Showing posts with label महेश भट्ट. Show all posts
Showing posts with label महेश भट्ट. Show all posts

Saturday 12 December 2015

द साइलंट हीरोज एक इमोशनल एडवेंचर फिल्म है- महेश भट्ट

फिल्म द साइलेंट हीरोज १३ मूक बधिर बच्चों पर आधारित फिल्म।  यह फिल्म 11 दिसंबर को रिलीज होने जा रही है । इस फिल्म की कहानी भावनात्मक तो है ही प्रेरणादायक दी है। फिल्म के बारे में तफ्सील से बता रहे हैं डायरेक्टर महेश भट्ट। यहाँ बताते चलें कि 'ये' 'वो' महेश भट्ट नहीं है, जो हॉरर फ्रैंचाइज़ी फ़िल्में बनाते हैं। यह महेश भट्ट उत्तराखंड से हैं।  उनकी फिल्म 'द साइलेंट हीरोज' की शूटिंग भी उत्तराखंड में ही हुई है। पेश हैं उनसे बातचीत-  
द साइलेंट हीरोज जैसा सब्जेक्ट चुनने की वजह?
मैं मूक बधिर बच्चों के एक स्कूल में डाक्यूमेंट्री फिल्म शूट कर रहा था।  शूटिंग के दौरान मैंने  महसूस किया कि जिन्हें हम बेचारा या डेफ कहते हैं, वे हमसे ज्यादा समझदार और ज्यादा सक्षम हैं। उनका दिमाग हमसे कहीं  स्ट्रांगली काम करता है। उनके माता पिता भी उन्हें अलग नजर से देखते हैं। ऐसे में मेरे मन में विचारा आया कि क्यों न इस सब्जेक्ट पर फिल्म बनाई जाए ताकि लोगों का नजरिया बदले। इनको देखे तो लोग सिर उठा कर देखे। दूसरी अहम बात मुझे एक साफ सुथरी फिल्म बनानी थी और इससे बेहतर हो नहीं सकती थी। फिर मैंने सोचा कि क्यों न मैं उत्तराखंड की पृष्टभूमि पर फिल्म शूट की जाए जिससे उत्तराखंड टूरिज्म को बढ़ावा भी मिले। 
द साइलेंट हीरोज जोखिम भरा प्रोजेक्ट नहीं ?
बिलकुल इस फिल्म में सब नॉन स्टार्स काम कर रहे है। न कोई नामी गिरामी हीरोइन है न हीरो। इसमें सब कुछ नया है । यह एक थीम बेस्ड फिल्म है। मुझे उम्मीद है यह फिल्म अपना प्रभाव जरूर छोड़ेगी।
फिल्म के 13 मूक बधिर कलाकारों का चुनाव कैसे किया ?
मुझे कुछ मूक बधिक यानि डेफ बच्चों की जरुरत थी। ऐसे में मैं देहरादून के एक इंस्टीटूट में गया।मैंने अपनी बात रखी। स्कूल की प्रिंसिपल राजी हो गईं। लेकिन यह इतना सरल भी नहीं था। ऐसे में करीब 6 महीने तक इन बच्चों की कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ जाता था और उनको देखता था की उनका व्यवहार कैसा है, वो आपस में कैसे बात करते हैं। जब सब कुछ तय हो गया तो सोंच कैमरा वो कैसे फेस करेंगे। क्योंकि मैं एक्शन बोलूंगा तो उनको तो पता ही नहीं कि एक्शन क्या होता है, उन्हें तो इशारों में बोलना होता था तो तब एक आदमी कैमरा के नीचे छिप कर उनको  इशारो में समझाता था तब जाकर शूटिंग संभव हो पाई। शूटिंग छह महीने में पूरी हो पाई ।
अपने बाॅलीवुड तक के लम्बे सफर के बारे में कुछ बताएं ?
मुझे इस सफर में लगभग बीस साल हो गए हैं। मैंने उत्तरारखंड के कई ज्वलंत मुद्दों पर छोटी-छोटी फिल्में बनाई हैं जैसे पर्यावरण, पानी बचाओ, बालिका शिक्षा, वन प्रबंधन, आदि। मैं इन फिल्मों को जब गांव-गांव जाकर दिखता था, उनका रिस्पांस देखकर मुझे लगता था कि शायद बदलाव आएगा। लेकिन वह बदलाव मुझे दिखा नहीं। इसलिए मैंने अपनी बात बड़े परदे के माध्यम से कहने की कोशिश की है, ताकि जहां से मेरी आवाज क्षेत्रीय न होकर राष्ट्रीय हो जाए। 
फिल्म के लिए क्या रिसर्च की !
करीब डेढ़ साल तक कहानी पर काम किया है । मैंने रिसर्च करने के बाद पाया कि हममें और उनमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। हमनें फिल्म में समानता की बात की है। उन्हें जो लोग भी डिसेबल कहते हैं, वह सही नहीं हैं।
फिल्म वास्तिविक दिखे इसके लिए आपने क्या कुछ किया?
फिल्म में काम कर रहे 13 बच्चे सचमुच में मूक-बधिर ही हैं।  ये दुनिया की पहली फिल्म है जो ओपन कैप्सन के साथ रिलीज हो रही है, जिससे पहली बार मूक-बधिर बच्चे भी थियेटर में फिल्म देखने का आनन्द उठा सकेंगे। ये दुनिया भर की डैफ कम्यूनिटी के लिए एक ग्लोबल फिल्म है। फिल्म को वास्तविकता के करीब ले जाने लिए इसे सिंक साउंड में शूट किया गया है। अर्थात सभी सांउड को लोकेशन में ही रिकार्ड किया गया है। फिल्म की शूटिंग हिमालयी प्रदेश उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में की गयी है। 
आप क्या मैसेज देना चाहते हैं?
मैं चाहता हूँ कि समाज इन मूक-बधिर बच्चों को विकलांग ना समझे, बल्कि यह तो कई मायनों में ये हमसे श्रेष्ठ हैं।  इसलिए स्पेशल हैं। इंडीपेंडेट सिनेमा की ये एक कैम्पेन फिल्म है, जो मनोरंजन के साथ ही एक अलग समाज और संवाद की दुनिया से परिचय कराती है।  यह सन्देश देती है कि अगर ठान लीजिये तो कुछ भी नामुमकिन नहीं ।