्यूटी बिपाशा बासु और हॉरर फिल्मों के माहिर निर्देशक विक्रम भट्ट।  बिपाशा बासु और विक्रम भट्ट की जोड़ी पहली बार २००२ में रिलीज़ फिल्म राज से बनी। यह एक थ्रिलर हॉरर फिल्म थी. फिल्म हिट हुई. राज ने बिपाशा बासु को बॉलीवुड में स्थापित कर दिया. बिपाशा बासु बॉलीवुड की  सबसे सेक्सी और उत्तेजनापूर्ण अभिनेत्री साबित हो गयीं. विक्रम भट्ट ने हॉरर फिल्मों में अपनी पकड़ बना ली।  बिपाशा बासु के साथ विक्रम भट्ट की फिल्म राज ३ डी  भी सुपर हिट गयी।  इसीलिए जब इन दोनों की एक साथ फिल्म क्रीचर ३ डी का ऐलान हुआ तो दर्शकों को इस जोड़ी से काफी अपेक्षाएं थी. इसमे कोई  शक नहीं कि एक बार फिर बिपाशा बासु और विक्रम भट्ट सफल साबित होते हैं.  विक्रम भट्ट की हॉरर की अपनी परिकल्पना है।  इस बार उनकी कल्पना में क्रीचर है- एक मॉन्स्टर (ब्रह्मराक्षस). विक्रम भट्ट ने सुखमनी सडाना के साथ इस क्रीचर के इर्द गिर्द अच्छी कहानी लिखी है. पटकथा चुस्त दुरुस्त है और फिल्म की रफ़्तार तेज़ रखी गयी है. पूरे १३४ मिनट तक दर्शकों को अपनी सीट के किनारे पर बैठे रहना पङता है। विक्रम भट्ट ने क्रीचर के ट्रक पर और बिपाशा बासु के होटल पर हमला करने के दृश्यों में कल्पनाशीलता दिखाई है. गुफा पर क्रीचर पर हमले  का सीक्वेंस सांस रोक देने वाला है।  ऐसे दृश्यों से दर्शकों की उत्सुकता, उत्तेजना और रूचि बनी रहती है. फिल्म हिमाचल प्रदेश में एक होटल खोलने आयी अहाना की है. उसका अपना दुखद अतीत है।  वह मुंबई छोड़ कर दूर पहाड़ी इलाके में इसीलिए आयी है कि कड़वी यादों से निजात पा सके और बुरे लोगों से बच सके।  पर यहाँ भी क्रीचर उसे चैन से नहीं रहने देता।  प्रेमी की बेवफाई भी उसे तोड़ देती है. वह आत्महत्या करना चाहती है।  पर अंत में उस राक्षस का अंत करने का निर्णय लेती है. बिपाशा बासु कैसे कर पाती है ब्रह्म राक्षस का अंत! यही फिल्म का मज़ा है।
बिपाशा बासु को ऐसे किरदारों को करने में महारत  हासिल है।  वह राज ३ डी  के बाद, एक बार फिर अच्छा काम कर ले जाती हैं. उनके नायक पाकिस्तान के इमरान अब्बास कमज़ोर अभिनेता तो हैं ही, बिपाशा बासु से उम्र में काफी छोटे लगते हैं. बिपाशा बासु पर अब उम्र भारी पड़ने लगी है. शायद इसीलिए उन्होने इमरान के साथ गर्मागर्म रोमांस नहीं किया।  इससे दर्शकों को थोड़ी निराशा ज़रूर  होती है।  पर फिल्म का मज़ा काम नहीं होता।  अन्य भूमिकाओं में दीपराज राणा, मुकुल देव, बिक्रमजीत सिंह, शेख समीर, शिरीष शर्मा, आदि ठीक ही हैं.
फिल्म का संगीत ख़ास नहीं।  गीत न भी होते तो भी चलता।  प्रवीण भट्ट ने क्रीचर के भय को उभरने लिए बड़ी चतुराई से फिल्म को कैमरा में उतार है।  अब्बास अली मुग़ल के स्टंट फिल्म के थ्रिल के अनुरूप हैं।   राजू राव का बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म में थ्रिल पैदा करने में सक्षम है।
विक्रम भट्ट की यह फिल्म दर्शकों को निराश नहीं करेगी. क्योंकि, उन्होंने पूरा ख्याल रखा है कि उनकी फिल्म में महिला शकित का प्रदर्शन हो. कहा जा सकता है कि बिपाशा बासु और विक्रम भट्ट की जोड़ी एक और सफल फिल्म देने जा रही है। 
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Saturday 30 August 2014

इमेज का मारा 'राजा नटवरलाल' बेचारा

किसी अभिनेता की इमेज किसी फिल्म को कैसे कचरा कर सकती है, इसका उदाहरण निर्देशक कुणाल देशमुख की थ्रिलर सोशल फिल्म 'राजा नटवरलाल' है. राजा नटवरलाल इमरान हाशमी की फिल्म है. इस फिल्म में वह अपने मित्र दीपक तिजोरी के साथ मिलकर छोटी मोटी ठगी किया करते हैं. वह होटल में डांस करने वाली जिया से मोहब्बत करते हैं. फिल्म में जिया की भूमिका पाकिस्तानी अभिनेत्री  हुमैमा मलिक ने की है।  एक बड़ा हाथ मारने की फिराक में दोनों इंटरनेशनल डॉन वर्धा यादव के ८० लाख पर हाथ साफ़ कर देते हैं. वर्धा यानि केके मेनन राजा के दोस्त को मार डालता है. अब वह राजा के पीछे लगा है. राजा भाग कर धर्मशाला आ जाता है एक पूर्व ठग योगी से मदद माँगने के लिए।  दोनों मिल कर क्रिकेट के प्रेमी वर्धा यादव को किस प्रकार बर्बाद कर डालते हैं, यही फिल्म का थ्रिल है.
सब कुछ बेहद कमज़ोर है. परवेज़ शेख ने बेहद कमज़ोर कहानी पर लचर पटकथा लिखी है. फिल्म में सब कुछ वैसा ही चलता रहता है, जैसा निर्देशक कुणाल परवेज़ चाहते हैं. इस प्रयास में खलनायक वर्धा यादव का चरित्र के जोकर जैसा बन जाता है। जो डॉन राजा के दोस्त को ढूंढ कर मार डालता है, वह राजा की एक फोटो तक नहीं देख पाता।  केप टाउन जाकर कहानी बिलकुल भटक जाती है।  बचकाने ढंग से इमरान हाशमी, परेश रावल और  उनके साथी तथा हुमैमा अपना काम अंजाम देते हैं. इस कहानी का पूरा मक़सद मशहूर ठग नटवरलाल की स्क्रीन कॉपी योगी की मौजूदगी के बावजूद राजा को राजा नटवरलाल साबित करना था। पूरे बचकाने ढंग से इसे साबित करने में कुणाल, संजय और शेख कामयाब भी होते हैं. संजय मासूम के संवाद अब असरकारी नहीं रहे. वह चालू टाइप का लिख मारते हैं.  हालाँकि,इस कहानी में कुछ अच्छे संवाद लिखे जाने की गुंजाइश थी।
इमरान हाशमी की इमेज सीरियल किसर की है। वह अपनी हीरोइन को पहली सिटींग में ही बिस्तर तक लेजाकर गर्मागर्म रोमांस करने के लिए विख्यात या कुख्यात हैं।   इस इमेज के अनुरूप फिल्म में उनके तीन किस भी हैं. पाकिस्तानी 'बोल' अभिनेत्री हुमैमा खान लपक कर इमरान का पहला किस लेती है।  हुमैमा के इस बोल्ड एक्ट पर सिनेमाहॉल में बैठे दर्शकों की उम्मीदें जवान  होने लगती हैं।  लगता है अब काफी बोल्ड होगा।  पर कुछ होता नहीं. हुमैमा के साथ बिस्तर पर पहुँच कर भी इमरान हाशमी कुछ गर्मागर्म नहीं कर पाते।  दर्शक इमरान और हुमैमा की माँ बहन का ऐलान करना शुरू कर देते हैं।  इमरान हाशमी की इमेज उनके किरदार पर भारी पड़ती है।पाकिस्तानी मॉडल, टीवी  और फिल्म एक्ट्रेस हुमैमा 'बोल' मलिक ने बोल्ड लगने की भरसक कोशिश की है। साड़ी को अंग प्रदर्शक तरीके से बाँधा है. राज चक्रवर्ती का घूरता हुआ कैमरा बार बार हुमैमा की नाभि से शुरू हो कर उनके शरीर के पूरे भूगोल से दर्शकों का परिचय कराता है. पर दर्शक मांगे मोर।  हुमैमा चेहरे से बदसूरत नहीं तो खूबसूरत बिलकुल नहीं लगती।  वह इमरान का चुम्बन लेने में पहल करती हैं, स्मूचिंग करती  हैं, पानी में भीग कर अपने शरीर के विटामिन का प्रदर्शन करती हैं, इमरान की हमबिस्तर तक होती हैं, इसके बावजूद फिल्म को गर्म नहीं कर पाती।  फिल्म में इमरान और हुमैमा के बेड सीन से दर्शकों की उम्मीदें परवान चढ़ कर खत्म हो जाती हैं. न जाने क्यों फिल्म के इस  बिस्तर सीन को पहले ही कम कर दिया गया. शायद पाकिस्तान में हुमैमा के प्रति भावनाओं का ख्याल रखते हुए इस सीन को काटा गया। अभिनय के मामले में हुमैमा सामान्य ही लगीं। शायद फिल्म में उनके किरदार में कोई दम ही नहीं था, इसलिए। केके मेनन वर्धा यादव के किरदार में मौका खोते लगते हैं. पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में सुमीत निझावन और शूटर के रोल में मोहम्मद ज़ीशान अयूब दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं।
राजा नटवरलाल की सबसे बड़ी कमज़ोरी, कहानी और पटकथा के अलावा, संगीत है. इस प्रकार की फिल्मों, ख़ास तौर पर इमरान हाशमी की फिल्मों में मधुर संगीत खासियत हुआ करता है।  राजा नटवरलाल में यह नदारद है।  युवान शंकर राजा एक भी मधुर धुन नहीं दर्ज़ कर पाये।  संदीप शिरोढकर का बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म को सपोर्ट करता है।  रेमो डि सूजा ने हुमैमा को मामूली स्टेप्स ही दिए हैं. वैसे उनसे काफी कल्पनाशीलता की उम्मीद की जाती है.
इमरान हाशमी और हुमैमा खान के प्रशंसक चाहें तो फिल्म देख सकते हैं।  पर इस समीक्षा को दोष न दें