Saturday, 18 April 2015

अब 'गब्बर' लौटा है करप्शन की लड़ाई लड़ने

लीजिये साहब ! गब्बर फिर लौट आया है।  यह गब्बर १९७५ की 'शोले' का  डाकू गब्बर नहीं, जिसके नाम से पचास पचास कोस दूर के बच्चे डराए जाते थे।  यह गब्बर करप्शन से लड़ने वाला आम आदमी है।  वह जब आता है रिश्वतखोर घूस लेना बंद कर देते हैं।  ज़ाहिर है कि जब गब्बर १ मई को देश के सिनेमाघरों में आएगा भारत से करप्शन का नाम ओ निशान मिट जायेगा।  क्या होगा ! यह तो पता नहीं।  लेकिन, निर्देशक कृष और  निर्माता संजयलीला भंसाली की अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म 'गब्बर इज़ बैक' के प्रचार से तो ऐसा ही लगता है कि हिंदुस्तान से भ्रष्टाचार का खात्मा होने वाला है।  क्या निर्देशक कृष की फिल्म भ्रष्टाचार को नंगा कर देगी ? क्या अक्षय कुमार ऐसा करैक्टर दे सकेंगे जो दर्शकों को उनके साथ भ्रष्टाचार से सचमुच लड़ने का विश्वास दिल सके ? क्या दर्शक 'गब्बर इज़ बैक' के गब्बर की करप्शन के विरुद्ध लड़ाई से दर्शक इतना एकजुट हो सकेंगे कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बड़ी हिट साबित हो ?
बॉलीवुड में करप्शन से लड़ने वाला आम आदमी किरदार साउथ फिल्मों की देन लगता है। हालाँकि, गोविन्द निहलानी ने अपनी फिल्म 'आक्रोश' में एक पुलिस अधिकारी द्वारा भ्रष्ट नेता की हत्या करने का क्रन्तिकारी कथानक दर्शाया था।  हीरो की इस एकल लड़ाई में यह घटनाक्रम बॉलीवुड के लिहाज़ से क्रन्तिकारी था, क्योंकि उससे पहले तक नेताओं पर उंगली उठाना टैबू था। इस फिल्म के बाद कई फ़िल्में ऐसे ही कथानकों पर बनी। निर्देशक शंकर ने २००१ में अनिल कपूर को करप्शन से लड़ने वाला नायक बना कर फिल्म 'नायक : द रियल हीरो' फिल्म बना इसे आम आदमी की लड़ाई बताने की कोशिश की थी।  इसके बाद काफी फ़िल्में नायक के करप्शन से लड़ाई पर रिलीज़ हुई।  यहाँ तक कि  पिछले साल सलमान खान भी 'जय हो' का नारा लगाते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम आदमी की लड़ाई में कूद पड़े थे।  कैसे थे यह किरदार ! किस हद तक और किस प्रकार भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ रहे थे बॉलीवुड के आम आदमी ? कितना और क्यों जुड़ सका इन फिल्मों से दर्शक? आइये जानने की कोशिश करते हैं कुछ फिल्मों के ज़रिये -
क्रांतिवीर (१९९४)- मेहुल कुमार की फिल्म 'क्रांतिवीर' का एक बेरोजगार युवा अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए कानून अपने हाथ में ले लेता है।  मेहुल कुमार ने अपनी फिल्म के ज़रिये आम आदमी से भ्रष्टाचार के विरुद्ध एकजुट होने की ज़रुरत बताई थी।  लेकिन, नाना पाटेकर, डिंपल कपाड़िया, अतुल अग्निहोत्री, ममता कुलकर्णी और डैनी डैंग्जोप्पा की 'क्रांतिवीर' मुख्य किरदारों के लाउड अभिनय का शिकार हो गई।  
शूल (१९९९)- रामगोपाल वर्मा और नितिन मनमोहन की निर्माता जोड़ी की इ निवास निर्देशित फिल्म 'शूल' का पुलिस अधिकारी नायक बिहार के मोतिहारी जिले में बाहुबली नेता के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी लड़ाई को विधान सभा तक ले जाता है।  इस फिल्म में मनोज बाजपेई का किरदार विधान सभा में भ्रष्ट नेता की हत्या कर देता है।  'शूल' की सफलता इसकी भ्रष्टाचार की लड़ाई से ज़्यादा शिल्पा शेट्टी के आइटम के कारण ज़्यादा  थी।
नायक : द रियल हीरो (२००१)- इस फिल्म का आम आदमी अनिल कपूर एक पत्रकार था।  जो अमरीश पूरी का इंटरव्यू लेने के दौरान एक  दिन का चीफ मिनिस्टर बनने और भ्रष्टाचार ख़त्म करने की चुनौती स्वीकार करता है।  शंकर की ही १९९९ में रिलीज़ तमिल फिल्म 'मुधलवन' की रीमेक फिल्म 'नायक' में जब अनिल कपूर एक टाइपराइटर साथ लेकर भ्रष्ट लोगों को ससपेंड करते चलते हैं तो सिनेमाघर तालियों से गूँज उठता था।  भ्रष्टाचार से परेशान दर्शकों को यह दृश्य भले लग रहे थे।  लेकिन, इन थोड़े दृश्यों के बाद शंकर लीक पर आ गए।  फिल्म में अनिल कपूर और रानी मुख़र्जी का रोमांस ख़ास हो गया।  फिल्म के क्लाइमेक्स में बारिश में कीचड से सने अनिल कपूर का अमरीश पूरी और उनके गुंडों की धुलाई करना फिल्म को साधारण मसाला फिल्म बना रहे थे ।  यही कारण था कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औसत से कम बिज़नेस ही कर सकी।
गंगाजल (२००३)- प्रकाश झा की फिल्म 'गंगाजल' में पुलिस, पुलिस में भ्रष्टाचार, बाहुबली नेता, कैदियों की आँख में तेज़ाब डाल कर अँधा बनाने का मशहूर कांड था।  कुल मिला कर अजय देवगन, ग्रेसी सिंह और मुकेश तिवारी की यह फिल्म दर्शकों द्वारा पसंद की गई।  लेकिन, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का सन्देश देने में नाकामयाब हुई।  
युवा (२००४)- मणि रत्नम की फिल्म 'युवा' सामान्य भ्रष्टाचार के बजाय राजनीति  में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए युवाओं के जुड़ने की कहानी थी।  इस फिल्म में अजय देवगन, करीना कपूर, रानी मुख़र्जी, अभिषेक बच्चन, विवेक ओबेरॉय, एषा देओल और सोनू सूद जैसे सितारों की भीड़ थी।  काफी फ़्लैश बैक दृश्यों और उप कथाओं के कारण 'युवा' काफी उलझी फिल्म बन गई थी।
रंग दे बसंती (२००६)- निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा की युवा दोस्तों की अपने एक दोस्त के मिग दुर्घटना में मारे जाने के बाद नाराज़ हो कर व्यवस्था से जुड़े नेताओं, ऑफिसर्स और अन्य लोगों को जान से मार देने की कहानी थी।  इस फिल्म को इमोशन के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की हिंसा से जोड़ दिया गया था।  लेकिन, यह फिल्म भ्रष्टाचार से ज़्यादा आमिर खान, माधवन, सोहा अली खान, कुणाल कपूर, शरमन जोशी, आदि की भारी भरकम स्टारकास्ट और मधुर संगीत के कारण दर्शकों को खींच पाने में सफल हुई।  
सिंह साहब द ग्रेट (२०१३)- अनिल शर्मा निर्देशित और सनी देओल के सरदार किरदार वाली यह फिल्म भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा तो खोलती थी, लेकिन, ठेठ सनी देओल और अनिल शर्मा स्टाइल में।  कलेक्टर बने सनी देओल घटनाक्रम से विवश हो कर खुद कानून हाथ में ले बैठते  हैं।  एक्शन से सनी इस फिल्म से दर्शक करप्शन से लड़ाई के बजाय सनी देओल की लड़ाई के कारण ही इतना जुड़े की फिल्म अपनी लागत निकाल सकी।
सत्याग्रह (२०१३)- निर्देशक प्रकाश झा ने अपनी फिल्म 'सत्याग्रह' में गांधीवादी तरीके से अनशन और धरना प्रदर्शन के ज़रिये भ्रष्टाचार से लड़ने की कहानी पेश की थी।  अमिताभ बच्चन एक गांधीवादी बने थे।  इस किरदार को अन्ना हज़ारे से प्रेरित भी जताया गया।  लेकिन, यह फिल्म भी क्लाइमेक्स में पूरी तरह से बिखर गई।  वैसे ही अमिताभ बच्चन के अलावा अजय देवगन, करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, मनोज बाजपेई और अमृता राव जैसी भारी भरकम स्टार कास्ट को जोड़ने के लिए बनाई गई उप कथाओं ने फिल्म का प्रभाव ख़त्म कर दिया था।
जय हो (२०१४)- निर्देशक सोहैल खान की दिलीप शुक्ल की कहानी पर फिल्म 'जय हो' आम आदमी को करप्शन के खिलाफ संदेशा देने में नाकाम हुई थी।  फिल्म में ढेरों सितारों की भीड़ और अनावश्यक भावुक प्रसंगो के कारण सलमान खान के बावजूद दर्शकों को इतना आकर्षित नहीं कर पाई थी कि  हिट फिल्म का दर्ज़ा पाती।  
फग्ली (२०१४)- कबीर सदानंद की फिल्म 'फग्ली' युवा केंद्रित थी।  इसमे एक युवा व्यवस्था को एक्सपोज़ करने के लिए दिल्ली के इंडिया गेट पर आत्मदाह कर लेता है। जिमी शेरगिल के साथ नए चेहरों मोहित मारवाह, किआरा अडवाणी, विजेंदर सिंह और आरफ़ी लाम्बा की यह फिल्म प्रभाव छोड़ने में नाकामयाब होती थी।
देखा जाए तो बॉलीवुड की शुरूआती फिल्मों में व्यवस्था से जुड़ा नायक ही व्यवस्था के विरुद्ध अपनी लड़ाई लड़ता है।  यह अमिताभ बच्चन के एंग्रीयंग मैन का विस्तार ही था।  इसीलिए, पुलिस व्यवस्था से जुड़े नायक वाली शूल, गंगाजल, सिंह साहब द ग्रेट', आदि फ़िल्में रिलीज़ हुई।  आम आदमी और युवाओं से जुड़ने का प्रयास जय हो, सत्याग्रह, रंग दे बसंती, युवा, आदि फिल्मों में किया गया।  लेकिन, यह आम आदमी संघर्ष कथा नहीं बन सकी।  बॉलीवुड स्टार एक्टर्स की इमेज भी किरदारों पर भारी पड़ी। अब देखने वाली बात होगी कि  अक्षय कुमार 'गब्बर इज़ बैक' से कैसे और कितना आम आदमी को जोड़ पाते हैं !

अल्पना कांडपाल

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