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Friday 16 February 2018

ब्लैक पैंथर : सुपरहीरो जो सुपरह्यूमन ज़्यादा है

मार्वल सिनेमेटिक यूनिवर्स के सुपरहीरोज को भारतीय दर्शक खूब पहचानने लगे हैं।  अवेंजर्स इंफिनिटी वॉर के ट्रेलर के दौरान रोबर्ट डाउनी जूनियरजॉश ब्रोलिन, मार्क रूफ्लोटॉम हिडलस्टन, क्रिस इवांस, क्रिस हेम्सवर्थ, जेरेमी रेनर, क्रिस प्राट, एलिज़ाबेथ ओल्सन, बेनेडिक्ट कम्बरबैच, पॉल बेटनी, आदि के सुपरहीरोज के लिए तालियां और सीटियां बचाते हिंदी दर्शक इसमे प्रमाण है।   कुछ ऎसी ही तालियां और सीटियां चैडविक बोसेमन के ब्लैक पैंथर के लिए भी बजी ।  साफ़ है कि कैप्टेन अमेरिका सिविल वॉर से ही  भारतीय दर्शकों में ब्लैक पैंथर/ टीचल्ला ने अपने पहचान बना ली है।  मार्वेल सिनेमेटिक यूनिवर्स के पहले अश्वेत सुपरहीरो की पहली सोलो फिल्म दुनिया में या कहें अमेरिका में अश्वेत आबादी के प्रति भेदभाव के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करती है ब्लैक पैंथर। टीचल्ला जब वाकांडा वापस आता है तो उसे मालूम होता है कि उसकी वाकांडा का सम्राट बनने की राह में कई कांटे हैं।  उसे सम्राट बनने के लिए मृत्य का खेल खेलना होगा।  फिल्म की लेखक जोड़ी रयान कूगलर और जोए रॉबर्ट कोल ने अपने सुपरहीरो को मानवीय बनाये रखा है।  वह सत्ता के लिए शक्ति प्रदर्शन से नहीं डरता, लेकिन मार डालना उसकी फितरत नहीं।  वह ऐसा राजा है, जो  दुनिया को बचाने के लिए अपने शकित का इस्तेमाल करता है।  वह अन्य सम्राटों  की  तरह यह नहीं मानता कि हम अपने ज्ञान, विज्ञान और रिसोर्सेज को छिपा कर रखे।  वह  इन्हे बांटना चाहता है।  मार्वेल सिनेमेटिक यूनिवर्स के तमाम श्वेत  सुपरहीरोज में यह अलग सुपरहीरो है।  परदे पर टीचल्ला के किरदार को चैडविक बोसमैन ने बड़ी खूबसूरती से अंजाम दिया है।  वह सुपरहीरो है, लेकिन ह्यूमन ज़्यादा है।   नजदका की भूमिका  में माइकल बी जॉर्डन, नाक़िआ की भूमिका में ल्युपिटा न्योंगो, ओकोयो की भूमिका में डनाई गुरिरा, एवरेट के रॉस की भूमिका में डेनियल फ्रीमैन, वकाबी की भूमिका में डेनियल कालूया और रमोन्डा की भूमिका में एंजेला बेसेटे ने अपने किरदार बढ़िया तरह से किये हैं।  रयान कूगलर ने अपने सुपरहीरो को मानवीय सुपरहीरो बनाये रखने का कठिन काम बढ़िया तरह से किया है।  १३४ मिनट की यह फिल्म कभी सुस्त होते होते तेज़ रफ़्तार चलने लगती है।  हॉलीवुड के इस अश्वेत हीरो को देखना हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए सुखद अनुभव साबित होगा।  फिल्म के निर्माण में २०० मिलियन डॉलर का खर्च इसके वीएफएक्स में बखूबी नज़र आता है।


Friday 22 December 2017

अगर इसे ज़िंदा कहते हैं....तो टाइगर ज़िंदा है !

यशराज फिल्म्स की अली अब्बास ज़फर निर्देशित फिल्म टाइगर ज़िंदा है से कुछ बातें साफ़ होती हैं -
* भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, जिसके संक्षिप्त नाम रॉ से पाकिस्तानी जांच एजेंसी की हवा खिसकती है, पाकिस्तान हुक्मरान खौफ  खाते हैं, निहायत बेवक़ूफ़ है।  उसका एक पूर्व एजेंट, जिसे  वह मरा हुआ समझ रहे हैं, वह ऑस्ट्रिया में पूरा रॉ हेडक्वार्टर हैक किये बैठा है।  इस एजेंसी को मालूम ही नहीं। 
** पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी, जिसे भारत के लोग देश में आतंकी भेजने के  लिए जिम्मेदार मानते है, वह  खुद आतंकवाद से लड़ रही हैं यानि मिया मुशर्रफ सही फरमाते  हैं। 
*** तिकरित में बंधक बनाई गई ४६ भारतीय नर्सें किसी कूटनीतिक दबाव का परिणाम नहीं थी, बल्कि टाइगर ज़िंदा है।  अगर, यशराज बैनर न होता, अली अब्बास ज़फर न प्लान करते और सलमान खान टाइगर न होते तो वह नर्सें मार दी जाती।  भारत सरकार गई तेल लेने।  
कहानी- तिकरित में २५ भारतीय नर्सें, जिनसे १५ पाकिस्तानी नर्सें जोड़ कर, ४० बनाया जाता है, अबू उस्मान की आईएससी (ध्यान रहे नर्सों का अपहरण आईएसआईएस ने नहीं, जैसा बताया जाता है, आईएससी ने किया था) द्वारा कर लिया जाता है।  उन्हें एक  हॉस्पिटल में बंधक बना लिया  जाता है।  एक अमेरिकी हमले में अबू उस्मान घायल  हो जाता है।  उसे उसी हॉस्पिटल में, जिसमे कोई डॉक्टर नहीं है, लाया जाता है और नर्सों के सहारे इलाज़ के लिए छोड़ दिया जाता है। अब इनकों छुड़ाया कैसे जाए ? भारत सरकार नकारा है। विदेश मंत्रालय निकम्मा है।  लेकिन, टाइगर ज़िंदा है न! वह छुड़ाएगा।  और आखिर में आखिर में छुड़ा भी लेता है।  कैसे ! यह मत पूछना ! फैंटम देख हैं !! ठीक वैसे ही !!! 
लेखन- निर्देशन- टाइटल में बतौर निर्देशक अली अब्बास ज़फर का नाम गया है।  लेकिन, ९० प्रतिशत काम देशी/ विदेशी एक्शन कोरियोग्राफर,   स्पेशल इफेक्ट्स और वीएफएक्स टीम ने किया है।  इस  बचकानी कहानी को लिखने में नीलेश मिश्रा और अली अब्बास ज़फर ने अपना समय बर्बाद किया है।  कहानी तो रियल लाइफ है।   आपने तो उसका सत्यानाश लिखा है।  अली के स्क्रीनप्ले में कोई नयापन नहीं।  हर दृश्य जाना पहचाना और ऎसी बहुत सी फिल्मों का देखा हुआ है।  संवाद सलमान खान मार्का हैं।  उनके प्रशंसकों से तालियां बजवाने के लिए ही लिखे गए हैं।  इतनी बचकानी फिल्म लिखना तो हमारे लेखकों के बस की बात ही है।  टाइगर सब कुछ कर सकता है।  लेकिन, कैसे ! यह  तो बताना ही होगा।  बिना रेकी किये, तिकरित और मोसुल की गलियों में आतंकियों को चकमा टाइगर हंसी पैदा करता है।  फिल्म की ज़्यादातर घटनाएं अविश्वसनीय हैं। 
अभिनय- सलमान खान बारूद के ढेर में बैठे टाइगर बने हैं।  उनके करने से ज्यादा गोला बारूद ने उनके लिए किया है।  वह फिल्म के क्लाइमेक्स में कमीज़ चीर कर तालियाँ बटोर ले जाते हैं।  कैटरिना कैफ ने एक्शन खूब किये हैं।  वह अपना काम ठीकठाक कर ले जाती हैं।  फिल्म में ढेरो देशी विदेशी चेहरे हैं।  लेकिन, इन सब के बीच उभर कर आते हैं अबू उस्मान की भूमिका में ईरानी सज्जाद दिलफ़रोज़।  वह बिना ओवर हुए अपने किरदार को क्रूर दिखा पाने में सक्षम होते हैं।  
तकनीक- टाइगर ज़िंदा है टेक्निकल टीम की फिल्म है।  अब चाहे वह बारूद के ज़रिये किया गया हो या स्पेशल इफेक्ट्स के ज़रिये। वैसे सलमान खान के साथ भेड़ियों के झुण्ड से लड़ाई की काफी चर्चा थी।  लेकिन, वह बहुत प्रभावित नहीं कर पाया।  साफ़ तौर पर दो दृश्य जोड़े हुए लग रहे थे।  हॉलीवुड के स्टंट कोरियोग्राफर भी आपके लिए पूरा ओरिजिनल क्यों करेंगे ! 
एक था टाइगर और टाइगर ज़िंदा है का फर्क - एक था टाइगर २०० करोड़ तक नहीं पहुँच पाई थी।  लेकिन, एक था टाइगर दर्शकों के दिल तक  पहुँच पाने में सफल हुई थी।  कबीर खान टाइगर और ज़ोया के रोमांस को प्रभावशाली ढंग से उभार  पाने में सफल हुए थे।  टाइगर  ज़िंदा है में ऐसा कुछ नहीं है।  यही  कबीर खान और अली अब्बास ज़फर का फर्क है।  अलबत्ता अली अब्बास ज़फर ने कबीर खान की फिल्म फैंटम की नक़ल करने में काफी मेहनत की है।  
बारूद में उड़ा दिए १४० करोड़- ट्रेड के जानकार बताते हैं कि फिल्म के निर्माण में १४० करोड़ खर्च हुए हैं।  इसमें सलमान खान का पारिश्रमिक शामिल नहीं है।  इसके लिए उन्होंने राइट्स लिए हैं और प्रॉफिट  में हिस्सा लेंगे । बताते हैं कि टाइगर ज़िंदा है के म्यूजिक, ओवरसीज मार्किट के अधिकार, टीवी टेलीकास्ट के अधिकार , आदि के ज़रिये १४० करोड़ अंदर कर लिए गए हैं। इस फिल्म को ४०००+ स्क्रीन पर रिलीज़ किया गया है।  अगर फिल्म ने थोड़ी भी पकड़ बनाये रखी तो  २०० करोड़ कहीं नहीं गए।  लेकिन, अगर उखड़ी तो......! ३०० करोड़ तो वैसे भी नहीं बनते नज़र आ रहे।  शनिवार और रविवार के जम्प के बाद, सोमवार को क्रिसमस डे जम्प से सब  पता चल जायेगा।  
वैसे यह कहा  जा सकता है कि अगर सलमान खान के प्रशंसकों का आईक्यू सचमुच इतना कम हो गया है तो समझ लीजिये की बारूद की गंध के बीच डायलाग पेलता टाइगर सचमुच ज़िंदा है।  
नोट- यह पाकिस्तानियों और उनके आकाओं का दुर्भाग्य है कि उन्होंने पाकिस्तान, पाकिस्तानियों और कुख्यात जासूसी एजेंसी को प्रमाणपत्र देने वाली फिल्म रिलीज़ नहीं होने दी।  

Friday 24 November 2017

मेरी 'राय' में लक्ष्मी राय है जूली २ की लक्ष्मी

लक्ष्मी राय जूली २ में 
कभी फिल्म देखते समय कोफ़्त होने के बावजूद किसी एक चहरे को देखना ही पैसा वसूल बना देता है।  दीपक शिवदासानी की फिल्म जूली २ निराश करने के बावजूद दक्षिण की संवेदनशील अभिनेत्री लक्ष्मी राय के कारण देखि जा सकती है।  एक ढीली ढाली और बार बार बहकती फिल्म में लक्ष्मी राय की मज़बूत खम्भा नज़र आती हैं।  वह अस्वाभाविक कहानी को अपने स्वाभाविक अभिनय से ध्वस्त होने से रोकती है।  जूली २ की जूली अगर जूली न होती तो इसका सिरा २००४ की फिल्म जूली से नहीं जोड़ा जाता। ऐसे में इस फिल्म को इरोटिक फिल्म की तरह प्रचारित नहीं किया जाता।  दीपक शिवदासानी फिल्म बनाते समय भटकते सम्हलते लगे। मगर आखिर में वह बिलकुल बिखर गए।  एक बड़ी फिल्म अभिनेत्री को स्टारडम पाने के लिए क्या कुछ खोना पड़ता है, यह देखना भयावह लगता है।  मध्यांतर तक एक बढ़िया सस्पेंस थ्रिलर फिल्म का एहसास कराने वाली जूली २ मध्यांतर एक बाद बिलकुल भटक जाती है।  दीपक शिवदासानी की कथा-पटकथा में फहीम कुरैशी के संवाद को प्रभावित करते हैं।  लेकिन, फिल्म का कथानक जितना अस्वाभाविक है, पटकथा भी उतनी ही ढीली है।  बतौर निर्देशक भी दीपक कुछ नया नहीं दे पाए।  अगर, दीपक अपनी फिल्म को सिर्फ लक्ष्मी राय के किरदार को उभरने तक सीमित रखते तो प्रभावशाली साबित होते।  लेकिन, उन्होंने जूली को एक बोल्ड विचारों और दिमाग वाली महिला दिखाने के बावजूद कमज़ोर दिखाया।  यह कुछ अटपटा लगता है।  न जाने क्यों उन्होंने सीआईडी सीरियल के आदित्य श्रीवास्तव को इतना ज़्यादा महत्त्व दिया।  वह फिल्म की कमज़ोर कड़ी साबित होते हैं।  जूली २ में लक्ष्मी राय के अलावा छोटी  भूमिका में रवि किशन और मुख्य खलनायक के रूप में पंकज त्रिपाठी प्रभावित करते हैं।  रति अग्निहोत्री का लक्ष्मी को बढ़िया सपोर्ट मिला है।  फिल्म का गीत संगीत बेकार है।  मुश्किल लगता है कि ३० करोड़ में बनी जूली २ का  हिंदी संस्करण अपनी लागत भी निकाल पाए।  

Friday 20 October 2017

दीवाली पर हॉरर कॉमेडी का गोलमाल ही चलता है अगेन एंड अगेन

लखनऊ में गोलमाल दर्शक 
आज, सीक्रेट सुपरस्टार की रिलीज़ के एक दिन बाद गोलमाल अगेन रिलीज़ हो गई।  एकाधिक स्क्रीन वाले सिनेमाघरों के सामने आमिर खान ने धर्मसंकट पैदा कर दिया था कि मेरी फिल्म सीक्रेट सुपरस्टार को आधे स्क्रीन दो।  आखिर समय में यही तय भी हुआ।  आमिर खान बॉक्स ऑफिस पर बड़ा नाम जो है।  लेकिन, अगर गोलमाल अगेन को ज्यादा स्क्रीन मिल जाते तो शायद नज़ारा कुछ दूसरा होता।  आमिर खान जानते थे कि उनकी फिल्म क्लास है।  उनका रोल एक्सटेंडेड कैमिया है।  सीक्रेट सुपरस्टार को उतने दर्शक नहीं मिल सकते थे, जितने उनकी नायक वाली फिल्म को मिलते हैं।  लेकिन, आमिर खान किसी न किसी प्रकार से स्क्रीन छेंकना चाहते थे। 
गोपाल, लकी, माधव और लक्ष्मण  १ और लक्ष्मण २ की चौथी हास्य कथा गोलमाल अगेन में हॉरर यानि भूत का एंगल है।  एना (तब्बू) भूत देख सकती है।  भूत खुद उसके पास आते हैं।  एना उन भूतों को इन्साफ या मुक्ति दिलवाती है।  फिल्म की कहानी एना के मुंह से ही कहलाई गई है।  गोलमाल सीरीज की फिल्मों की इस सेंसेलेस कॉमेडी में हॉरर और भूत का पांचवा छठा कोण कहानी को रुचिकर बना देता है।  हालाँकि, सिचुएशन घिसी पिटी हैं।  पहले की फिल्मों की तरह यहाँ भी आमने सामने दो बंगले हैं।  खूबसूरत लड़की है।  इस फिल्म में तो तमाम सितारों की एंट्री ही बाइक मोटर बाइक और कार पर ही होती है।  फिल्म के पाँचों मुख्य चरित्र अनाथ हैं।  बचपन में ही अनाथालय से भाग निकलते हैं।  पर अपने बचपन के आश्रय स्थल को भूल नहीं पाते।  इसलिए दादागिरी कर जो कुछ कमाते हैं, उसका एक हिस्सा अनाथालय को भेज देते हैं।  अनाथालय के मुखिया के मरने की खबर सुन कर पांचो वापस आते हैं।  यहीं भूत का एंगल सामने आता है। 
फिल्म में सितारों की भरमार है।  अजय देवगन, अरशद वारसी, कुणाल खेमू, तुषार कपूर और श्रेय यस तलपडे जैसे नियमित अभिनेताओं के साथ परिणीती चोपड़ा, तब्बू और नील नितिन मुकेश की नई एंट्री है।  यह तमाम अभिनेता रोहित शेट्टी की ठेठ शैली में कॉमेडी भरा अभिनय करते हैं। पहले तीन बार देखी जा चुकी कॉमेडी को मसाला देते हैं नाना पाटेकर, प्रकाश राज, जोनी लीवर, मुकेश तिवारी, संजय मिश्र, आदि।  इन डेढ़ दर्जन एक्टर्स में प्रभावित कर पाती है तब्बू।  परिणीती चोपड़ा अपनी भूमिका में फबी हैं। नील नितिन मुकेश को बॉलीवुड की फिल्मों में ऐसी अधूरी भूमिकाएं करने से अच्छा दक्षिण की फिल्मों की शरण लेना है।  इन सब पर भारी पड़ते हैं खुद की संक्षिप्त  भूमिका में नाना पाटेकर।  फिल्म में तब्बू और परिणीति चोपड़ा के किरदारों के कारण कुछ भिगोने वाले दृश्य देखने को मिलते हैं। 
फिल्म का संगीत काम चलाऊ है।  दर्शक हलके हो सकते हैं।  धूम्रपान का मज़ा ले सकते हैं।  गोवा, ऊटी और हैदराबाद  की लोकेशन खूबसूरत हैं।  रोहित शेट्टी और अजय देवगन की जोड़ी मनोरंजक फ़िल्में बनाने में माहिर है।  रोहित शेट्टी को अजय देवगन के साथ कॉमेडी बनाने  में ख़ास मेहनत नहीं करनी पड़ती।  फिल्म के तमाम एक्शन सुनील रोड्रिगज़  बढ़िया कर ले  जाते हैं। 
नोट- फिलहाल अजय देवगन की गोलमाल अगेन की आंधी में उड़ गया लगता है सीक्रेट सुपरस्टार।  

Thursday 19 October 2017

'गोलमाल' की आंधी में उड़ने जा रहा है आमिर का 'सुपरस्टार' 'अगेन' !

आमिर खान की एक्सटेंडेड कैमिया वाली फिल्म सीक्रेट सुपरस्टार आज रिलीज़ हो गई।  दीवाली के दिन फिल्म को रिलीज़ करने का आमिर खान का फैसला शायद इस कारण से रहा होगा कि वह अजय देवगन की फिल्म से एक दिन पहले अपनी फिल्म रिलीज़ कर, अकेले ही दर्शक लूट लेंगे और माउथ पब्लिसिटी के ज़रिये बॉक्स ऑफिस की जंग भी जीत लेंगे।  इसी सोच के तहत आज ज़ायरा वसीम की टाइटल किरदार वाली फिल्म सीक्रेट सुपरस्टार रिलीज़ हो गई।  फर्स्ट हाफ तक काफी टाइट और इमोशनल चलने वाली फिल्म हाफ टाइम के बाद बिखर सी जाती है।  या यों कहिये कि कथानक को अनुकूल मोड़ देने के लिए तोड़ मरोड़ दी जाती है।  इस फिल्म को देखने के बाद किसी भी छोटे बड़े शहर के गायक-गायिका को लगेगा कि वह आसानी से बॉलीवुड में चांस पा सकता/सकती है।  वड़ोदरा की इन्सिया मलिक (ज़ायरा वसीम) संगीत के प्रति रुझान रखती।  फिल्म देखते समय ऐसा लगता है कि वह सिंगर, म्यूजिक कंपोजर और गीतकार तीनों ही है।  जबकि, वास्तव में वह गायिका दिखाई गई है।  उसका पिता फ़ारूक़ मलिक (राज अर्जुन) उसके संगीत के खिलाफ है।  इसलिए वह अपनी माँ नजमा (मेहर विज) के सुझाव पर बुर्का पहन कर अपना विडियो तैयार करती है और यूट्यूब पर अपलोड कर देती है।  इस विडियो को लोग पसंद करते हैं।  उसे करोड़ों हिट मिल जाते हैं।  इनमे से एक मुंबई के चुके हुए बददिमाग संगीतकार शक्ति कुमार का भी है।  ज़ायरा का दोस्त चिंतन (तीर्थ शर्मा) उसे शक्ति कुमार से संपर्क करने का सुझाव देता है। यह सब इंटरवल तक चलता है। नए निर्देशक अद्वैत चिंतन की पकड़ साफ़ नज़र आती है।  लेकिन, इंटरवल के बाद अद्वैत कथानक और निर्देशन में बिखर जाते हैं।  सब कुछ जाना पहचाना होता है।  यानि इन्सिया को मुंबई का सेलेब्रिटी सिंगर बनना ही है।   अद्वैत उसे बना भी देते हैं।  कोई संघर्ष नहीं।  गायन की कोई गंभीरता और गहराई नहीं। अलबत्ता, सीक्रेट सुपरस्टार को अभिनय के लिहाज़ से देखा जा सकता है।  ज़ायरा वासिम अपने इन्सिया के किरदार को सजीव कर देती हैं।  उनमे अभिनय प्रतिभा है। वह सुंदर भी हैं। पर उनका वजन काफी लगता है।  अगर वजन कम करेंगी तो शायद अपनी युवा दंगल गर्ल फातिमा सना शैख़ की तरह मेनस्ट्रीम सिनेमा में जगह बना सकती हैं।  इन्सिया की माँ नजमा के किरदार में मेहर विज भी प्रभावित करती हैं।  इन्सिया के पिता फ़ारूक़ की भूमिका में राज अर्जुन का अभिनय भी बढ़िया है।  इन तीन मुख्य किरदारों के बीच चमकता है गुजराती चिंतन का किरदार।  चिंतन को तीर्थ शर्मा सहज ढंग से करते हैं।  आमिर खान बेहद अच्छे अभिनेता हैं।  उनका शक्ति कुमार की भूमिका करना, शायद अपनी फिल्म और अपने मुलाजिम अद्वैत को सफल बनाने की मज़बूरी थी। वह कपिल शर्मा की तरह दर्शकों को हंसा भी ले जाते हैं।
ऐसे में, जबकि कल गोलमाल अगेन रिलीज़ होने जा रही है, अजय देवगन का एक्शन अपनी कॉमेडियन मंडली के साथ सीक्रेट सुपरस्टार को बॉक्स ऑफिस पर उड़ा सकता है ।  इस फिल्म का भविष्य माउथ पब्लिसिटी और समीक्षकों की  राय पर ही निर्भर है।  

Wednesday 6 July 2016

बॉक्स ऑफिस पर 'सुल्तान' ! अरे छोडिये भाई !!!

सुल्तान कौन हैं ?
५२  साल  का सलमान खान- पहली रील से लेकर आखिरी  रील तक- हर फ्रेम में।
फिल्म में ३८ साल का पहलवान। लेकिन, अखाड़े पर और रिंग में दिग्गज पहलवानों को धुल चटाता मोटा- थुलथुल बूढ़े खच्चर जैसा फिफ्टी प्लस का सलमान खान।
हर सीन में, हर इमोशन में पिटे हुए मोहरे जैसा चेहरा।
आप किसी भी सीन में नहीं सोच सकते कि आगे क्या  होगा ! क्योंकि, हर सीन चुगली करता लगता है कि अब आगे यह होने वाला है।  कोई कल्पनाशीलता नहीं।  कोई तार्किकता नहीं। सलमान खान के पीछे दौड़ता कैमरा और हांफती स्क्रिप्ट।
अनुष्का शर्मा तो जैसे विराट कोहली के डर से सलमान खान के साथ ठीक से रोमांटिक सीन नहीं कर पा रही थी।  पहलवान लगने का सवाल नहीं उठता, टफ हरियाणवी कुड़ी तक नहीं लगी।  बस अपना रोल ठीक कर ले गई।   सलमान खान को खुद को दोहराना था, दोहरा दिया।  अब वह थक गए हैं।  दो चार साल में एक फिल्म किया करें तो ठीक रहेगा।  नहीं तो दर्शक धोबी पछाड़ दे मरेंगे।
अली अब्बास ज़फर ने लिखने से लेकर सीन गुनने तक का जिम्मा सम्हाला था।  इसी ने सब गुड गोबर कर डाला।  वह सलमान खान की इमेज के  नीचे दबे बुरी तरह से हांफ रहे थे।  बाहर निकलने की असफल कोशिश कर रहे थे।  वह ऐसे एक बेवक़ूफ़ और निकम्मे हरियाणवी सुल्तान को ओलिंपिक और विश्व कुश्ती चैंपियन बना रहे थे, जैसे जानते हों कि सलमान खान कुछ भी कर सकता है।  सुपर स्टार जो है।  सब कुछ बेहद नकली।  विशाल-शेखर का संगीत काफी भारी भरकम है।  उन्होंने तमाम गीतों की सिचुएशन ऎसी चुनी है, जो फिल्म की कहानी को रोकते हैं।  रामेश्वर एस भगत सलमान भक्ति में अपनी कैंची चलाना भूल गए।  नतीजतन फिल्म १७० मिनट लम्बी और उबाऊ बन गई।  सुल्तान के स्टंट देशी विदेशी को-ओर्डिनटर्स द्वारा तैयार किये गए हैं, लेकिन, इनमे रोमांच नदारद है।
फिल्म हरियाणा के सुल्तान की है, जो केवल छह महीने में न केवल कुश्ती सीख लेता है, बल्कि मिटटी वाले अखाड़े से सीधे गद्दे वाले रिंग पर खुद को सुल्तान साबित कर लेता है।  जबकि, हर कोई जानता है कि शुरूआती दौर में भारतीय पहलवान ओलंपिक्स या विश्व की अन्य प्रतिस्पर्द्धाओं में इस लिए सफल नहीं हो सके कि वह गद्दों पर कुश्ती लड़ने के आदी नहीं थे।  सलमान खान के सुल्तान का मार्शल आर्ट्स वाली रिंग पर कुश्ती में महारत कैसे हासिल कर ली, वह भी छह हफ़्तों में गले के नीचे नहीं उतरता।  फिल्म में ऎसी बहुत सी खामियां हैं।  इनसे फिल्म के साधारण लव स्टोरी भी नहीं रह जाती।

Friday 17 June 2016

बॉक्स ऑफिस पर 'उड़' न सकेगा यह 'पंजाब' !

पिछले दिनों अनुराग कश्यप और एकता कपूर के साथ बॉलीवुड के तमाम सितारे क्रिएटिव फ्रीडम का रोना रो रहे थे।  यह लोग बॉम्बे हाई कोर्ट तक पहुंचे और कोर्ट को अस्थाई सेंसर बोर्ड बना कर फिल्म से सेंसर द्वारा लगाए गए गालियों के कट हटवा लाये।  इसलिए उड़ता पंजाब की समीक्षा की शुरुआत फिल्म में गालियों से।  खूब गालियाँ है।  चरसी भी गाली बक रहे हैं और पुलिस वाले भी।  लड़कियाँ औरते भी और आदमी तो बकेंगे ही।  पर एक बात समझ में नहीं आई।  निर्माताओं ने अंग्रेजी सब टाइटल में अंग्रेजी में Mother Fucker को Mother F***er और Sister Fucker को Sister F***ker कर दिया है। क्यों ? अंग्रेजी में माँ को चो... में परेशानी क्यों हुई कश्यप और चौबे को !
जहाँ तक पूरी उड़ता पंजाब की बात है, इसे फिल्म के फर्स्ट हाफ, अलिया भट्ट और दिलजीत दोसांझ के बढ़िया अभिनय के लिए देखा जा सकता है।  अलिया ने बिहारन मजदूरनी और दिलजीत दोसांझ ने एक सब इंस्पेक्टर के रोल को बखूबी जिया है।  शाहिद कपूर के लिए करने को कुछ ख़ास नहीं था।  अनुराग कश्यप ने उन्हें स्टार स्टेटस दिलाने के लिए साइन किया होगा।  करीना कपूर बस ठीक हैं।
अभिषेक चौबे ने अपने निर्देशन के लिए फिल्म की पटकथा सुदीप शर्मा के साथ खुद लिखी है।  मध्यांतर से पहले फिल्म पंजाब के युवाओं में ड्रग्स के चलन, पुलिस भ्रष्टाचार को बखूबी दिखाती है।  लेकिन, फिल्म में सभी डार्क करैक्टर देख कर पंजाब के प्रति निराशा होती है।  पता नहीं कैसे उड़ता पंजाब की यूनिट पंजाब में फिल्म शूट कर पाई! इंटरवल के बाद अभिषेक चौबे की फिल्म से पकड़ छूट जाती है।  पूरी फिल्म एक बहुत साधारण थ्रिलर फिल्म की तरह चलती है।  लेखक के लिए पंजाब की ड्रग समस्या का हल बन्दूक ही लगाती है।  क्या ही अच्छा होता अगर दिलजीत दोसांझ और करीना कपूर के करैक्टर अख़बार, चैनलों और अदालतों के द्वारा पंजाब के ड्रग माफिया का सामना करते।  लेकिन, अनुराग कश्यप इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते।  संभव है कि लेखक जोड़ी की कल्पनाशीलता आम मसाला फिल्म लिखने से आगे नहीं बढ़ पाई हो।  फिल्म के कुछ दृश्य सचमुच स्तब्ध करने वाले हैं।  मसलन, अलिया भट्ट के करैक्टर को नशीले इंजेक्शन लगा लगा कर बलात्कार करने, ड्रग फैक्ट्री में नशीली दवाओं के निर्माण, करीना कपूर के करैक्टर की हत्या, आदि के दृश्य।  लेकिन, करीना कपूर की हत्या के बाद फिल्म हत्थे से उखड जाती है।  अभी तक सबूत जुटा रहा दिलजीत दोसांझ का करैक्टर एंग्री यंग मैन बन कर अपनो का ही खून बहा देता।
अनुराग कश्यप एंड कंपनी फिल्म के रशेज देख कर जान गई थी कि फिल्म में बहुत जान नहीं है। इसलिए, गालियों को बनाए रखने का शोशा छोड़ा।  कोई शक नहीं अगर सेंसर बोर्ड भी इस खेल में शामिल हो गया हो।  इसके एक सदस्य अशोक पंडित तो खुला खेल खेल रहे थे।
सुदीप शर्मा के संवाद ठीक ठाक है।  पंजाबी ज्यादा है।  अंग्रेजी सब टाइटल की ज़रुरत समझ में नहीं आई।  राजीव रवि के कैमरा और मेघा सेन की कैंची ने अपना काम बखूबी किया है।

Monday 21 December 2015

बेदिल 'दिलवाले' काशीबाई के बाजीराव

'दिलवाले' (आफ्टर बाईपास सर्जरी वाले)- डॉक्टर ने सर्जरी के बाद भूल से कलाकारों के दिल डस्ट बिन में डाल दिये। ऐसे में बेदिल शाहरुख़ खान, काजोल और रोहित शेट्टी टोटली ऑफ कलर। वैसे भी बासी कढी में कही उबाल आता है! शाहरुख़ खान दाढ़ी बढ़ा लेने से चक दे हो जाती तो अब तक तुम इंडिया पर छा जाते। लेकिन, इतनी बासी कहानी, सडियल दृश्यों और उतने ही रद्दी संवादों के कारण फिल्म घिसटती सी लगती है। शाहरुख़ खान ऊबे से लगते हैं। काजोल सोचती लगती हैं - ये कहाँ मैं आ फांसी। यहाँ तक कि वरुण धवन और रोहित शेट्टी का कॉमेडी तड़का भी सुगन्धहीन। कीर्ति सेनन पता नहीं अभिनय कर रही थी या सब को चिढ़ा रही थी। फिल्म कितनी ऊबाऊ होगी, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि वरुण धवन के दोस्त सिद्धू की भूमिका में वरुण शर्मा भी हँसाते हँसाते रुलाने लगते हैं। संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, मुकेश तिवारी और जॉनी लीवर जैसे एक्टर नीरस कॉमेडी करते हैं। विनोद खन्ना और कबीर बेदी ने इस फिल्म को अपनी दारू की बाटली खरीदने के लिए ही किया होगा। प्रीतम की धुनें ऎसी लगाती हैं जैसे बिना नहाये तैयार कर दी गई। यह फिल्म १०० करोडिया है, बजट के लिहाज़ से। लेकिन, १०० करोड़ का ग्रॉस ही इसके लिए ताज होगा।
सब कुछ बासी दिलवाले
बाजीराव मस्तानी - पता नहीं पेशवा बाजीराव नाचते थे या नहीं।  लेकिन, संजय लीला भंसाली की फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' के बाजीराव क्या खूब नाचते हैं।  उन्हें नाचते देख कर अपने बॉलीवुड एक्टर रणवीर सिंह की याद आ गई।  वह भी क्या खूब नाचते हैं।  गोलियों की रास लीला राम -लीला में वह क्या खूब नाचे थे।  लगता है बाजीराव ने राम-लीला देखी थी।  वह मस्तानी से रोमांस करते हैं।  मस्तानी उनकी कतार लेकर झाँसी से बाजीराव के घर आ धमकाती हैं।  कहती हैं कतार से विवाह हो गया।  इन दोनों का रोमांस देखते हुए मुग़ल ए आजम याद आ जाती है।  कोफ़्त होती है, यही गहराई रह गई है २१ वी सदी के रोमांस में।  बिलकुल ठन्डे बाजीराव, उससे ज़्यादा ठंडी मस्तानी।  इससे ज़्यादा गर्मागर्म रोमांस तो रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण स्टेज पर कर मारते हैं।  लेकिन, मान गए प्रियंका चोपड़ा को।  काशीबाई को जीवंत कर दिया।  कलाकारों की भीड़ जमा है।  सब अपने अपने रोल में फिट हैं।  संजय लीला भंसाली हिंदी दर्शकों के लिए नई प्रेम कथा लाये हैं।  विज़ुअल प्रभावशाली हैं।  सेट, कॉस्ट्यूम, लोकेशन सब कुछ बढ़िया।  आखिरी के दृश्य तो भंसाली की कल्पनाशीलता के प्रमाण हैं।  अगर रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण  का ऑन स्क्रीन रोमांस जम पाता को एक अविस्मरणीय फिल्म बन जाती।  

Friday 30 October 2015

'गुड्डू की गन' सीले कारतूस वाली

श्रीशक आनंद और शांतनु रॉय छिब्बर की लिखी और निर्देशित फिल्म 'गुड्डू की गन' से दो बातों की जानकारी होती है।  पहली यह कि बिहारी वैलेंटाइन्स डे नहीं मनाते।  जो मनाते हैं वह कैसे मनाते हैं यह गुड्डू की गन देख कर ही समझ जा सकता है। दूसरी यह कि अगर आप औरतों के हमबिस्तर होते समय यह नहीं समझते कि आप किसी भोली लड़की का दिल तोड रहे हैं तो आपका लिंग (फिल्म में इस शब्द का उपयोग किया गया है) सोने का हो जायेगा।  यह अपनी पहले वाली स्थिति में तभी जायेगा, जब आपको सच्चा प्यार मिलेगा।  इस थ्योरी को अगर द्विअर्थी संवादों और अश्लील घटनाओं के साथ फिल्माया जाये तो यह 'गुड्डू की गन' बन जाएगी।  'गुड्डू की गन' बिहार के गोवर्धन उर्फ़ गुड्डू की कहानी है, जो कलकत्ता के जिस घर में वाशिंग पाउडर बेचने जाता है, वहाँ की औरत को बिस्तर तक आसानी से ले जाता है। इस फिल्म से दो बाते साफ़ होती है।  पहली यह कि बिहारी लोग औरतबाज़ हैं, उनका सेक्स का स्टैमिना काफी ज़्यादा है।  दूसरा यह कि कलकत्ता या कहिये पूरे बंगाल की औरते, खासकर विवाहित औरते चरित्रहीन हैं और किसी भी फेरी वाले के साथ हमबिस्तर हो जाती हैं।  इस घटिया थ्योरी को लेकर श्रेषक और शांतनु ने पूरी तरह से फूहड़ फिल्म 'गुड्डू की गन' बुनी है।  फिल्म को देखा कर साफ हो जाता है कि कभी पहलाज निहलानी के जिस सेंसर बोर्ड पर कम्युनल होने का चार्ज लग रहा था, अब वह पूरी तरह से सेक्युलर बैटरी से चार्ज हो गया है। यह फिल्म मानसिक रूप से बीमार और औरतों में चमड़ी देखने वाले दर्शकों को ख़ास पसंद आने जा रही है।  फिल्म के नायक गुड्डू की भूमिका कुणाल खेमू ने की है।  विश्वास नहीं होता है कि इसी एक्टर ने बालपन में ज़ख्म जैसी फिल्म में मार्मिक अभिनय किया था।  उनका कलयुग का डेब्यू भी ज़ोरदार था।  लेकिन, कहते हैं न कि समय क्या क्या नहीं दिखा देता है।  फिल्मों की लगातार असफलता ने कुणाल खेमू को  गुड्डू की गन दिखाने को मज़बूर कर दिया।  फिल्म से बांगला फिल्म एक्ट्रेस पायल सरकार का हिंदी फिल्म डेब्यू हुआ है।  पता नहीं क्यों इस खूबसूरत एक्ट्रेस ने अपनी खूबसूरती और टैलेंट को इस घटिया फिल्म में जाया किया।

फिल्म 'मैं और चार्ल्स' में न 'मैं' न 'चार्ल्स'

आज के फिल्मकारों की फ़िल्में अब स्वान्तः सुखाय बनने लगी हैं। मल्टीप्लेक्स थिएटर और उनके बढी टिकट दरें किसी भी कूड़ा फिल्म को उसका पैसा वापस दिलवा देती हैं। ऐसे में कूड़ा फिल्मों का बनते रहना लाजिमी है।  प्रवाल रमण के निर्देशन में चार्ल्स शोभराज की बायोपिक फिल्म 'मैं और शोभराज' ऎसी ही कूड़ा फिल्म हैं। इस फिल्म में चार्ल्स शोभराज के औरतों के प्रति अपराधों को ग्लोरीफाई नहीं, सेक्सीफाई किया है। हर औरत किरदार नंगा होने को तैयार है . चार्ल्स के जाल में फंसी औरतों का नंगापन पूरी फिल्म में हैं. पूरी फिल्म चार्ल्स शोभराज के एक शहर से दूसरे शहर भागते, पुलिस के उसके पीछे दौड़ते ही बीत जाती है. जब ख़त्म होती है तो यह साफ़ नहीं हो पाता कि शराब व्यवसाई पोंटी चड्डा के बैनर ने इस फिल्म को बनाया क्यों ? प्रवाल रमण पहले ही कह चुके थे कि वह चार्ल्स शोभराज को ग्लोरीफाई नहीं कर रहे . लेकिन, उन्होंने पुलिस को भी ग्लोरीफाई  नहीं किया . नतीजे के तौर पर परवाल के न चाहते हुए भी चार्ल्स शोभराज का करैक्टर उभरा. भारत मे चार्ल्स को सज़ा दिलवा कर फिल्म ख़त्म हो जाती है, जबकि चार्ल्स शोभराज के अपराधों की लिस्ट उसके बाद भी बढती चली जाती है. अभिनय के लिहाज़ से चार्ल्स शोभराज की भूमिका में रणदीप हूडा और पुलिस अधिकारी आमोद कंठ की भूमिका में आदिल हुसैन खूब जमे हैं. ऋचा चड्डा तो जैसे समझती हैं कि वह दिखा देंगी तो लोग देखने चले आयेंगे. जबकि, दर्शक ऋचा के अभिनय वाली फिल्म देखने आते हैं. जैसे कि फिल्म राम-लीला में उनका किरदार . लेकिन, इस फिल्म में वह अभिनय से कोसों दूर रहती हैं. टिस्का चोपड़ा के करने के लिए कुछ ख़ास नहीं था. वैसे फिल्म में स्त्री पुरुष किरदारों की इफरात है. लेकिन, सब दर्शकों को कंफ्यूज करने के लिए हैं. फिल्म को उलझा देते हैं. फिल्म की सबसे बड़ी कमी है इसके ज्यादा इंग्लिश संवाद. ख़ास तौर पर चार्ल्स शोभराज के किरदार के मुंह से टूटी फूटी हिंदी ही बुलवाई गई है, जिसमे अंग्रेज़ी शब्द या कहिये वाक्य ज्यादा हैं. रणदीप हूडा अपने संवाद बोलते कुछ ऐसे हैं कि ज़्यादातर समझ में ही नहीं आते. प्रवाल रमण को इसे सिंक साउंड के ज़रिये हिंदी में कर देना चाहिए था. इसलीये यह फिल्म सिंगल स्क्रीन के लिए अपनी अपील खो बैठती है. महिला चरित्रों की कामुक छवि के ज़रिये दर्शक बटोरे जा सकते थे, लेकिन इसमे भी आधा अधूरा सा ही है. प्रवाल रमण ने फिल्म को खुद लिखा है. उन्होंने जैसा विसुअलाइज किया होगा, वैसा ही लिखा होगा. कुछ जगह वह फिल्म में दिलचस्पी पैदा करते हैं. मसलन, चार्ल्स का अपने अपराध स्वीकार करना. उसका बड़ी चालाकी से विदेसी टूरिस्ट को निशाना बनाना, आदि दृश्य . अगर प्रवाल फिल्म को चार्ल्स शोभराज की आज की स्थिति पर ख़त्म करते तो फिल्म अधूरी सी नहीं लगती। कुल मिलाकर फिल्म चार्ल्स ग्लोरीफाई तो नहीं करती, लेकिन मैं को भी नहीं उभारती. इसलिए लगता नहीं कि फिल्म को बहुत दर्शक मिल पाएंगे.

Friday 23 October 2015

'शानदार' नहीं है विकास बहल की फिल्म

जब कोई खुद की सफलता पर अति मुग्ध हो जाता है. जिस पर फैंटम फिल्म के अनुराग कश्यप और करण जौहर का प्रभाव हो, वह विकास बहल हो जाता है और 'शानदार' बनाता है . फिल्म में अनुराग कश्यप का प्रभाव है तो संजय कपूर का किरदार हमेशा बन्दूक हाथ में लिए रहता है . दादी फायरिंग करने की कल्पना करती रहती है . वह जवान शाहिद कपूर को देख कर मुग्ध हो जाती है. करण जौहर के प्रभाव से गे और लेस्बियन किरदार हैं. खुद करण जौहर बकवास किस्म का काफी विथ करण खेल रहे हैं . इस फिल्म में विशाल भरद्वाज की फिल्म 'मटरू की बिजली का मंडोला' वाली बकवास भी है.एक से एक बेसिर पैर के सीन हैं .खुद को महान एक्टर समझ चुके शाहिद कपूर हैं. उन्हें अभिनय करते देख कर पता चलता रहता है कि वह अपने ज़बरदस्त (!) अभिनय की चाशनी टपका रहे हैं . जिसे एक रत्ती भी अभिनय नहीं आता, वह आलिया भट्ट हैं. कोई नदारद है तो वह है विकास बहल. विश्वास नहीं होता कि 'क्वीन' जैसी ज़बरदस्त फिल्म बनाने वाला विकास बहल ऎसी बकवास और उकताऊ फिल्म बना सकता है . फिल्म का केवल एक उजागर पक्ष है, वह है शाहिद कपूर की सौतेली बहन और पंकज कपूर और सुप्रिया पाठक की बेटी सना कपूर. इस लड़की में सम्भावनाये हैं. पंकज कपूर कहीं कहीं जमे हैं . विकास बहल ने अलिया जगजिंदर के साथ सो गई जैसे प्रसंग रच कर हास्य पैदा करने की असफल कोशिश की है. अलिया भट्ट रात में सो नहीं पाती, वह रजाई ओढ़ बत्ती जला कर केला खाती है. इसका क्या मक़सद विकास ने बताया नहीं. संगीत अच्छा है, लेकिन गीत ठूंसे हुए हैं. 
फिल्म देखनी है ! देख आओ. देख लेना कि अंटी में फालतू पैसे हैं !

Friday 9 October 2015

संजय गुप्ता का कोरियाई 'सेवेन डेज' 'जज्बा' !

संजय गुप्ता यह तो मानते हैं कि उनकी फिल्म 'जज्बा' कोरियाई फिल्म 'सेवेन डेज' का अधिकारिक रीमेक फिल्म है. लेकिन, मौखिक रूप से . वह फिल्म में कहीं भी 'जज्बा' को 'सेवेन डेज' की कॉपी नहीं बताते. जबकि, वास्तविकता तो यह है कि 'जज्बा' कोरियाई फिल्म की कॉपी नहीं कार्बन कॉपी है. एक एक और छोटे से छोटा डिटेल भी कोरियाई फिल्म से है. जहाँ उन्होंने दिमाग लगाने की कोशिश की है, वहां बचकानापन आ गया है. फिल्म में ऐश्वर्या राय की बेटी की खोज में इरफ़ान एक मिटटी के टीले पर बैठ कर बिना दूरबीन के एक घर की निगरानी कर रहे हैं, जबकि मूल फिल्म का पुलिस ऑफिसर उस घर के सामने के घर से निगरानी कर रहा है. बाकी, फिल्म का एक एक सीन सेवेन डेज से कॉपी किया हुआ है. यहाँ तक कि फिल्म का एक गीत आज रात का सीन मूल फिल्म की नक़ल में ही डाला गया है . फिल्म डायलाग भी मौलिक नहीं, अनुवाद हैं . संजय गुप्ता की फिल्म के क्रेडिट में योएन जाए-गु का नाम बतौर पटकथा लेखक नहीं दिया गया है. जबकि, फिल्म के सीन्स की कॉपी करने वाले संजय गुप्ता और रोबिन भट्ट पूरा क्रेडिट लेते हैं. डायलाग राइटर के रूप में कमलेश पाण्डेय का नाम है. जबकि, वास्तव में वह 'सेवेन डेज' के डायलाग के ट्रांसलेटर ज्यादा हैं. हर संवाद अनुवाद किया हुआ है. चूंकि, यह एक वकील माँ की कहानी है, इसलिए भारतीयकरण करना आसान हो जाता है. अन्यथा संजय गुप्ता कितनी मौलिकता दिखा सकते हैं पता चल जाता. चूंकि, सेवेन डेज की कार्बन कॉपी फिल्म है जज्बा, इसलिए इसकी कथा-पटकथा और निर्देशन पर टिपण्णी करना बेकार है. बस इतना कहा जा सकता है कि फिल्म की रफ़्तार तेज़ है. मूल फिल्म थोड़ा लम्बी हो गई थी, जज्बा में वह बात नहीं.
इस फिल्म का ज़िक्र अभिनय के लिए किया जा सकता है. इस फिल्म को शबाना आजमी, इरफ़ान खान और ऐश्वर्या राय बच्चन के लिए इसी क्रम में देखा जा सकता है. सबसे बढ़िया अभिनय शबाना आजमी का है. हालाँकि, वह जिस प्रोफेशनल तरीके से अपनी बेटी के कातिल को जेल से बाहर लाती हैं और जला कर मार डालती हैं,  वह गले नहीं उतरता. लेकिन, अपने अभिनय से शबाना आजमी ऐश्वर्या राय बच्चन पर भारी पड़ती हैं. इरफ़ान का अभिनय भी अच्छा है. वह पंच लाइन मारते समय स्वर्गीय राजकुमार की याद दिलाते हैं. लेकिन, अब उनका स्टाइल थोड़ा बासी होता जा रहा है. वह बहुत बार ऐसे किरदारों को बखूबी कर चुके हैं. ऐश्वर्या राय बच्चन ने बढ़िया अभिनय किया है, लेकिन शानदार नहीं. वह 'सेवेन डेज' की युनजिन किम के आसपास तक नहीं. युनजिन ने एक माँ के दर्द को खूसुरती से उभारा था. ऐश्वर्या राय बच्चन इसे लाउड होकर खेलने की कोशिश करती हैं.
अब रही बात फिल्म देखने की ! भाई आपने कोरियाई फिल्म 'सेवेन डेज' नहीं देखि तो जज्बा देख डालिए. एक टिकट में दो फ़िल्में देखने को कहाँ मिलती हैं.


Friday 2 October 2015

क्या बॉक्स ऑफिस पर 'ब्लिंग' कर पायेगा यह 'सिंह' !

सबसे पहले अक्षय कुमार से एक बात ! अब कुछ नया करें. सरदार बन कर लुंगी कुरता पहन कर ओवर कॉमेडी करना छोड़े. ऐसी भाव भंगिमाए और एक्शन आप सहित बहुत से बॉलीवुड स्टार कर चुके हैं. फिल्म में तोआप बहुत साधारण एक्टिंग करते हैं. यह कह सकते हैं कि आप पहले की अपनी भूमिकाओं को बार बार दोहराते हैं. आपके एक्शन भी ख़ास नहीं. आपसे ज्यादा दमदार एक्शन एमी जैक्सन के पल्ले पड़े हैं . वह दर्शकों की खूब तालियाँ बटोर ले जाती हैं. अक्षय तो फीके लगते ही हैं. निर्देशक प्रभुदेवा ने भी रूटीन काम किया है. एक भी सीन, एक भी परिस्थिति और नृत्य गीत ताज़गी भरे नहीं. खुद प्रभुदेवा का निर्देशन साधारण है. रूमानिया के प्राकृतिक दृश्य और इमारतें खूबसूरत हैं, लेकिन वृत्त चित्र स्टाइल में शूट किये गए हैं . शिराज़ अहमद और चिंतन गाँधी की कहानी और संवाद साधारण दर्जे के हैं. शिराज़ एक भी सीन ऐसा तैयार नहीं कर पाए हैं, जो दर्शकों को नया लगे. सच तो यह है कि कहानी ही सिरे से स्वाभाविक नहीं है. अक्षय कुमार के रफ़्तार सिंह का रूमानिया जाना, एमी जैक्सन का माँ को खोजने गोवा में आना और फिर माँ के मिलने के बावजूद वापस चला जाना स्वाभाविक नहीं लगता. ऐसा लगता है कि कुछ ख़ास लोकेशन को तय कर फिल्म बना दी गई . अक्षय कुमार की दुभाषिये के बतौर लारा दत्ता हंसाती तो हैं, लेकिन, ओवर हो कर. उनका करैक्टर भी अधूरा है .केके मेनन ऎसी भूमिकाएं इतनी बार कर चुके हैं कि अब फिल्म में उनके विलन अवतार को देख कर ऊब लगती हैं . इस फिल्म से किसी को फायदा होगा तो वह हैं एमी जैक्सन . आई के बाद वह सिंह इज ब्लिंग में हिंदी दर्शकों को प्रभावित कर सकेंगी . 
सिंह इज ब्लिंग ने गाँधी जयंती वीकेंड पर ज़बरदस्त इनिशियल तो ले लिया. लेकिन, वीकेंड में यह जलवा कायम रख पायेगी, इस पर शक है. 

यह 'पुलि' चीता इतना बहादुर भी नहीं

दक्षिण की सामान्य फिल्में हिंदी में डब कर रिलीज़ नहीं की जाती . टेलीविज़न चैनल ज़रूर इन फिल्मों का प्रसारण करते हैं. रजनीकांत और कमल हासन जैसे अभिनेताओं की तमिल और तेलुगु फ़िल्में ज़रूर डब हो कर प्रदर्शित होती हैं. लेकिन, इस साल जुलाई में रिलीज़ ऐतिहासिक फिल्म 'बाहुबली : द बेगिनिंग' ने और इससे पहले 'आई' ने दक्षिण की फिल्मों का  डंका बजा दिया था. फिल्म अपने विसुअल कंटेंट, अभिनय, वीएफ़क्स और भव्यता के बल पर दर्शको के दिलों दिमाग पर छा गई . ऐसा लगा जैसे दक्षिण श्रेष्ठ फ़िल्में बना रहा है . शायद इसीलिए हिंदी दर्शकों को फंतासी-एडवेंचर फिल्म पुलि (चीता) का इंतज़ार था . 'पुलि' का हिंदी डब संस्करण आज गाँधी जयंती के दिन रिलीज़ हुआ. निर्देशक चिम्बु देवेन की फिल्म पुलि में तमिल स्टार विजय के साथ पूर्व तमिल फिल्म स्टार और हिंदी फिल्मों में कभी टॉप की अभिनेत्री  रही श्रीदेवी के अलावा श्रुति हास, सुदीप, हंसिका मोटवानी, नंदिता श्वेता, प्रभु, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं . फिल्म किस युग की है, कहना ज़रा मुश्किल है. पर मसाला भरा पूरा है. राजा, रानी,  राजमहल, कॉस्टयूम और चमत्कार हैं. एक्शन खूब है. फिल्म की नायिका श्रुति हासन थोड़ा अंग प्रदर्शक पोशाक पहनती हैं, तो हसिका मोटवानी थोड़ी ज्यादा. श्रीदेवी पोशाकों के लिहाज़ से भड़कीले अंदाज़ में हैं. उनके चहरे का बुढापा फूट फूट कर बाहर नज़र आता है. लेकिन, श्रुति हासन, हंसिका मोटवानी की तरह अभिनय वह भी नहीं करती . सुदीप सशक्त अभिनेता हैं . लेकिन, सेनापति दलपति जलतारंगन के किरदार में वह प्रभावहीन रहे हैं. निराशा होती है विजय को देख कर. वह तमिल फिल्म प्रोडूसर और डायरेक्टर एस ए चंद्रशेखर के बेटे हैं . तमिल फिल्मो में उनकी स्थिति सुपर स्टार जैसी है . लेकिन, लगता नहीं कि उन्हें अभिनय का क ख ग घ आता है . उनकी बॉडी लैंग्वेज और संवाद हमेशा एक दूसरे से ३६ का आंकड़ा बनाए रखते हैं. ऐसा लगता है जैसे वह हर सीन में कॉमेडी कर रहे हैं. एक्शन में भी वह नहीं जमे. विश्वास नहीं होता कि पुलि के वीएफ़क्स मगधीरा और ईगा के वीएफ़क्स डायरेक्टर कमलाकन्नन ने तैयार किये हैं. बेहद बचकाना और नकली दृश्य लगते हैं. बिलकुल रोमांचित नहीं करते. आर्ट डायरेक्टर टी मुथुराज ने किले की प्रतिमूर्ति बनाने में अपना हुनर दिखाया है. पुलि गाँधी जयंती के दिन और 'सिंह इज ब्लिंग' के अपोजिट रिलीज़ हुई है . लेकिन, यह अपना वीकेंड वाला जलवा वीक डेज में दिखा पाने में नाकामयाब होगी. 
एक सुझाव है दक्षिण के फिल्म निर्माताओ के लिए. उनको अपनी सभी फिल्मों को डब कर रिलीज़ नहीं करना चाहिए. इस प्रकार से दक्षिण की फिल्में अपना प्रभाव खो बैठेंगी . वैसे अब अगला हफ्ता बताएगा कि रुद्रमदेवी क्या गुल खिलाती हैं !

Friday 25 September 2015

कॉमेडी की ज़बरदस्त डोज 'किस किस को प्यार करू'

हंसाने के लिए ज़रूरी नहीं ओवरडोज़।  ठीक ठाक, संतुलित सिचुएशन, संवाद और अभिनय का मिश्रण हो तो दर्शकों की हँसी रोके नहीं रुक सकती।  उन्हें तो हंसना ही है।  अब्बास-मुस्तन की न्रिदेशक जोड़ी 'किस किस को प्यार करू' में कुछ ऐसा ही इरादा जताते नज़र आती है।  एक कपिल शर्मा ! तीन बीवियां (साईं लुकुर, मंजरी फडनिस और सिमरन कौर मुंडी) ! यानि एक पति, तीन पत्नियाँ और चौथी वह (एली एवरम)!!! इन सबके बीच कई पात्र (कपिल शर्मा के माता-पिता सुप्रिया पाठक और शरत सक्सेना, वकील दोस्त करण वरुण शर्मा, कपिल शर्मा का बहरा साला बने अरबाज़ खान) . सब ज़बरदस्त हास्य की रचना करते हैं. वरुण शर्मा की साइंस का फंडा और अरबाज़ खान का बहरापन हंसा हंसा कर लोट पोट कर देता है। अकेले कपिल शर्मा, चाहे खड़े हों या बैठे हों, हंसाते हैं और सिर्फ हंसाते हैं. हर बीवी के साथ उनकी बेबसी दर्शकों को पेट पकड़ने के लिए मजबूर कर देती है. अब्बास-मुस्तन की निर्देशक जोड़ी का कपिल शर्मा का कॉमेडी त्रिकोण ज़बरदस्त है. लेकिन, इस तिकड़ी को
मक़बूल करती है अनुकल्प गोस्वामी और धीरज सरना की स्क्रीनप्ले और डायलाग राइटर जोडी। इन दोनों ने कपिल शर्मा की तीन बीवियों और वकील दोस्त के रहने के लिए कॉकटेल टावर्स की ईजाद की है।  हर बीवी के लिए हेड ऑफिस, ब्रांच ऑफिस और रीजनल ऑफिस का फंडा अपने आप में यूनिक और हास्य पैदा करने वाला है। अब्बास मुस्तन की जोड़ी की यह पहली कॉमेडी फिल्म है।  उन्होंने अपनी थ्रिलर फिल्मो की तरह दिलचस्प दृश्य रचना की है। कपिल शर्मा का ऑफिस जाते समय बिल्डिंग के नीचे से अपनी तीनों बीवियों को बाय बाय करना और वाचमैन का इस दृश्य को बड़े कौतूहल से देखना, कल्पनाशीलता का अच्छा नमूना है।  करवाचौथ के दिन कपिल शर्मा के चरित्र का एक ही समय अपनी पत्नियों के सामने आना भी हंसाने वाला यूनिक कल्पना है। गीत संगीत ठीक ठाक हैं। एली एवरम ने अपने निर्माताओं वीनस रिकार्ड्स एंड टेप के डिस्को गर्ल के पैसे बचवा दिए हैं।  वह क्लब गर्ल का जिम्मा भी उठाती हैं। इस फिल्म को कपिल शर्मा के लिए ही नहीं, किसी के लिए भी देख सकते हैं। एक बार तो ज़रूर देखी जा सकती है- किस किस को प्यार करू.



Friday 11 September 2015

फ़ास्ट फ़ूड ! इंस्टेंट कॉफ़ी !! इंस्टेंट सेक्स !!! और 'हीरो' की आलू-गोभी सब्जी

सलमान भाई ! फ़ास्ट फ़ूड,  इंस्टेंट कॉफ़ी, इंस्टेंट सेक्स की आदत वाली युवा पीढी के सामने यह कौन सा आलू-गोभी 'हीरो' पेश कर दिया ! स्साला हीरो आपकी तरह अधनंगा हो कर अपना बदन दिखाता है, ढेरों टैटूज का प्रदर्शन करता है, हीरोइन को ऐसे देखता है, जैसा बकरा पीपल की पत्ती खाना चाहता है . दर्शक बेचारे सीटी मारते चीखते चिल्लाते हैं, इस आशा में कि अब देर में ही सही एकाध सेक्स हो ही जायेगा. लेकिन, हीरो हीरोइन होंठो के बजाय गाल चूम कर खुद को सब्जी पसंद साबित करता है.
इस बिलकुल ठंडी फिल्म में उभरे होंठों वाली अथिया शेट्टी भी ठंडी रही.लगता है अपने पप्पा शेट्टी से नॉन एक्टर का पाठ पढ़ कर आई हैं. सूरज पंचोली की गर्दन ऐसे लटकी रहती है, जैसे वह नेक कालर उतार कर शूटिंग पर आया है. सूरज के रियल लाइफ आदित्य पप्पा जब पहली बार परदे पर नज़र आते हैं, तो दर्शक तालियाँ बजाते हैं. लेकिन, जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है दर्शक उन्हें गरियाने लगते हैं कि साला क्या बोर कर रहा है. तिग्मांशु धुलिया ने पुरानी हीरो के शम्मी कपूर के पुलिस बूट में पैर डाले हैं. लेकिन, ऐसा लगता है कि वह गैंगस्टर जूते पहनने के ही आदी है. लगता है गैंग्स ऑफ़ वासेपुर २ का लास्ट सीन ख़त्म कर हीरो के सेट पर आ गए हैं. शरद केलकर कुछ ख़ास नहीं जमे . फिल्म में कुछ अच्छा रहा, वह था एक्शन। फिल्म के एक्शन दर्शकों की तालियां पाते हैं।

Friday 4 September 2015

भाइयों के कॉमेडी वर्ल्ड का 'वेलकम बैक'





सलमान खान के खाते में एक और सौ करोडिया फिल्म 'रेडी' २०११ में रिलीज़ हुई थी।  इस फिल्म के चार साल बाद निर्देशक अनीस बज़्मी एक बार फिर हाज़िर हैं, तो यकीन जानिये आपके लिए हंसने के मौके ही मौके हैं। अनीस  बज़्मी ने राजीव कौल के साथ कहानी लिखी है।  लेकिन, कहानी कुछ भी नहीं है।  २००७ के 'वेलकम' का २०१५ संस्करण।  अक्षय कुमार की जगह उनके दोस्त जॉन अब्राहम ने ले ली है। अनीस बज़्मी को कटरीना कैफ के बाद सोनाक्षी सिन्हा नहीं मिली तो श्रुति हासन को ले लिया।  मल्लिका शेरावत का किरदार अंकिता श्रीवास्तव के हत्थे चढ़ा है।  फ़िरोज़ खान नहीं रहे तो वांटेड भाई बन कर नसीरुद्दीन शाह आ गए।  शाइनी आहूजा को चरसी बना कर पेश कर दिया।  अक्षय नहीं हैं अनीस बज़्मी ने उनकी सास डिंपल कपाड़िया से काम चला लिया है।
अब बात फिल्म की ! सोचने का टाइम ही नहीं मिला।  हँसते हँसते बेहाल।  अनीस बज़्मी की आदत है कि वह कभी कभी तो सेट पर आ कर ही स्क्रिप्ट लिखते हैं। उनके सीन यकायक बदल सकते हैं।  उन्होंने अपने तीन साथियों राजीव कॉल, राजन अग्रवाल और प्रफुल्ल पारेख के साथ लिखी है।  चुन चुन कर सीन लिखे हैं।  बेशक कोई सर पैर नहीं ! लेकिन, अनीस की फिल्म में सर पैर क्यों खोजो।  हंसों भाई हंसों।  फिल्म का हर सीन हंसाता है।  एक से बढ़ कर एक हँसी के गोल गप्पे।  इन हंसी के गोल गप्पों में राज शांडिल्य ने बढ़िया मसाला पानी मिलाया है।  तभी तो हँसते हँसते आँखों से आंसू निकल सकते हैं।
रही बात अभिनय की तो नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर, अनिल कपूर और परेश रावल का जवाब नहीं।  क्या कॉमेडी टाइमिंगस हैं इन चारों अभिनेताओं की।  बिलकुल गंभीर बने हुए, ऊट पटांग सिचुएशन में भी यह चारों दर्शकों को पगला देते हैं। जॉन अब्राहम एक्शन सींस में अच्छे लगते हैं।  वैसे इस फिल्म से उन्हें फायदा होगा।  श्रुति हासन मोटी हैं, हिंदी डायलाग बोलने में कच्ची हैं और कॉमेडी की समझ भी नहीं है।  डिंपल कपाड़िया ने इस फिल्म को पैसा कमाने की खातिर ही किया होगा।  शाइनी आहूजा बेकार लगे।  अंकिता श्रीवास्तव बदसूरत हैं, संवादों के मामले में कच्ची हैं और अभिनय में अभी बच्ची हैं।  उन्हें अनीस और फ़िरोज़ नाडियाडवाला ने ग्लैमर बिखेरने के लिए लिया था, पर यह जब आती हैं कहानी को बिखेर देती हैं।
फिल्म के मूड के अनुरूप धूम धड़ाके वाला संगीत है।  फिल्म बुरा नहीं लगता।  कबीर लाल की फोटग्राफी फिल्म के थ्रिल और यूनाइटेड एमिरेट्स (दुबई और अबु धाबी) की रेगिस्तानी खूबसूरती को बखूबी उभारा है। फिल्म को एडिटर स्टीवन एच बर्नार्ड ने अपने शिकंजे में ऐसा कैसा है कि फिल्म अपने ट्रैक से भटकने नहीं पाती।  अरे हाँ ! सुरवीन चावला और संभावना सेठ का एक एक आइटम भी है।
अगर आप इस फिल्म को देखना चाहते हैं तो केवल हंसने के ख्याल से देखिये।

Friday 14 August 2015

इन 'ब्रदर्स' के बीच प्यार और नफरत का रिश्ता है !

निर्माता करण जौहर की करण मल्होत्रा निर्देशित फिल्म 'ब्रदर्स' २०११ में रिलीज़ हॉलीवुड की फिल्म 'वारियर' का हिंदी रीमेक है।  फिल्म को हिंदी में एकता पाठक मल्होत्रा ने ढाला है।  सिद्धार्थ और गरिमा ने संवाद लिखे हैं। पूरी फिल्म 'वारियर' के साँचे में ढली है।  'ब्रदर्स'  अच्छी  फिल्म  देखने वालों के लिए हैं।  क्रांतिकारी और बिलकुल अलग समीक्षा लिखने के शौक़ीन समीक्षक इस फिल्म को नकारेंगे।  लेकिन, इस फिल्म मे जहाँ एक्शन है, वहीँ ज़बरदस्त इमोशन है।  रिंग पर जहाँ निर्मम हिंसा हैं (स्ट्रीट फइटरों के रिंग में ककड़िया तो चटकेंगी नहीं), वहीँ उसी समय भावनाए और संवेदनाएं भी हैं। करण जौहर, करण मल्होत्रा और उनकी टीम ने एक बेहद संतुलित फिल्म तैयार की है। बर्बाद परिवार खील खील होकर बिखरते हैं, लेकिन मिलते भी है ऐसे ही किन्ही नाज़ुक क्षणों में। अक्षय कुमार ने कमाल का अभिनय किया है। उनसे इतने उम्दा अभिनय की उम्मीद नहीं की जाती थी। सिद्धार्थ मल्होत्रा थोडा कमज़ोर लगे।  जैक्विलिन फ़र्नान्डिस ने अपनी अभिनय प्रतिभा दिखाई है।  जैकी श्रॉफ अपनी भूमिका में फबे हैं। शेफाली शाह की भूमिका छोटी मगर मज़बूत है। करीना कपूर ने आइटम मेरा नाम मैरी है में कामुकता का प्रदर्शन किया है।  वह करण मल्होत्रा की फिल्म 'अग्निपथ' में अपनी होने वाली भाभी के डांस 'चिकनी चमेली' से होड़ लेती लगी। करण जौहर ने रिंग के दृश्य परफेक्ट बनवाए हैं। ऐसा लगता है जैसे दर्शक रियल रिंग देख रहे हैं। हेमंत चतुर्वेदी की फोटोग्राफी जानदार है।  स्टेडियम को बखूबी उभरा गया है। अजय- अतुल का संगीत ठीक ठाक है। फिल्म के मूड को उभरता है। अकिव अली की एडिटिंग धारदार है। फिल्म १५६ मिनट लम्बी है।  इस फिल्म से हॉलीवुड के एक और स्टूडियो लायंस गेट का बॉलीवुड से को- प्रोडक्शन शुरू हो रहा है।
फिल्म को सुपर हिट होने से कोई नहीं रोक सकता।

Friday 17 July 2015

क्या इस 'बजरंगी' को पसंद करेंगे 'भाईजान' ?

सलमान खान और कबीर खान ईद से पहले इसी सवाल का जवाब ढूँढ़ते होंगे ? 
एक महा हनुमान भक्त, जो मांस मछली नहीं खाता, मस्जिद और मजार में नहीं घुसना चाहता, लेकिन एक पाकिस्तानी लड़की के लिए अवैध तरीके से पाकिस्तान घुसने से नहीं हिचकता . पाकिस्तान में भी वह हनुमान जी की दुहाई देता रहता है . इसमे कहीं साम्प्रदायिकता नहीं. कहीं पाकिस्तान को गाली नहीं दी गई है. कहीं पाकिस्तान की सहलाई भी नहीं गई है . कबीर खान ने एक बहुत अच्छी कहानी, बड़े शानदार तरीके से कही है . इसमे न कहीं सेकुलरिज्म है, न कही हिन्दुवाद, न इस्लाम का अतिरेक. थोड़ा ड्रामा ज्यादा है. लेकिन, जहाँ हीरो की छवि से अलग फिल्म बनानी हो तो इतना ड्रामा रखना ही होगा.लेकिन अनावश्यक ड्रामेबाजी/भाषणबाजी नहीं है . यही फिल्म का पॉजिटिव पॉइंट है . ज़ाहिर है कि बजरंगी भाईजान मास्टरपीस फिल्म है . किसी भी समय में हिट होने वाली फिल्म है .
अगर इस गुलाल उड़ाते बजरंगी को भाईजान ने पसंद कर लिया तो सलमान खान की बजरंगी भाईजान बॉक्स ऑफिस पर आमिर खान की फिल्म 'पीके' को ज़बरदस्त किक मारने जा रही है. इसीलिए यह सवाल बड़ा हो जाता है कि क्या इस बजरंगी को पसंद करेंगे भाईजान ?

Friday 10 July 2015

परदे पर 'बाहुबली' की ताक़त नज़र आती है

मानना पड़ेगा कि साउथ में टैलेंट भरा पडा है. क्या शानदार फिल्म है बाहुबली. एस एस राजामौली जैसा डायरेक्टर इंडियन फिल्म इंडस्ट्री के लिए नगीना है . एक ऐतिहासिक फिल्म को इस शानदार तरीके से परदे पर उतारा है कि दक्षिण का प्राचीन राज्य महिष्मति आँखों के सामने तैर जाता है . राजामौली ने अपने करैक्टरस के लिए एक्टर्स का बढ़िया चुनाव किया है. हर एक्टर अपने किरदार में फिट है और स्वाभाविक है . बाहुबली उर्फ़ शिवुडू के किरदार में प्रभास का हिंदी दर्शकों से यह पहला परिचय है. वह प्रभावित करते हैं. भल्लाल देवा की भूमिका में राना दगुबाती खूब जमे हैं .वैसे हिंदी दर्शक उनसे परिचित हैं . अवंतिका की भूमिका करने वाली अभिनेत्री तमन्ना भाटिया हिंदी फिल्मों की ही दें हैं. वह एक्शन और रोमांस में फबती हैं. अनुष्का शेट्टी राजमाता देवसेना बनी हैं. बालों में सफेदी पोते हैं. लेकिन, बाहुबली के दूसरे हिस्से में वह सेक्सी अंदाज़ मे नज़र आयेंगी . भल्ल्लाल देवा के पिता बिज्जल देवा बने नासर को दर्शक राऊडी राठोर के विलेन के बतौर खूब पहचानते हैं. कटप्पा के किरदार में सत्यराज प्रभावित करते हैं. असलम खान के रूप में सुदीप के लिए करने को कुछ भी नहीं था. उन्हें भी हिंदी दर्शक रक्त चरित्र के दोनों पार्ट्स में तथा मक्खी में देख चुके हैं. फिल्म में एम्एम् क्रीम का संगीत फिल्म को गति नहीं दे पाता. वी विजयेन्द्र प्रसाद और एस एस राजामौली पहले हिस्से में कहानी बिल्ड करते रहे, इसलिए कहीं कहीं गति धीमी है. लेकिन, मध्यांतर के बाद युद्ध के दृश्यों से फिल्म में ज़बरदस्त तेज़ी आती है . फिल्म के सेट शानदार और भव्य हैं . वीऍफ़एक्स अदेल अदिली और उनकी टीम का काम तारीफ के काबिल है. इसमे फिल्म के सिनेमेटोग्राफर सेंथिल कुमार, प्रोडक्शन डिज़ाइनर साबू सायरिल. आर्ट डायरेक्टर मनु जगाध का इसमे ख़ास योगदान था. इस फिल्म को इसकी भव्यता, शानदार अभिनय, एक्शन और विशेष प्रभाव वाले दृश्यों के कारण ज़रूर देखा जाना चाहिए . वैसे इस फिल्म का दूसरा हिस्सा ज़बरदस्त बनेगा.