Wednesday, 19 November 2025

निराशाजनक समाज पर वेश्या को अपनाने वाला नायक था 'प्यासा' का विजय !



भारत की स्वतंत्रता के समय, २२ साल के वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण के नेत्रों में, सामान्य युवा की तरह कुछ सपने थे।  यह सपने समय के साथ धूमिल पड़ते गए। उनमे निराशा की धूल ज़मने लगी। ऐसे समय में, वसंत कुमार के मस्तिष्क में एक कहानी कश्मकश का जन्म हुआ।  इस कथानक में, वसंत के प्रारंभिक संघर्ष की छाप थी। 




 

जब वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण ने, गुरुदत्त बन कर फिल्म बनाने का निर्णय लिया तो उनके मस्तिष्क में इसी कहानी का विचार था।  इस कथानक में गीतकार साहिर लुधियानवी के लेखिका अमृता प्रीतम के साथ असफल प्रेम का मिश्रण किया गया।  इसके साथ ही गुरुदत्त के निर्देशन में बनी सातवीं फिल्म प्यासा का जन्म हुआ।  





गुरुदत्त अपने मन में  चार साल से चल रहे विषय पर ही फिल्म प्यासा को अपनी पहली निर्देशित फिल्म बनाना चाहते थे।  किन्तु, उनके मित्रों ने सलाह दी कि इस प्रयोगात्मक फिल्म से पूर्व कुछ ऎसी फिल्मे बना लो, जो उस समय दर्शकों की पसंदगी के अनुरूप हों तथा जिनसे पैसा कमाया जा सके।





गुरुदत्त ने, अपने मित्रों की बात मानी।  इस निर्णय का परिणाम, गुरुदत्त के निर्देशन में बनी बाज़ी (१९५१), जाल (१९५२), बाज़ (१९५३), आर पार (१९५४) और मिस्टर एंड मिसेज ५५ (१९५५) जैसी मनोरंजक और उतनी ही सकरात्मक फिल्मे हिंदी दर्शकों को देखने को मिली। यह सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट हुई।  






इन फिल्मों के पश्चात, जब गुरुदत्त ने अपने सह  निर्देशक राज खोसला को अपराध फिल्म सीआईडी की कमान सौंप कर, स्वयं प्यासा पर काम करना प्रारम्भ कर दिया। इसका अर्थ यह नहीं था कि १९५१ से निरंतर प्रत्येक वर्ष हिट फिल्मे दे रहे गुरुदत्त ने १९५६ में को फिल्म निर्देशित नहीं की! उनके द्वारा निर्देशित अभी भट्टाचार्य, गीता बाली और स्मृति विश्वास के साथ फिल्म सैलाब प्रदर्शित हुई थी।






प्यासा २२ फरवरी १९५७ को प्रदर्शित हुई थी।  इस फिल्म में गुरुदत्त, वहीदा रहमान, माला सिन्हा, रहमान और जॉनी वाकर अभिनय कर रहे थे। किन्तु, यह स्टारकास्ट प्रारम्भ में नहीं थी। स्वयं गुरुदत्त को स्वयं पर विश्वास नहीं था कि वह हल्कीफुल्की करते हुए, इतनी गंभीर और दुखांत भूमिका कर सकते थे। इसलिए उन्होंने इस फिल्म के लिए दिलीप  कुमार, मधुबाला और नरगिस को लिया जाना तय किया था। किन्तु, किसी न किसी कारण से, यह सितारे एक के बाद एक फिल्म से बाहर होते चले गए। 





प्यासा में दिलीप कुमार की चाहती अभिनेत्रियां नरगिस और मधुबाला थी।  किन्तु, बताया जाता है कि किन्ही कारणोंवश दिलीप कुमार शूटिग के पहले दिन सेट पर नहीं पहुंचे, इसलिए गुरुदत्त ने इस भूमिका को स्वयं करने का निर्णय लिया।  कुछ का कहना है कि दिलीप कुमार दुखांत भूमिकाएं करते करते  मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए थे। उन्हें डॉक्टर ने सलाह दी कि अब वह दुखांत भूमिकाये न करे। कुछ का कहना है कि दिलीप कुमार को प्यासा का कथानक अपने द्वारा अभिनीत फिल्म   देवदास जैसा लगा था। 





नरगिस और मधुबाला के निकलने के कारण भी भिन्न है।  कहा जाता है कि शीर्ष की यह दोनों अभिनेत्रियां यह तय नहीं कर पा रही थी कि वह कौन सी भूमिका करें।  इस अनिर्णय की स्थिति में, गुरुदत्त ने मधुबाला के स्थान पर १९५४ में हिंदी फिल्मों में प्रवेश करने वाली अभिनेत्री माला सिन्हा को ले लिया और नरगिस वाली भूमिका अपनी खोज वहीदा रहमान को दे दी।  





वहीदा रहमान वेश्या गुलाबों फिल्म के लेखक के वास्तविक जीवन के एक चरित्र पर आधारित था।  बताते हैं कि जब अबरार अल्वी अपने दोस्तों के साथ मुंबई गए, तो वे रेड लाइट एरिया भी गए, जहाँ उनकी मुलाकात एक युवा वेश्या से हुई जिसका नाम गुलाबो था। लड़की ने दावा किया कि उसे ज़िंदगी में पहली बार गालियों के बजाय इतना सम्मान मिला था। लेखक अबरार अल्वी ने उन बातों को अपनी फिल्मों में रखा ही, वहीदा रहमान के चरित्र को नाम भी गुलाबो ही दिया ।





फिल्म के अंत को लेकर भी लेखक अबरार अल्वी और गुरु दत्त के बीच मतभेद था। लेखक का मानना ​​था कि गुरुदत्त के चरित्र विजय को उस समाज को छोड़ना नहीं चाहिए। बल्कि, उसे समाज की बुराइयों से लड़ना चाहिए। यद्यपि,  गुरु दत्त अपनी बात पर अड़े रहे और अंततः अबरार को झुकना पड़ा। 





मूल क्लाइमेक्स में विजय के चरित्र को अकेला दिखाया जाना था। लेकिन वितरकों ने गुरुदत्त से कहा कि वह विजय को अकेला नहीं दिखाए। वितरकों के इस अनुरोध पर गुरु दत्त ने अंत में विजय और गुलाबों को साथ जाते दिखाया था । इस अंत पर भी, गुरु दत्त और अबरार अल्वी के बीच बहस हुई क्योंकि अबरार अल्वी मूल अंत चाहते थे। 






प्यासा को प्रारम्भ में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रसाद नहीं मिला था।  किन्तु बाद में फिल्म ने गति पकड़ ली और १९५७ की दस सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्मों में सम्मिलित हो गई।  यह बात अलग है कि फिल्म को तत्कालीन पत्रकारों ने बहुत नापसंद किया था। उनका कहना था कि विजय कैसा समाज विरोधी चरित्र था, जो समाज पर एक वेश्या को महत्त्व देता था।  इस चरित्र को निराशाजनक भी माना गया। यहाँ तक कि फिल्म कंपेनियन द्वारा २०२३ किए गए सर्वेक्षण में, १५० फिल्म समालोचकों, निर्देशकों और उद्योग के विशेषज्ञों ने सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली और गुरुदत्त की प्यासा से आगे, शोले को सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म चुना। जबकि, इस फिल्म को टाइम मैगज़ीन की २०वीं सदी की शीर्ष १०० फ़िल्मों की सूची में सत्यजीत रे की अपू त्रयी के साथ सम्मिलित किया गया ।  





गुरुदत्त की निर्देशक के रूप में प्यासा अंतिम सफल फिल्म थी। प्यासा के बाद उन्होंने कागज़ के फूल का निर्देशन किया, जो उनकी आखिरी निर्देशित फिल्म थी। यह फिल्म बड़ी फ्लॉप हुई थी।  

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