हिंदुस्तानी फिल्मों ने जब बोलना शुरू किया, तब पहला शब्द प्यार, इश्क़ और मोहब्बत ही था। १४ मार्च १९३१ को रिलीज़ हिन्दुस्तानी की पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' की कहानी एक राजकुमार के एक जिप्सी लड़की से इश्क़ की दास्ताँ थी। ' आलमआरा' की ज़बरदस्त सफलता के बाद इश्क़ का यह बुखार पारसी थिएटर से निकल कर मुख्य धारा की हिंदी फिल्मों तक पहुँच गया। कभी मास्टर विट्ठल और ज़ुबैदा के बीच बोले गए आशिकाना संवाद आज के अर्जुन कपूर, सिद्धार्थ मल्होत्रा, अलिया भट्ट और श्रद्धा कपूर की जुबां पर चढ़ गए हैं। युग बदलते रहे, लेकिन, रोमांस फिल्मों का सिलसिला हमेशा चलता रहा। आइये जानते हैं ऎसी रोमांस से सराबोर फिल्मों के बारे में, जिन्होंने बॉलीवुड को बोल्ड भी साबित किया।
अछूत कन्या- सुजाता (१९३६-१९५९) - बॉम्बे टॉकीज की फ्रेंज़ ऑस्टेन निर्देशित अछूत कन्या' में ब्राह्मण लड़का अछूत से प्यार करता है । लेकिन, दोनों की अलग अलग शादी हो जाती हैं। फिल्म के अंत में अछूत कन्या ब्राह्मण लडके को बचाने में अपनी जान गंवा देती है। यह फिल्म १९३६ में रिलीज़ हुई थी। बड़े परदे पर चलती फिरती आकृतियों के बोलना शुरू करने के पांच साल बाद ही अछूत कन्या के इस जाति विरोधी तेवरों ने पूरे देश में तहलका दिया। हालाँकि, फिल्म सुपर हिट साबित हुई। अछूत कन्या के २३ साल बाद बिमल रॉय ने जब एक बार फिर ब्राह्मण लडके का निम्न जाति की लड़की से रोमांस को पेश किया तो इसे समाज सुधारक फिल्म का दर्ज़ा मिला। लेकिन, इतना तय है कि दोनों ही फिल्मों ने क्रमशः अशोक कुमार और देविका रानी तथा सुनील दत्त और नूतन के चरित्रों के ज़रिये अनूठी खुशबू वाले रोमांटिक फूलों को खिला दिया।
देवदास (१९३६)- अछूत कन्या के साल ही शरतचन्द्र चटर्जी के उपन्यास देवदास पर पीसी बरुआ ने बंगाली, हिंदी और असमी भाषा में देवदास का निर्माण किया। हिंदी देवदास में देवदास की भूमिका में केएल सहगल, देवदास पार्वती उर्फ़ पारो जमुना तथा चंद्रमुखी टी राजकुमारी बनी थी। बंगला साहित्य से निकली यह दुखांत प्रेम कहानी बड़े परदे पर अमर हो गयी। बताते हैं कि सहगल की देवदास के कारण तत्कालीन युवाओं में निराशा व्याप्त हो गयी थी और वह आत्महत्याएं करने लगे थे। ऐसे समय वी शांताराम जीवन का सन्देश देने वाली फिल्म दुनिया न माने ले कर आये। केएल सहगल की देवदास के बाद दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन और वैजयंतीमाला (१९५५) और शाहरुख़ खान, ऐश्वर्या राय और माधुरी दीक्षित (२००२) भी इन किरदारों को करके इन आइकोनिक करैक्टर के साथ अमर हो गए।
आदमी (१९३९)- वी शांताराम की फिल्म आदमी एक पुलिस वाले कहानी थी, जो एक वैश्या को समाज में ऊंचा स्थान दिलाना चाहता है। लेकिन, उसे समाज के भारी विरोध का सामना करना पड़ता है। पुलिस वाले और वैश्या के रोमांस वाली यह फिल्म समाज सुधर की दृष्टि से बड़ा कदम थी। इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं शाहू मोदक शांता हुबलीकर ने निबाही थी।
मुग़ल-ए-आज़म (१९५७)- के० आसिफ ने फिल्म मुग़ल-ए-आज़म में सलीम- अनारकली के काल्पनिक रोमांस को इतिहास का जामा पहना कर अमर कर दिया। इस फिल्म में अकबर पृथ्वीराज कपूर, सलीम दिलीप कुमार और अनारकली मधुबाला बनी थीं। फिल्म के ज़बरदस्त संवादों, भव्य सेटों और जानदार संगीत ने अनारकली और सलीम की मोहब्बत की दास्ताँ को आम आदमी तक पहुंचा दिया । इस फिल्म में संगीतकार नौशाद की धुनों पर ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद, मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये और प्यार किया तो डरना क्या जैसे गीत मोहब्बत भरे दिलों के विद्रोह को आवाज़ देने लगे।
बॉबी (१९७३)- मेरा नाम जोकर बना कर दिवालिया हो चुके फिल्मकार राजकपूर को बुलंदियों पर पहुंचाने वाली फिल्म बॉबी से राजकपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर को बिलकुल नयी लड़की डिंपल कपाड़िया का हीरो बना कर पेश किया। इस फिल्म में भी बॉलीवुड का परंपरागत अमीर गरीब का फार्मूला था। लेकिन, खास था एक हिन्दू लडके राज का क्रिस्चियन लड़की बॉबी ब्रैगेंज़ा से रोमांस। इस फिल्म के गीत 'बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, पर प्यार भरा दिल न तोड़ो' से धर्म की दीवारों को चुनौती दी थी। उस समय भी इस गीत को लेकर काफी तूफ़ान मचा था।
छोटी सी बात (१९७५)- बासु चटर्जी की रॉम कॉम फिल्म छोटी सी बात इस लिहाज़ से ख़ास थी कि यह एक आम आदमी अरुण की रोमांस कहानी थी, जो प्रभा को मन ही मन चाहता है, लेकिन अपनी मोहब्बत का इज़हार नहीं कर पाता । इसके लिए वह लव गुरु से रोमांस की ट्रेनिंग लेने जाता है। अपने मधुर गीतों और साधारण कद काठी वाले अभिनेता अमोल पालेकर की मैंनेरिस्म की बदौलत यह फिल्म युवा दर्शकों में अपनी जगह बना पाने में कामयाब हुई थी।
जूली (१९७५)- दक्षिण की अभिनेत्री लक्ष्मी और बॉलीवुड अभिनेता विक्रम की केएस सेतुमाधवन निर्देशित फिल्म 'जूली' विवाह पूर्व संबंधों और अवैध बच्चे की बोल्ड कहानी थी। इस फिल्म में भी हिन्दू लड़का क्रिस्चियन लड़की से सम्बन्ध बनाता है। दोनों की शादी इस लिए नहीं हो सकती कि दोनों के धर्म और विश्वास भिन्न थे। फिल्म का साफ़ सन्देश था कि प्रेम के रास्ते में किसी धर्म को दीवार नहीं बनाया जा सकता। यह लक्ष्मी की पहली हिंदी फिल्म थी। इस फिल्म में श्रीदेवी ने लक्ष्मी की छोटी बहन की बाल भूमिका की थी।
कभी कभी (१९७६)- निर्माता- निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्म कभी कभी में दो पीढ़ियों का रोमांस था। पहला परिपक्व रोमांस वास्तव में अमिताभ बच्चन-राखी- शशि कपूर - वहीदा रहमान का प्रेम चौकोण था। अमिताभ राखी से प्रेम करते हैं, पर इन दोनों की वहीदा रहमान और शशि कपूर के किरदारों से होती है। वहीदा रहमान और अमिताभ बच्चन की एक लड़की है और वहीदा की एक अवैध लड़की भी है। राखी और शशि कपूर का लड़का ऋषि कपूर हैं। अब होता यह है कि वहीदा रहमान की वैध और अवैध लड़कियां ऋषि कपूर से प्रेम करने लगती है। तीन घंटा लम्बी कभी कभी के गीतों कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है, मैं पल दो पल का शायर हूँ, तेरे चहरे से नज़र नहीं हटती, चाहे चले छुरियाँ, आदि गीतों ने धूम मचा थी। दो पीढ़ियों का यह रोमांस हर वर्ग के दर्शकों को रास आया था।
एक दूजे के लिए (१९८१)-हिंदी न जानने वाले तमिल वासु और उत्तर भारत की सपना की इस रोमांस गाथा ने पूरे उत्तर भारत में तहलका मचा दिया था। हिंदी न जानने वाले फिल्म के तीनों मुख्य कलाकारों कमल हासन, रति अग्निहोत्री और माधवी युवा दिलों की धड़कन बन गए थे। तमाम शहरों के एकांत स्थानों में वासु और सपना नाम खुदे देखे जा सकते थे। गोवा का वह पहाड़ी स्थान, फिल्म में जहाँ से छलांग लगा कर वासु और सपना अपनी जान देते हैं, युवा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र था। ताज़गी भरे चेहरों वाली इस रोमांस फिल्म की खासियत दो प्रदेशों के युवाओं का रोमांस था।
सागर (१९८४)- रमेश सिप्पी निर्देशित फिल्म सागर से डिंपल कपाड़िया ने शादी के बाद अपनी वापसी की थी। यह उनकी ११ साल बाद रिलीज़ होने वाली दूसरी फिल्म थी। एक बार फिर डिंपल-ऋषि की मशहूर बॉबी जोड़ी सागर में भी बन रही थी। इस फिल्म में भी क्रिस्चियन मोना का हिन्दू रवि से रोमांस था। कमल हासन का राजा करैक्टर इसे प्रेम त्रिकोण बना रहा था। इस फिल्म में डिंपल और ऋषि के बीच का चुम्बन काफी मशहूर हुआ था।
बॉम्बे (१९९५)- मणि रत्नम की इस फिल्म को क्लासिक फिल्म का दर्ज़ा प्राप्त है। यह फिल्म १९९२ के दंगों की पृष्ठभूमि पर हिन्दू लडके से मुसलमान लड़की के प्रेम विवाह की कहानी थी। इन दोनों का प्रेम १९९२ के दंगों में भी नहीं हारता था। इस फिल्म का हिन्दू और मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने एक सा विरोध किया था। फिल्म में सोनाली बेंद्रे पर फिल्माया गया 'हम्मा हम्मा' गीत काफी सेंसुअस माना गया था।
दहक (१९९९)- अक्षय खन्ना और सोनाली बेंद्रे की इस फिल्म की कहानी बड़ी दिलचस्प थी। जब्बार बक्शी को यह स्वीकार नहीं कि उसकी बहन किसी से मोहब्बत करे। इसलिए वह अपनी बहन के शौहर को मार देता है। बहन भी आत्महत्या कर लेती है। जब्बार को १२ साल की कैद हो जाती है। जब वह छूट कर बाहर आता है तो पाता है कि उसकी भांजी भी उसकी बहन की हमशक्ल है। वह उस समय स्तब्ध रह जाता है, जब उसे मालूम होता है कि उसकी भांजी एक हिन्दू से प्रेम करती है। इस फिल्म में सोनाली बेंद्रे ने माँ और बेटी का दोहरा किरदार किया था। डैनी डैंग्जोप्पा उनके भाई और मामा की भूमिका में थे।
हम दिल दे चुके सनम (१९९९)- संजयलीला भंसाली की यह म्यूजिकल रोमांस फिल्म सलमान खान और ऐश्वर्या राय के बीच की गर्मागर्म रोमांस की अफवाहों के बीच बढ़िया केमिस्ट्री के कारण समर्पित रोमांस की खुशबू फैला पाने में कामयाब हुई थी। यह फिल्म अजय देवगन के बढ़िया अभिनय के कारण यादगार है। फिल्म में ड्रामा, रोमांस और संगीत का ऐसा प्रभावशाली मिश्रण था कि दर्शक हम दिल दे चुके सनम कहने से नहीं भरे। इस फिल्म में इस्माइल दरबार के संगीत से सजे 'हम दिल दे चुके सनम', 'ढोल बाजे', 'आँखों की गुस्ताखियाँ', 'तड़प तड़प के' , आदि गीतों ने दर्शकों के दिलों में सलमान खान और ऐश्वर्या राय रोमांस अमर कर दिया। आज भी इस गीत को इन्ही दोनों के रोमांस और फिल्म में रोमांटिक केमिस्ट्री के लिए याद किया जाता है।
ग़दर एक प्रेमकथा (२००१)- भारत विभाजन की पृष्ठभूमि पर पनपी अनिल शर्मा की एक प्रेम कथा में सनी देओल ने सरदार तारा सिंह और अमीषा पटेल ने मुसलमान लड़की सकीना का किरदार किया था। इस फिल्म में पाकिस्तान पर ज़बरदस्त हमला किया गया था। इसलिए इस फिल्म ने साथ ही रिलीज़ आमिर खान की फिल्म 'लगान' से ज़्यादा बिज़नेस किया। इस फिल्म का भी मुस्लिम संगठनों ने धर्म के नाम पर विरोध किया था।
वीर-ज़ारा (२००४)- यश चोपड़ा निर्देशित वीर-ज़ारा सरहद पार के रोमांस पर फिल्म थी। शाहरुख़ खान का किरदार स्क्वाड्रन लीडर वीर प्रताप सिंह पाकिस्तान से आयी ज़ारा हयात खान को पहाड़ से गिरने से बचाता है। दोनों एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं। ठीक ग़दर की तरह वीर अपनी ज़ारा को पाने पाकिस्तान जाता हैं, जहाँ उसे बंदी बना लिया जाता है। फिल्म में रानी मुख़र्जी का किरदार वीर को जेल से छुड़ाता है। जब वीर वापस हिंदुस्तान आता है तो वह अपने घर में ज़ारा को इंतज़ार करता पाता है। सरहद पार रोमांस का यह फार्मूला दर्शकों को रास आया था।
अजब प्रेम की गज़ब कहानी (२००९)- राजकुमार संतोषी की इस फिल्म में भी हिन्दू लडके प्रेम का क्रिस्चियन लड़की जेनी के साथ रोमांस कॉमेडी शैली में फिल्माया गया था। परदे पर इन किरदारों को रणबीर कपूर और कटरीना कैफ ने किया था। इस फिल्म में भी दो भिन्न धर्मों के रहन सहन, खान पान और संस्कृति की भिन्नता और टकराव को हास्य पैदा करने के लिहाज़ से उभारा गया था। एक सीन में लड़का जेनी को पटाने के लिए खुद के नॉन वेज होने का दावा करता है, लेकिन पाता है कि जेनी वेज है। इसी प्रकार से एक सीन में प्रेम जीसस से जेनी को पाने में मदद करने के लिए कहता है, क्योंकि हिन्दू देवता इससे खुश नहीं होंगे।
एक था टाइगर (२०१२)- जिन कबीर खान पर 'बजरंगी भाईजान' में लव जेहाद दिखाने का आरोप लग रहा है, उसी कबीर खान की फिल्म एक था टाइगर में भारतीय अंडरकवर एजेंट अविनाश (सलमान खान) पाकिस्तान की एजेंट ज़ोया (कटरीना कैफ) से प्यार करने लगता है। दोनों अपनी अपनी सरकारों को धोखा दे कर भाग निकलते हैं। यह फिल्म सरहद पार के रोमांस एक भिन्न उदाहरण है।
इशकज़ादे (२०१२)- यशराज फिल्म्स की बोनी कपूर के बेटे अर्जुन कपूर की लॉन्चिंग फिल्म 'इशकज़ादे' भी लखनऊ की पृष्ठभूमि पर हिन्दू लडके और मुस्लिम लड़की के रोमांस और राजनीतिक दांव पेच की दुखांत कहानी थी। इस फिल्म ने परिणीति चोपड़ा और अर्जुन कपूर को हिट कर दिया।
रांझणा (२०१३)- आनंद एल राज की फिल्म 'रांझणा' से दक्षिण के अभिनेता धनुष का डेब्यू हुआ था। फिल्म में वाराणसी के एक पंडित का बेटा कुंदन शंकर एक मुस्लिम लड़की ज़ोया हैदर से प्रेम करने लगता है। फिल्म में धनुष और सोनम कपूर ने इन किरदारों को किया था। यह फिल्म हिट हुई थी। धनुष बॉलीवुड में जम गए। रांझणा में एक मुस्लिम अभिनेता मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब ने चोटीधारी पंडित मुरारी का किरदार बड़ी स्वाभाविकता से क्या था।
लखनऊ के नवाबों का रोमांस ( १९६०- १९७२)- गुरुदत्त की फिल्म कागज़ के फूल फ्लॉप हो चुकी थी। गुरुदत्त बुरी तरह से टूट चुके थे। उन्होंने इस फिल्म पर अपना तन, मन और धन, सब कुछ लूटा दिया था। उनका बैनर शक के घेरे में था। गुरु का खुद पर से विश्वास तक उठ चुका था। ऐसे समय में उन्होंने लखनऊ के नवाबों की पृष्ठभूमि पर प्रेम त्रिकोण फिल्म चौदहवीं का चाँद की शुरुआत की। लेकिन, निर्देशक की कुर्सी पर बैठाया अपने दोस्त एम सादिक़ को। यह फिल्म सुपर हिट हुई। गुरुदत्त का बैनर बच गया। इसके साथ ही लखनऊ और उसके नवाबों की पृष्ठभूमि पर फिल्मों को सिलसिला चल निकला। चौदहवीं का चाँद में गुरुदत्त, रेहमान और वहीदा रेहमान ने मुख्य भूमिका की थी। इसके बाद नौशाद के संगीत से सजी अशोक कुमार, राजेंद्र कुमार, निम्मी, साधना और अमिता की मुख्य भूमिका वाली फिल्म मेरे महबूब प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को भी ज़बरदस्त सफलता हासिल हुई। इसके बाद, एक बाद एक अशोक कुमार, मीना कुमारी, शशि कपूर और तनूजा की फिल्म बेनज़ीर; सुनील दत्त, मीना कुमारी, रेहमान और पृथ्वीराज कपूर की फिल्म ग़ज़ल; राजेंद्र कुमार, वहीदा रेहमान और रहमान की फिल्म पालकी; अशोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार की फिल्म बहु बेगम; राजकुमार, माला सिन्हा और जीतेन्द्र की फिल्म मेरे हुज़ूर; राजेश खन्ना, लीना चंद्रावरकर और प्रदीप कुमार की फिल्म मेहबूब की मेहंदी; अशोक कुमार, राजकुमार और मीना कुमारी की फिल्म पाकीज़ा रिलीज़ हुई। इन सभी फिल्मों में लखनऊ, नवाब, इश्क़ और बलिदान ख़ास था। यह ज़्यादातर फ़िल्में बॉक्स ऑफिस और दर्शकों में नवाबों के रूमानी और रूहानी इश्क़ का जादू जगा पाने में कामयाब हुई थी।
कहते हैं कि इश्क़ की कोई भाषा नहीं होती। चाहे यह इश्क़ हो, प्यार हो या मोहब्बत हो, दर्शकों के ज़ेहन पर इसका जादू आसानी से चल जाता । कहते हैं इश्क़ अंधा होता है। तभी खूबसूरत मजनूं का काली लैला पर दिल आ जाता है। यह धर्म या जाति के बंधन नहीं मानता। इसके लिए वैश्या या तवायफ भी महबूब है।
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