उन दिनों, निर्देशक यश चोपड़ा धूल का फूल, वक़्त, आदमी और इंसान, इत्तेफ़ाक़, दाग, जोशीला, दीवार, कभी कभी और त्रिशूल की निरंतर सफल से जोश में थे। उन्हें लगा कि वह किसी भी विषय पर फिल्म बनाएंगे, दर्शकों को पसंद आनी ही आनी है। सो जोश में आ कर उन्होंने सितारों की भीड़ जुटा कर फिल्म काला पत्थर बना डाली।
काला पत्थर, वास्तविक दुर्घटना पर लिखी गई फिल्म थी। चासनाला में २७ दिसंबर १९७५ को एक खान दुर्घटना हुई थी। इस दुर्घटना में खान के अंदर फंसे ३७२ खादान श्रमिकों की दुखद मृत्यु हो गई थी। इसी दुर्घटना पर सलीम जावेद ने सितारों की भीड़ वाली फिल्म लिख डाली थी, जो इस लेखक द्वय की आदत के अनुसार सतही कथानक थी।
इस कथानक पर फिल्म में अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर, नीतू सिंह, परवीन बाबी, राखी, परीक्षित साहनी, प्रेम चोपड़ा, आदि उस समय के सफलतम अभिनेता अभिनेत्रियों की भीड़ जुटाई गई थी। फिल्म को सलीम जावेद की सफलतम जोड़ी ने लिखा था। फिल्म का संगीत राजेश रोशन ने दिया था। किन्तु, यशराज फिल्म्स और त्रिमूर्ति फिल्म्स के सहकार से बनी काला पत्थर बॉक्स ऑफिस पर काला पत्थर साबित हुई।
काला पत्थर, जैसा कि शीर्षक से पता चलता है, काला पत्थर अर्थात कोयला पर बनी फिल्म थी । इस फिल्म के केंद्र में खदान के अंदर हुई एक दुर्घटना और उसके अंदर फंसे मजदूरों को निकालने का साहसिक मानवीय प्रयास था। फिल्म में सशक्त कलाकार थे। इसलिए इस प्रकार की फिल्मों में स्वभाविकता की कोई कमी नहीं थी। किन्तु, इसके बावजूद यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर काला पत्थर साबित हुई।
काला पत्थर के असफलता के कारण क्या थे? निस्संदेह फिल्म की असफलता का बड़ा कारण फिल्म की ढीली और सुस्त पटकथा थी। इस प्रकार की फिल्मों में मनोरंजन की बहुत गुंजाईश नहीं होती। दर्शकों को फिल्म के कथानक के रोमांच से ही बाँधा जा सकता है। सलीम जावेद की जोड़ी, ऐसा रोमांच पैदा कर पाने में असफल रही थी।
फिल्म की कहानी में को नयापन नहीं था। नेवी ऑफिस पूर्व अमिताभ बच्चन इस अपराध बोध में जी रहा है कि उसने अपने डूबते जहाज को छोड़ कर, लोगों को मौत के मुंह जाने दिया था। शशि कपूर कोयला खदान इंजीनियर बने थे। शत्रुघ्न ने सिन्हा को उनके खलचरित्र से बाँधा गया था। परवीन बाबी प्रेस रिपोर्टर, नीतू सिंह पान वाली बन कर ग्लैमर बिखेर रही थी।अब यह बात दूसरी है कि यह दोनों असफल हुई। किन्तु, यह उबाऊ कथानक की असफलता अधिक थी।
वास्तविकता यह है कि बॉक्स ऑफिस पर फिल्म का काला पत्थर साबित होना, यश चोपड़ा की कल्पनाशीलता की असफलता थी। वह फिल्म में ऐसा कुछ नहीं दे पाए, जो उनकी पूर्व की फिल्मों की तरह दर्शकों को लीक से हटकर विषय के बाद बीच मनोरंजन देता था। यह भी कहाँ जा सकता है कि यश चोपड़ा अपनी मानसकिता के शिकार हुए थे।
उनकी फिल्मों को ध्यान से देखे तो कहीं न कही अवैध सम्बन्ध महत्वपूर्ण होते थे। धर्मपुत्र की माला सिन्हा और राजेंद्र कुमार के अवैध संबंधों की धूल का फूल से लेकर त्रिशूल तक अवैध संतान चरित्र बना हुआ था। ऐसे कथानक पर वह रोमांस, संगीत और भावनाओं के टकराव का मिश्रण कर सफल फिल्म बना ले जाते थे। काला पत्थर में यह सब नहीं था।
काला पत्थर की असफलता के लिए कहा जाता है कि यह समय से पहले की कल्ट फिल्म थी। किन्तु, यश चोपड़ा ने, जब धूल का फूल में अवैध बच्चा पैदा करने वाली महिला को नायिका बनाया था, तब भी ऐसी नायिका समाज को स्वीकार्य नहीं थी। दाग, त्रिशूल, आदि फिल्मों के लिए भी ऐसा कहा जा सकता है। इसलिए यह असफलता मानसिकता की असफलता थी। यश चोपड़ा अवैध चरित्रों को केंद्र में रख कर ही सहूलियत महसूस करते थे। इस प्रकार के मानस वाले निर्देशक जब लीक से हट कर फिल्म बनाएंगे तो वह काला पत्थर ही साबित होगी।

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