Friday 30 October 2015

फिल्म 'मैं और चार्ल्स' में न 'मैं' न 'चार्ल्स'

आज के फिल्मकारों की फ़िल्में अब स्वान्तः सुखाय बनने लगी हैं। मल्टीप्लेक्स थिएटर और उनके बढी टिकट दरें किसी भी कूड़ा फिल्म को उसका पैसा वापस दिलवा देती हैं। ऐसे में कूड़ा फिल्मों का बनते रहना लाजिमी है।  प्रवाल रमण के निर्देशन में चार्ल्स शोभराज की बायोपिक फिल्म 'मैं और शोभराज' ऎसी ही कूड़ा फिल्म हैं। इस फिल्म में चार्ल्स शोभराज के औरतों के प्रति अपराधों को ग्लोरीफाई नहीं, सेक्सीफाई किया है। हर औरत किरदार नंगा होने को तैयार है . चार्ल्स के जाल में फंसी औरतों का नंगापन पूरी फिल्म में हैं. पूरी फिल्म चार्ल्स शोभराज के एक शहर से दूसरे शहर भागते, पुलिस के उसके पीछे दौड़ते ही बीत जाती है. जब ख़त्म होती है तो यह साफ़ नहीं हो पाता कि शराब व्यवसाई पोंटी चड्डा के बैनर ने इस फिल्म को बनाया क्यों ? प्रवाल रमण पहले ही कह चुके थे कि वह चार्ल्स शोभराज को ग्लोरीफाई नहीं कर रहे . लेकिन, उन्होंने पुलिस को भी ग्लोरीफाई  नहीं किया . नतीजे के तौर पर परवाल के न चाहते हुए भी चार्ल्स शोभराज का करैक्टर उभरा. भारत मे चार्ल्स को सज़ा दिलवा कर फिल्म ख़त्म हो जाती है, जबकि चार्ल्स शोभराज के अपराधों की लिस्ट उसके बाद भी बढती चली जाती है. अभिनय के लिहाज़ से चार्ल्स शोभराज की भूमिका में रणदीप हूडा और पुलिस अधिकारी आमोद कंठ की भूमिका में आदिल हुसैन खूब जमे हैं. ऋचा चड्डा तो जैसे समझती हैं कि वह दिखा देंगी तो लोग देखने चले आयेंगे. जबकि, दर्शक ऋचा के अभिनय वाली फिल्म देखने आते हैं. जैसे कि फिल्म राम-लीला में उनका किरदार . लेकिन, इस फिल्म में वह अभिनय से कोसों दूर रहती हैं. टिस्का चोपड़ा के करने के लिए कुछ ख़ास नहीं था. वैसे फिल्म में स्त्री पुरुष किरदारों की इफरात है. लेकिन, सब दर्शकों को कंफ्यूज करने के लिए हैं. फिल्म को उलझा देते हैं. फिल्म की सबसे बड़ी कमी है इसके ज्यादा इंग्लिश संवाद. ख़ास तौर पर चार्ल्स शोभराज के किरदार के मुंह से टूटी फूटी हिंदी ही बुलवाई गई है, जिसमे अंग्रेज़ी शब्द या कहिये वाक्य ज्यादा हैं. रणदीप हूडा अपने संवाद बोलते कुछ ऐसे हैं कि ज़्यादातर समझ में ही नहीं आते. प्रवाल रमण को इसे सिंक साउंड के ज़रिये हिंदी में कर देना चाहिए था. इसलीये यह फिल्म सिंगल स्क्रीन के लिए अपनी अपील खो बैठती है. महिला चरित्रों की कामुक छवि के ज़रिये दर्शक बटोरे जा सकते थे, लेकिन इसमे भी आधा अधूरा सा ही है. प्रवाल रमण ने फिल्म को खुद लिखा है. उन्होंने जैसा विसुअलाइज किया होगा, वैसा ही लिखा होगा. कुछ जगह वह फिल्म में दिलचस्पी पैदा करते हैं. मसलन, चार्ल्स का अपने अपराध स्वीकार करना. उसका बड़ी चालाकी से विदेसी टूरिस्ट को निशाना बनाना, आदि दृश्य . अगर प्रवाल फिल्म को चार्ल्स शोभराज की आज की स्थिति पर ख़त्म करते तो फिल्म अधूरी सी नहीं लगती। कुल मिलाकर फिल्म चार्ल्स ग्लोरीफाई तो नहीं करती, लेकिन मैं को भी नहीं उभारती. इसलिए लगता नहीं कि फिल्म को बहुत दर्शक मिल पाएंगे.

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