आम तौर पर मैं अख़बारों की मैगज़ीन शाम या रात में ही पढ़ पाता हूँ। इसी कारण से नवभारत टाइम्स लखनऊ ०४ फरवरी २०१५ की मैगज़ीन रात में पढने लगा। पहले पेज पर आर्टिकल था- शोले की रील से बनेंगे बटन। शीर्षक दिलचस्प लगा तो पढने लगा। इसकी लेखिका ज़ेबा हसन को मैं सचेत पत्रकार मानता हूँ कि वह जो लिखती हैं छानबीन कर ही लिखती हैं। लेकिन, यह लेख पढ़ कर मुझे अफ़सोस हुआ। इस लेख में भयंकर तथ्यात्मक भूलें हैं। लिखा गया है कि लीला सिनेमा में पहली फिल्म 'उमरावजान' रिलीज़ हुई थी, जो केवल एक हफ्ता चली थी। यह भयंकर भूल है। क्योंकि, लीला में फर्स्ट रन में रिलीज़ होने वाली फिल्म शोले ही थी। उमरावजान रिलीज़ हो यह संभव ही नहीं है, क्योंकि मुज़फ्फर अली की उमरावजान १९८१ में रिलीज़ हुई थी। जेपी दत्ता की उमराव जान तो २५ साल बाद रिलीज़ हुई थी। इसलिए यह संभव ही नहीं कि उमराव जान १५ अगस्त १९७५ को, शोले की रिलीज़ से पहले रिलीज़ हो जाए। हाँ, जहाँ तक मेरी याददाश्त में है, लीला में शोले से पहले एक हफ्ते के लिए मदर इंडिया चलाई गयी थी, उस समय कोई नया सिनेमाघर या फर्स्ट रन के बीच गैप होने पर, मदर इंडिया ही चलाया करता था। क्योंकि, यह क्लासिक फिल्म थी। इससे साफ़ है कि इस लेख को बिना तथ्यों की छानबीन किये और सम्बंधित लोगों से पूछे लिखा गया है। क्योंकि, अगर ऐसा किया गया होता अख़बार को मालूम हो जाता कि किसी फिल्म की रीलें सिनेमाघरों में नहीं रहती। फिल्म उतरने के बाद उन्हें वापस वितरक के पास भेज दिया जाता है। हाँ, कभी होता यह है कि रील टूट जाए तो उसे जोड़ने के दौरान उसके कुछ हिस्से काटने पड़ जाते हैं। वह हिस्से दूसरे दिन बाहर चले जाते हैं या कोई ऑपरेटर रख लेता होगा। उन टुकड़ों से एकाध बटन बनाये जा रहे हो तो बात दूसरी है। लेकिन, पूरी फिल्म से बटन बनाया जाना संभव ही नहीं है। कम से कम इसे लीला सिनेमा के मालिक तो दे ही नहीं सकते।
यह फिल्म पत्रकारों की त्रासदी है कि अब वह अख़बारों के संपादकों द्वारा पैदा किये जा रहे हैं। कोई भी कलमबाज़ फिल्म पत्रकार बन सकता है, चाहे उसे फिल्म की एबीसीडी आती हो या न आती हो। यह त्रासदी हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की सामान रूप से है। क्या ही अच्छा होता अगर अख़बारों के संपादक पढ़े लिखे फिल्म पत्रकारों से ज़िम्मेदारी भरे लेख लिखवाने की कोशिश करें। लेकिन, संपादक वाली ऊँचाई पर पहुँच चुके लोगों से इसकी अपेक्षा करना बेमानी होगा। तभी शोले की रीलों से बटन बन जाते हैं।
यह फिल्म पत्रकारों की त्रासदी है कि अब वह अख़बारों के संपादकों द्वारा पैदा किये जा रहे हैं। कोई भी कलमबाज़ फिल्म पत्रकार बन सकता है, चाहे उसे फिल्म की एबीसीडी आती हो या न आती हो। यह त्रासदी हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की सामान रूप से है। क्या ही अच्छा होता अगर अख़बारों के संपादक पढ़े लिखे फिल्म पत्रकारों से ज़िम्मेदारी भरे लेख लिखवाने की कोशिश करें। लेकिन, संपादक वाली ऊँचाई पर पहुँच चुके लोगों से इसकी अपेक्षा करना बेमानी होगा। तभी शोले की रीलों से बटन बन जाते हैं।
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