Friday 17 May 2013

दर्शक इसे औरंगजेब नहीं समझें !

औरंगजेब ! छठा  मुगल शासक, जो अपने पिता और भाइयों को क़ैद कर और मार कर दिल्ली की गद्दी पर काबिज हो गया था। यशराज फिल्म्स के बैनर तले बनी, अतुल सभरवाल निर्देशित फिल्म औरंगजेब का शीर्षक, फिल्म के मुख्य कैरक्टर के औरंगजेब की तरह होने के कारण औरंगजेब रखा गया है। फिल्म में हमशक्ल भाई हैं, पिता है, माँ है, बड़ा बिज़नस है। पर औरगजेब जैसा कोई किरदार नहीं। यहाँ तक कि मुख्य किरदार अजय और  विशाल में से भी कोई औरंगजेब नहीं।
औरंगजेब की कहानी यशोवर्द्धन की है, जिसका गुड़गांव में रेयल्टी का साम्राज्य है। वह सभी गलत धंधे करता है। उसका एक पुत्र है, जो बिगड़ा शहजादा है। इस कैरक्टर को देख कर लगता है कि वह औरंजेब होगा। पर यह औरंगजेब नहीं। पिता के मरने से पहले एसीपी आर्य को मालूम पड़ता है कि उसके पिता की एक अन्य पत्नी और पुत्र है, जो नैनीताल में रहते हैं। पिता मरने से पहले दोनों का जिम्मा आर्य को सौंप जाता है। आर्य पैसे देने नैनीताल जाता है तो अपने सौतेले भाई को देख कर उसका हाथ यक ब यक अपनी रिवॉल्वर पर चला जाता है। क्योंकि, विशाल की शक्ल हू ब हू यशोवर्द्धन के बेटे अजय से मिलती है। वह यह बात अपने चाचा और डीसीपी रवीकान्त को बताता है। रवीकान्त, यशोवर्द्धन का साम्राज्य खत्म करने के लिए अजय की जगह विशाल को प्लांट कर देता है। रवीकान्त और उसका पूरा परिवार भ्रष्ट है। उनके लिए पैसा ही सबकुछ है।
अतुल सबबरवाल की इस कहानी में लगातार उतार चढ़ाव, ट्विस्ट अँड टर्न हैं। लेकिन, इन सब का फिल्म के शीर्षक से कोई लेना देना नहीं। इतने ट्विस्ट अँड टर्न के बावजूद फिल्म प्रभाव नहीं छोड़ती तो इसका दोष अतुल की स्क्रिप्ट को जाता है। पहली बात तो यह है कि उनकी कहानी ही बेसिर पैर की है। अजय की जगह विशाल को बड़ी आसानी से प्लांट कर दिया जाता है। उतना बड़ा साम्राज्य चलाने वाले यशोवर्द्धन को इसका तनिक पता नहीं चलता। उसकी, चतुर चालाक रखेल अमृता सिंह भी इसे नहीं भाँप पाती।  यह कहानी की सबसे बड़ी कमजोरी है। इसके बाद अतुल की स्क्रिप्ट भी काफी ढीली ढाली है। कभी लगता है कि अतुल की पकड़ बन रही है, अचानक ही वह उसे ढीला कर देते हैं। कहानी इधर से उधर बेलगाम भागती रहती है। किसी को नहीं मालूम कि क्या हो रहा है। अगर फिल्म की कहानी यशोवर्द्धन के साम्राज्य को खत्म करने के लिए विशाल को अजय की जगह प्लांट करने तक सीमित रखा जाता तो बात बन भी सकती थी। पर इसमे बिल्डर, माफिया और राजनीतिक नेक्सस भी है। डीसीपी रवीकान्त की रेयल्टी का बादशाह बनने की महत्वाकांक्षा भी है। फिल्म के इतने ज़्यादा औरंगजेब फिल्म की कहानी कहानी को बेदम कर देते हैं। असली औरंगजेब राम बन जाता है।
फिल्म में ऋषि कपूर ने अग्निपथ के बाद एक बार फिर खल भूमिका की है। वह प्रभावी हैं। जैकी श्रोफ़्फ़ ठीक ठाक हैं। उनकी बिज़नस पार्टनर अमृता सिंह भी प्रभावित करती हैं। आर्य की पत्नी के रोल में स्वरा भास्कर ध्यान आकर्षित करती हैं। साशा आग़ा अपने मोटे और बेडौल जिस्म का प्रदर्शन कर स्वीमिंग पूल और रूपहले पर्दे पर आग तो नहीं लगा पातीं। लेकिन अपनी माँ सलमा आग़ा का नाम डुबोने में ज़रूर कामयाब होती हैं। उनका हिन्दी फिल्मों में कोई भविष्य हैं, नहीं लगता। दीप्ति नवल ने फिल्म में अपनी भूमिका क्यों स्वीकार की, वही बता सकती हैं। क्योंकि, इसमे उनके करने के लिए कुछ भी नहीं था। तन्वी आज़मी तो अपेक्षाकृत लंबी भूमिका के बावजूद प्रभावित नहीं कर पातीं। अन्य कलाकार खास उल्लेखनीय नहीं।
फिल्म में अर्जुन कपूर की दोहरी भूमिका है। ऐसी भूमिकाओं को निर्देशकीय कल्पनाशीलता के अलावा अभिनेता या अभिनेत्री की अभिनय क्षमता की भी दरकार  होती हैं। अतुल सभरवाल, अजय और विशाल के किरदारों को भिन्नता दे पाने में नाकामयाब रहे हैं। दर्शक कन्फ्युज हो जाता है कि कौन अजय है और कौन विशाल है । रही अर्जुन कपूर की बात तो वह कहीं कहीं ही प्रभावित करते हैं। उनके नाज़ुक कंधे दोहरी भूमिकाओं का बोझ सहन नहीं कर पाते। उनको इन दोनों चरित्रों को मैनरिज़म की भिन्नता देनी चाहिए थी। हाव भाव और आवाज़ से इसे डिफ़्रेंट रखना चाहिए था। पर वह ऐसा नहीं कर पाते।
फिल्म का मुख्य आकर्षण बन कर उभरते हैं दक्षिण के सितारे पृथ्वीराज सुकुमार। आर्य की भूमिका में वह सब पर भारी हैं। उनका रोल काफी कठिन और जटिल था। वह भ्रष्ट परिवार के हट कर सदस्य हैं। सुकुमार ने अपने संयत अभिनय से अपनी भूमिका को प्रभावशाली और सब पर भारी बनाया है। पृथ्वीराज को हिन्दी दर्शकों ने, रानी मुखर्जी की मुख्य भूमिका वाली फिल्म अईया में देखा था। वह इस फिल्म से आगे बढ़े लगते हैं। हिन्दी संवाद भी उन्होने अच्छी तरह से बोले हैं। वह हिन्दी फिल्मों में अपना कोई मुकाम बना सकते हैं, बशर्ते कि अपनी भूमिका के साथ कोई समझौता न करें।
फिल्म की सबसे बड़ी कमी अनावश्यक ट्विस्ट अँड टर्न तो हैं ही, फिल्म में मसालों की भी काफी कमी है। इतनी घुमावदार कहानी को मनोरंजन की दरकार होती है। फिल्म की स्क्रिप्ट में इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। साशा आग़ा में इतना दम नहीं नज़र आया कि दर्शक उनके दम पर सिनेमाघर में डटा रहे। नीरज वोरलिया को फिल्म को चुस्त और रफ्तारदार बनाने के लिए अपनी कैंची का दमदार प्रदर्शन करना चाहिए था। पर वह ऐसा नहीं कर पाये। फिल्म की लंबाई उबाती है। इस फिल्म को 90 मिनट तक सीमित किया जा सकता था।
फिल्म के एक्शन में शाम कौशल का कौशल नज़र नहीं आया। एन कार्तिक गणेश का कैमरा फिल्म के चरित्रों का परिचय कराता चलता है। रेमो डीसूजा का नृत्य निर्देशन पहली बार अप्रभावी रहा। विपिन मिश्रा का पार्श्व संगीत फिल्म का टेम्पो बनने में मदद करता है।
अंत में बात, अतुल सभरवाल की। औरंगजेब उनकी पहली फिल्म है। उन्हे बड़ा बैनर, बड़े सितारे और बड़ा कनवास मिला है। यह उनके लिए अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का बढ़िया मौका था। फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद, आदि अतुल के ही हैं। वह इनके जरिये फिल्म को तेज़ रफ्तार और ग्रिपिंग बना सकते थे। पर वह नाकामयाब रहते हैं। उन्होने ढेरो ट्विस्ट अँड टर्न को ही दर्शकों पर पकड़ के लिए पर्याप्त समझ लिया था। बतौर निर्देशक वह अपने लेखक की मदद नहीं कर पाते। उन्हे इस कहानी को अपनी दृष्टि देनी चाहिए थीं .हालांकि, पहले सीन में, जब आर्य विशाल को देखता है तो वह चौंक कर अपना हाथ रिवॉल्वर की ओर ले जाता हैं। ऐसा लगता है कि हमशकलों के रहस्य वाली कोई अलग तरह की कहानी देखने को मिलेगी। लेकिन कहानी के आगे बढ़ने के साथ ही, सब बहुत साधारण हो जाता है। अतुल कुछेक दृश्यों में ही प्रभावित कर पाते हैं। मसलन, ऋषि कपूर का अपने दामाद को कत्ल करने का दृश्य।
कुल मिलकर कहा जा सकता है कि अगर आप फिल्म को देखना चाहते हैं तो इसे न तो औरंगजेब के लिए देखने जाएँ, न ही बिछुड़े हुए भाइयों की कहानी की तरह। इसे एक साधारण अपराध कथा की तरह देखा जा सकता है, जो कम से कम बोर तो नहीं करती!






No comments:

Post a Comment