Friday 19 September 2014

कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया इस दावत-ए -इश्क़ में

यशराज फिल्म्स का एक गिरोह जैसा बन गया है।  इनकी फिल्मों का एक सेट बन गया है. यशराज बैनर की तमाम छोटे बजट की फ़िल्में छोटे शहरों पर केंद्रित होती हैं. आजकल, बॉलीवुड को लखनऊ ख़ास रास आने लगा है।  रोमांस और कॉमेडी का तड़का रहता है।  वही परिणीति चोपड़ा कभी सुशांत सिंह राजपूत  के साथ तो कभी अर्जुन कपूर या रणवीर सिंह के  रोमांस करती नज़र आती हैं. उनकी अभिनय की सीमित रेंज है. उनका अपना स्ट्रुक्टर है. वह आम तौर पर तेज़ तर्रार या यो कहिये बोल्ड लड़की के रूप में नज़र आती हैं.  वह बोल्ड संवाद  बेझिझक बोल डालती हैं. जैसे ही मौका लगता है अपने हीरो के साथ सो भी लेती हैं. यह इमेज परिणीति के किरदारों की बन चुकी है. हबीब फैसल को छोटे शहर के या माध्यम वर्ग के किरदारों पर छोटे बजट की फ़िल्में  बनाने में महारत हासिल है।  दो दूनी चार और इशकजादे में उन्होंने अपने कौशल का परिचय भी दिया था।  परिणीति चोपड़ा और हबीब फैसल इशकजादे के बाद दूसरी बार एक साथ हैं।  इसलिए दर्शकों की उम्मीदें ख़ास होना लाज़िमी भी है।  इस बार फैसल ने परिणीति के साथ आदित्य रॉय कपूर को लिया है।  परिणीति हैदराबाद की एमबीए लड़की हैं. वह अमेरिका जाना चाहती हैं. पर दहेज़ आड़े आता है।  हर आने वाला रिश्ता दहेज़ की वजह से जुड़ने से पहले ही टूट जाता है। परिणीति  टीवी पर राधा रेड्डी का दहेज़ विरोधी अधिनियम ४९८ ए के बारे में सुनती है।  वह अपने पिता के साथ लखनऊ आ जाती है, ताकि, दहेज़ के लालची लोगों को झूठी शादी कर फंसाये और शादी के बाद दहेज़  माँगने का आरोप लगा कर पैसे ऐंठ सके. सुनने में  यह कहानी दिलचस्प लगती है, पर कहानी चलने से पहले ही दर्शक जान जाता है कि  हैदराबाद की एमबीए और लखनऊ  शेफ की शादी हो कर रहेगी।  होता भी वैसा है।   लेकिन,सब कुछ बेहद उदासीन तरीके से।  हबीब फैसल स्टार्ट और कट बोलते हैं. इन दो शब्दों के बीच परिणीति चोपड़ा, कभी आदित्य के साथ कभी अन्य पात्रों के साथ संवाद बोल कर निकल लेती हैं. इससे होता यह है कि दर्शकों को न तो  लखनऊ के खाने का स्वाद आता है, न  रोमांस का मज़ा।
परिणीति चोपड़ा ने अपनी इमेज के अनुरूप किरदार तो किया है।  पर इसमे बोलडनेस गायब है।  उन्हें देख कर लखनऊ का दर्शक भी शहर देखने के बजाय चीखना चिल्लाना शुरू कर देता है कि  अब बोल्ड  संवाद और चुम्बन आलिंगन देखने को मिलेगा।  पर दोनों ही चीज़े परिणीति की पहले की फिल्मों की तुलना में कम भी हों और ठंडी भी।  आदित्य के साथ परिणीति के केमिस्ट्री जमी नहीं।  वैसे आदित्य कहीं कहीं प्रभावित करते हैं।  पर उन्हें संवाद बोलने में कठिनाई आती है।  अनुपम खेर ने अपने सर की विग की तरह अपना काम भी किया है।  आजकल यशराज फिल्म के मालिक आदित्य चोपड़ा टीवी कलाकारों को छोटा मोटा मौका दे रहे हैं। इस फिल्म में करण वाही को बेकार किया गया है। अन्य सब कलाकार भरपाई का काम कर जाते हैं.
हबीब फैसल ने फिल्म को खुद ही लिखा है।  पर कुछ कल्पनाशील नहीं दे पाये।  सब कुछ घिसा पिटा  सा है।  साजिद वाजिद का संगीत सिनेमाघर में ही ठीक लगता है।  फिल्म की लम्बाई काम हैं अन्यथा फिल्म को ज़्यादा झेलना मुश्किल हो जाता। 
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