फिल्म और टीवी के
अभिनेता गजेन्द्र चौहान ने जब बीआर चोपड़ा के सीरियल 'महाभारत' में युधिष्ठिर का
किरदार किया था, तब उन्होंने कल्पना
भी नहीं की होगी कि कभी उनकों लेकर 'महाभारत' छिड़ेगी।
फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन के पद पर गजेन्द्र
चौहान की नियुक्ति के बाद इंस्टिट्यूट में महाभारत छिड़ गया है। इंस्टिट्यूट के छात्र एक महीने से हड़ताल पर
है। जिस संस्थान में लाइट कैमरा साइलेंस
की गूँज उठनी चाहिए, वहां ख़ामोशी छाई हुई
है। छात्र नहीं चाहते कि इस संस्थान का
चेयरमैन फिल्म की ख़ास योग्यता न रखने वाला व्यक्ति तैनात हो। ऋषि कपूर, रणबीर कपूर यहाँ तक कि अनुपम खेर, आदि भी गजेन्द्र चौहान के विरोध में लाम बंद हैं। लेकिन, क्या सचमुच गजेन्द्र
चौहान इतने नाकाबिल हैं कि उनके काम को परखे बिना, उनकी काबिलियत पर सवालिया निशान लगा दिया जाये? क्या फिल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओ का प्रशिक्षण देने संस्थान के
लिए ढेरों फ़िल्में बनाने वाले, उनमे अभिनय करने
वाले व्यक्ति को तैनात होना चाहिए ?
क्या आज भी संसथान की ज़रुरत अदूर गोपालकृष्णन,
श्याम बेनेगल, गिरीश कर्नाड, यु आर अनंतमूर्ति और
सईद मिर्ज़ा जैसे फिल्मकार हैं ? क्या उनका चुनाव
मनमाने तरीके से हुआ था ?
गजेन्द्र चौहान के
चेयरमैन पद पर चुनाव को लेकर भ्रम ज्यादा है । कुछ अखबार कह रहे हैं कि चेयरमैन पद
के लिए कुछ और नामो पर विचार नहीं किया गया, जबकि कुछ अखबार कह रहे हैं कि
रजनीकांत और अमिताभ बच्चन पर गजेन्द्र को वरीयता दी गई । इससे साफ़ है कि फिल्म एंड
टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया विवादों से ज्यादा घिरा हुआ है। हर कोई अपनी नाक
घुसेड सकता है । वास्तविकता तो यह है कि संसथान में में पढ़ाई का माहौल बिलकुल नहीं
है । इस इंस्टिट्यूट में आखिरी दीक्षांत समारोह १९९७ में हुआ था, जिसमे ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार को बुलाया गया
था। लेकिन, इस समारोह की ट्रेजिडी यह हुई कि छात्रों के हंगामे के कारण इसे रद्द
कर देना पडा। उसके बाद से इस ५५ साल के
इंस्टिट्यूट में १७ सालों में कोई दीक्षांत समारोह नहीं हुआ है। १९९७ से पहले
दीक्षांत सामारोह १९८९ में हुआ था। इस
संसथान की समस्याएं इक्का-दुक्का नहीं । यहाँ समस्याओं का जमावड़ा लगा हुआ है। कोर्स का बैकलॉग तो है ही, सिलेबस भी आउटडेटेड हो चुका है। छात्रों की भरमार
है। बताते हैं कि इस इंस्टिट्यूट में १५०-२०० अतिरिक्त छात्र डेरा जमाये बैठे हैं।
यह कथित छात्र यहाँ क्या कर रहे हैं, कोई पूछने वाला नहीं
हैं । छात्रों की संख्या के अनुपात में टीचर बहुत कम है। चार सौ छात्रों के लिए
केवल तीस टीचर ही हैं। लगभग ७० प्रतिशत गेस्ट फैकल्टी होती है। जबकि फिल्म मेकिंग ऎसी विधा है, जिसके लिए वन टू वन कांटेक्ट भी बेहद ज़रूरी हो
जाता है। श्रेष्ठ फैकल्टी तो बेहद ज़रूरी है । लेकिन, जो है उसकी क्या हालत है ? फैकल्टी
और छात्रों के बीच हमेशा दुश्मनी का नाता बना रहता है। हर समय म्यान से तलवारे
खिंची रहती हैं। सुब्रहमन्यम स्वामी तो यहाँ के छात्रों को नक्सल बताते हैं । यह
संस्थान ६ साल का कोर्स चलाता है । यह भी बुरी हालत में है । पिछले साल यह घोषणा
हुई थी कि १९९५ से २००६ के बीच के कोर्स पूरा कर चुके छात्रों को डिप्लोमा दिया
जाएगा। यहाँ पिछले चार सालों से एडमिशन बिलकुल बंद थे। इससे संस्थान की वित्तीय
दशा बदतर हो गई।
स्पष्ट रूप से
ऍफ़टीआईआई की समस्या प्रशासनिक और आर्थिक है। अधिक टीचर, गेस्ट टीचर और सुविधाओं की जरूरत ज़्यादा है। यह पिछले दो दशकों से केवल तीन पूर्ण कालिक
महिला शिक्षक ही तैनात रहे हैं। इस समय पूर्ण कालिक शिक्षकों की संख्या २१ हैं,
जो सभी पुरुष हैं। संस्थान में २००२ से कोई
डायरेक्टर नहीं है। इंस्टिट्यूट के पिछले डायरेक्टर मोहन अगाशे ने २००२ में
इस्तीफ़ा दे दिया था। अजीब बात नहीं कि इतने लम्बे समय से डायरेक्टर की महत्वपूर्ण
पोस्ट को न भरे जाने पर किसी छात्र ने कोई प्रोटेस्ट नहीं किया था। दो साल पहले
प्रशासन ने फैकल्टी को यह सलाह दी थी कि वह बैंकों से सैलरी लोन के रूप में ले,
जिसका ब्याज संस्थान द्वारा दिया जायेगा। ज़ाहिर
है कि सस्थान की समस्या प्रशासनिक और आर्थिक समस्या से निबटने के लिए किसी विशुद्ध
फिल्मकार के बजाय थोड़ा हट कर चेयरमैन की ज़रुरत है। प्रोफेशनल व्यक्ति अपना फिल्म
मेकिंग का काम तो बखूबी कर सकता है, लेकिन अन्य कामों के लिए समय और साधन की ज़रुरत
होती है । इन्हें किया जाना तभी संभव है, जब केंद्र या राज्य सरकार में सुनवाई हो ।
इसके लिए किसी दक्षिण झुकाव वाले चेयरमैन से ज्यादा आरएसएस कथित आदमी गजेन्द्र
चौहान प्रभावी हो सकते हैं ।
इसके लिए इंस्टिट्यूट
में विश्वास का माहौल कायम करना होगा। संसथान से बॉलीवुड के सक्रिय लोगों को दूर
रखना होगा । संस्थान को अंतर्राष्ट्रीय दर्जा दिए जाने की बात चल रही है। अगर ऐसा हुआ तो ऍफ़टीआईआई के छात्रों को वर्ल्ड
क्लास कैनवास मिलेगा। शिक्षकों और गेस्ट टीचर की संख्या बढ़ाने के धन की सख्त ज़रुरत
है। जो संस्थान अपनी फैकल्टी को तनख्वाह न
दे पा रहा हो, वह कैसे सर्वाइव कर सकता है। इसके लिए गजेन्द्र सिंह चौहान सक्षम साबित हो
सकते हैं। उनके राजनीतिक सूत्र संस्थान को आर्थिक रूप से ठोस बना सकते हैं। जहां
तक प्रशासन की बात है, इसके लिए किसी का
ज़्यादा फ़िल्में करना या बनाना आवश्यक नहीं। तभी तो श्याम बेनेगल कहते हैं,
"गजेन्द्र चौहान की काबिलियत को परखा जाना
चाहिए।" यह तभी संभव है जब गजेन्द्र चौहान अपनी कुर्सी पर बैठे। इसके लिए ज़रूरी है कि छात्र बिना किसी राजनीतिक
पूर्वाग्रह के चौहान से बात करे। वैसे
बताते हैं कि गजेन्द्र के विरोध में कुछ राजनीतिक विचारधारा के छात्र ही है,
जिन्हे पढ़ाई से कोई सरोकार नहीं है।
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