आगामी दो फ़िल्में महत्वपूर्ण हैं। यशराज बैनर की फिल्म सुई धागा : मेड इन इंडिया और दक्षिण से तमिल, तेलुगु और हिंदी में बनाई गई फिल्म काला। यशराज फिल्म्स के बैनर तले सुई धागा में वरुण धवन और अनुष्का शर्मा केंद्रीय भूमिका में है। इस फिल्म में वरुण धवन एक मज़दूर की भूमिका में हैं। उनके साइकिल या बस पर सवार, टिफ़िन थामे चित्र सोशल साइट्स पर नज़र आते हैं। दक्षिण की फिल्म काला में रजनीकांत टाइटल रोल यानि करिकालन काला की भूमिका कर रहे हैं। यह एक तमिल भाषी मज़दूर है, जिसे मुंबई में रहते हुए रंगभेद का शिकार होना पड़ता है। इससे दुखी हो कर वह खुद का नाम काला रख लेता है। फिर वह इतना ताक़तवर बनता है कि सब उसके सामने झुकते हैं। यह दो फ़िल्में बताती हैं कि बॉलीवुड या दक्षिण की फिल्म इंडस्ट्री चाहे कितनी बदल गई हो, मज़दूर और मालिक अथवा वर्ग विभेद कथानक के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं।अगर, कहानी और अभिनय की दरकार है तो इमोशन के लिहाज़ से मज़दूर की दशा और जोश के लिहाज़ से वर्ग भेद महत्वपूर्ण कारक बन जाता है। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की यह सोच आज की नहीं, हमेशा से रही है।
महबूब खान की फिल्मों का वर्ग संघर्ष
पुराने दौर की फिल्मों का विषय वर्ग संघर्ष, किसान ज़मींदार, शोषण ही हुआ करता था । पचास के दशक की फिल्मों की बात करते हैं ! कभी महबूब खान का बैनर महबूब प्रोडक्शनस का लोगो हंसिया और हथौड़ा हुआ करता था । यह चिन्ह वर्ग संघर्ष और साम्यवाद के प्रतीक थे । महबूब खान की फ़िल्में प्रमाण है कि उन्होंने अपनी सोच के अनुरूप अपनी फिल्मों में किसान, साहूकार और शोषण को अहमियत दी । महबूब खान की फिल्म औरत (१९४०) और इसकी रीमेक फ़िल्म मदर इंडिया (१९५७) स्त्री शक्ति के साथ साथ खेतिहर मज़दूर की दशा और सहकर के शोषण पर केन्द्रित थी । महबूब खान की फिल्म आन एक आम आदमी के एक राजकुमारी से प्रेम की कहानी थी । उन्होंने हुमायूँ में आम जनता को महारानी से भी ऊपर दिखाया था । उनकी फिल्म रोटी भी वर्ग संघर्ष पर, पूंजीपतियों के खिलाफ फिल्म थी ।
चोपड़ाओं की मज़दूर फ़िल्में
बॉलीवुड के चोपड़ा बंधुओ बीआर चोपड़ा और यशराज चोपड़ा की फिल्मों में मज़दूर की बात हुई है । वर्ग संघर्ष चित्रित हुआ है । बलदेव राज चोपड़ा (बीआर चोपड़ा) की १९५७ में रिलीज़ फिल्म नया दौर दो दोस्तों की कहानी के बीच किसान और खेत खलिहान की बात करने वाली फिल्म थी । इस फिल्म के गीत साथी हाथ बढ़ाना और यह देश है वीर जवानों का जोशीले और आम आदमी की बात कहने वाले थे । यश चोपड़ा के निर्देशन में बीआर फिल्म्स की फिल्म आदमी और इंसान में भी दोस्ती के साथ वर्ग संघर्ष का चित्रण हुआ था । चोपड़ा बंधुओं की फिल्म मज़दूर तो पूरी तरह से मज़दूरों पर केन्द्रित और वर्ग संघर्ष की वकालत करने वाली थी । यश चोपड़ा की फिल्म त्रिशूल (१९७८) मिल मालिक और मज़दूर के टकराव, काला पत्थर (१९७९) कोयला खान मज़दूरों पर तथा मशाल (१९८४) एक पत्रकार और मज़दूर किरदारों का पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष की फ़िल्में थी ।
जब मज़दूर बने सुपर स्टार
सशक्त कहानियां हो और अभिनय का माद्दा हो तो सुपर स्टार भी मज़दूर का चोला पहनने से गुरेज़ नहीं करते । दिलीप कुमार की मज़दूर की भूमिका में नया दौर और पैगाम जैसी फ़िल्में उल्लेखनीय हैं । यह फ़िल्में वर्ग संघर्ष की समर्थक थी । दिलीप कुमार, फिल्म गंगा जमुना में किसान की भूमिका में थे, जो ज़मींदार के अत्याचार के खिलाफ बन्दूक उठाने को मज़बूर हो जाता है । राजेंद्र कुमार की फिल्म गंवार किसान और जमींदार के बीच संघर्ष की कहानी थी । अमिताभ बच्चन ने तो मज़दूर या कुली बन कर काफी शोहरत हासिल की । उनकी मज़दूर किरदार वाली फिल्मों में नमक हराम, दीवार, काला पत्थर, कुली, त्रिशूल आदि उल्लेखनीय हैं । अमिताभ बच्चन नमक हराम में एक पूंजीपति के बेटे बने थे तो त्रिशूल में उसकी अवैध संतान थे । शाहरुख़ खान ने फिल्म कोयला में एक मज़दूर की भूमिका की थी । फिल्म नमक हराम में राजेश खन्ना मज़दूर बने थे । फिल्म अवतार में वह मज़दूर बने थे तो राजेश खन्ना अभिनीत नासिर हुसैन निर्देशित फिल्म बहारों के सपने पूरी तरह से मज़दूरों पर केन्द्रित थी ।
किसान/मजदूर और जमींदार टकराव की डाकू फ़िल्में
पुराने दौर की ज़्यादातर डाकू फ़िल्में शोषण और अत्याचार का परिणाम थी । मदर इंडिया जैसे ढेरो फिल्मों में साहूकार का शोषण था तो गंगा जमुना जैसी फिल्म जमींदार के अत्याचार की कहानी थी । ज़मींदार के अत्याचार से तंग आकर डाकू बन जाने वाले किरदार केवल हीरो ही नहीं था, हीरोइन को भी डाकू बनाना पसंद था । सुनील दत्त ने मदर इंडिया के डाकू किरदार से जो शोहरत पाई, उसके परिणामस्वरुप वह फिल्म दर फिल्म डाकू बनते चले गए । इस लिहाज़ से मुझे जीने दो उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी । अमिताभ बच्चन ने भी बहुत से डकैत फ़िल्में की । हिंदी फिल्मों में अमिताभ बच्चन की नायिका रह चुकी रेखा, श्रीदेवी, जयाप्रदा, हेमा मालिनी, आदि ने भी बदला लेने के लिए डाकू बनाना पसंद किया । बॉलीवुड की बी ग्रेड की ज़्यादातर फ़िल्में ज़मींदार के खिलाफ बन्दूक उठा लेने की कहानी थी ।
नए दौर की फ़िल्में
अस्सी के दशक के बाद हिंदी फिल्मों के कथानक में काफी बदलाव आया है । दर्शकों को मज़दूरों की कहानी वाली फ़िल्में नापसंद हो गई थी । निर्देशक महेश मांजरेकर की फिल्म सिटी ऑफ़ गोल्ड बॉम्बे की कपड़ा मिलो, उनके बंद होने और मज़दूरों के शोषण पर फिल्म थी । लेकिन, बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म बुरी तरह से फ्लॉप हुई । चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म जेड प्लस भी बुरी तरह से असफल हुई । इसके बावजूद, मज़दूर, मिल मालिक, वर्ग संघर्ष पर कुछ फ़िल्में बनी । आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव गाँव की पृष्ठभूमि पर न्यूज़ चैनल पर व्यंग्य करती थी । मणिरत्नम की फिल्म गुरु, रिलायंस के संस्थापक धीरुभाई अम्बानी पर फिल्म थी । इस फिल्म में अम्बानी सीनियर के किरदार को मज़दूर समर्थक दिखाया गया था ।
काला और सुई धागा को हिंदी में अपवाद फ़िल्में ही कहा जाना होगा । अब हिंदी फिल्म निर्माताओं का ज्यादा ध्यान चमक-दमक, ग्लैमर और सेक्स पर लगी हुई है । मज़दूर या वर्ग संघर्ष पर फिल्मों में इसकी गुंजाईश नहीं होती । ऐसी फिल्मों को दर्शक स्वीकार भी नहीं कर रहा । यह कारण है कि प्यासा, सत्यकाम, दो बीघा ज़मीन, आदि फिल्मों की कोई गुंजाईश नहीं है । इसके बावजूद, लगान, स्वदेश, इक़बाल, कॉर्पोरेट, शंघाई, चक्रव्यूह, मटरू की बिजली का मनडोला, आदि फ़िल्में देखने को मिल रही हैं ।
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