Thursday 5 November 2015

सीले हुए पटाखों से निकला 'असहिष्णुता' का धुंवा !

हिन्दुओं की असहिष्णुता को लेकर अपने अवार्ड लौटने वाले फिल्मकारों की हकीकत-
आनंद पटवर्धन को डाक्यूमेंट्री 'जय भीम कामरेड' बनाने में १४ साल लगे. यह डाक्यूमेंट्री २०११ में दिखाई गई. इसके बाद से सन्नाटा है.
कुंदन शाह की फुल लेंग्थ फिल्म 'एक से बढ़ कर एक' २००४ में रिलीज़ हुई. इसके १० साल बाद उनकी एक वैश्या के प्रधान मंत्री बनने के कथानक पर घटिया फिल्म 'पी से पीएम तक' २०१४ में रिलीज़ हुई. इस फिल्म से बेहतर तो मलिका शेरावत की फिल्म 'डर्टी पॉलिटिक्स' ज्यादा बेहतर  थी .इस कथित इन्टेलेक्ट की यह फिल्म शायद खुद उनके, समीक्षकों और उनके दोस्तों के अलावा किसी ने भी नहीं देखी.
कुंदन शाह के दोस्त सईद अख्तर मिर्ज़ा तो १९९५ में 'नसीम' बनाने के बाद सन्नाटे में आ गए. बीस साल में वह केवल एक फिल्म 'एक ठो चांस' ही बना सके, जिसे एक ठो दर्शक ने भी नहीं देखा.
उपरोक्त से ज़ाहिर है कि उपरोक्त फिल्मकार विदेशी शोहरत के सहारे अभी टिके हुए हैं और जिनकी प्रतिभा का सूखा तो दसियों साल से पडा हुआ है. यह तो सहिष्णु माहौल में तक एक्को फिल्म न बना सके. वह अब इसके अलावा और कर ही क्या सकते हैं!
कुछ फिल्मकार जो सक्रिय हैं, उनके हकीकत पढ़िए-
खोसला का घोसला की फ्लूक कामयाबी के सहारे इन्टेलेक्ट बने दिबाकर बनर्जी ने लव सेक्स एंड धोखा जैसे गटर में गोता लगाया. शंघाई और डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी जैसी टोटल वाशआउट फ़िल्में बनाई. इधर उनकी 'तितली' रिलीज़ होने वाली थी. इसे प्रचार दिलाने के लिए उन्होंने वह पुरस्कार लौटा दिया, जो उनका था नहीं. खोसला का घोसला के निर्माता दिबाकर नहीं थे तो वह यह पुरस्कार कैसे लौटा सकते थे. यह धोखाधड़ी का मामला ही तो है.

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