Sunday 24 September 2017

हिंदी फिल्मों में रावण नहीं दशानन !

इस साल के अंत तक रिलीज़ होने वाली कुछ फिल्मों पर नज़र डालते हैं।  सीक्रेट सुपरस्टार, मुआवज़ा ज़मीं का पैसा, रांची डायरीज, आईएसआईएस: एनिमीज ऑफ़ ह्यूमैनिटी और २०१६ द एन्ड उल्लेखनीय हैं। यह फ़िल्में अलग पृष्ठभूमि पर समस्याओं के साथ हैं।  इन सभी फिल्मों में बुराई का रावण मौजूद है।  बेशक, इसका चेहरा बदला हुआ है।  सीक्रेट सुपरस्टार की एक मुस्लिम लड़की संगीत में रूचि रखती है।  आड़े आते हैं कट्टरवादी।  कैसे मुक़ाबला कर पाती है इंसु (ज़ायरा शेख) | रांची डायरीज एक छोटे शहर रांची की गुड़िया की है, जो शकीरा बनाना चाहती है।  उसके इस लक्ष्य का फायदा उठाना चाहता है एक स्थानीय गुंडा।  क्या गुड़िया सफल होती है? मुआवज़ा ज़मीन का पैसा किसानों से जुडी समस्या पर है।  सरकार किसानों की ज़मीन ले लेती है, लेकिन उसको मुआवज़े के लिए नौकरशाही और बिचौलियों के शोषण का शिकार होना पड़ता है।  आईएसआईएस आतंकवादी संगठन पर फिल्म होने के कारण आतंकवाद को निशाना बनाती है। इन सभी फिल्मों में बुराई का रावण है।  सीक्रेट सुपरस्टार में कट्टरवादी हैं, रांची डायरीज में स्थानीय गुंडा है, मुआवज़ा में  नौकरशाही और बिचौलिए हैं, एनिमीज ऑफ़ ह्यूमैनिटी में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस, रावण के ही रूप हैं।  आम आदमी, एक व्यक्ति या  व्यवस्था को इनसे जूझना है।  
भारतीय फिल्मों की शुरुआत राजा हरिश्चंद्र से हुई थी, जो सदा सच बोलते थे। धार्मिक किरदार मूक फिल्मों के लिहाज़ से कहानी समझाने वाले और अपीलिंग थे। यही कारण है कि इसके बाद ज़्यादा फ़िल्में धार्मिक या फिर ऐतिहासिक घटनाक्रमों पर बनाई गई।  पहली बोलती फिल्म आलम आरा एक राजकुमार के जिप्सी गर्ल से रोमांस पर फिल्म थी।  इस फिल्म में भी बुराई के रावण की प्रतीक राजा की पत्नी दिलबहार थी। चूंकि, भारत के जनमानस में धार्मिक और पौराणिक चरित्रों की अमिट छवि बनी है, रामायण और महाभारत की कहानियां हर कोई जानता है।  इसलिये, तमाम हिंदी फिल्मों में बुराई के प्रतीक रावण से सच्चाई और अच्छाई का राम  संघर्ष करता रहता था ।  
गाँव की गरीबी और ज़मींदार के शोषण का रावण 
हिंदी फिल्मों का लम्बा इतिहास ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली फिल्मों का रहा है।  फिल्म चाहे महबूब खान की रोटी या मदर इंडिया हो या बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन या फिर त्रिलोक जेटली की फिल्म गोदान, गरीबी और  ज़मींदार के शोषण का रावण हर फिल्म में था।  ज़मींदार किसान को क़र्ज़ देता, भारी सूद वसूलता, फिर ज़मीन ही हड़प लेता।  बेचारा किसान और  उसका परिवार बेघर हो जाता।  इन तमाम फिल्मों में रावण जीतता रहा, किसान का राम हारता रहा।  सिर्फ मदर इंडिया की औरत का संघर्ष  ही इस रावण को परास्त कर पाता था। रावण स्त्री लोलुप था।  हिंदी फिल्मों के रावण का  चरित्र भी वैसा ही था।  मिर्च मसाला, निशांत और अंकुर में इसका चित्रण हुआ था।  अलबत्ता श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर के क्लाइमेक्स में ज़मींदार के घर की खिड़की को बजाता हुआ पत्थर निशांत में ग्रामीणों के विरोध में बदल जाता है।  
वेश बदल कर  शहर आया 
सत्तर के दशक में शोषण और अन्याय का प्रतीक रावण गाँव से शहर आ जाता है।  लेकिन, उसका रवैया वही शोषक वाला रहता है।  अमिताभ बच्चन से लेकर सनी देओल और अनिल कपूर तक तमाम बॉलीवुड अभिनेताओं की फ़िल्में शहर के किसी गुंडे या उसके गिरोह या डॉन या अंडरवर्ल्ड की ज़्यादतियों का चित्रण करने के बाद अंत में नायक को जीतता दिखाती थी।  इन एक्शन फिल्मों का कथित राम हिंसा का हथियार पकड़ कर ही रावण को परास्त कर पाता  था।  ज़ंजीर में अमिताभ बच्चन का एंग्री यंग मैन आज का राम था और अजित का तेजा आधुनिक रावण।  यह राम और रावण युद्ध कमोबेश इसी उसी रूप में हर अगली हिंदी फिल्म में नज़र आता रहा।  
फिल्मों की सीतायें भी रावण के खिलाफ 
अस्सी के दशक से हिंदी फिल्मों के रावण का चेहरा बदलने लगा, इसके साथ ही राम का चेहरा भी। अभी तक हिंदी फिल्मों में रावण का मुक़ाबला करने में अकेला राम सामने आता था।  अब राम का युद्ध धर्मयुद्ध बन गया था।  सीता ने भी राम का रूप धर लिया था।  मिर्च मसाला, लज्जा, दामिनी, डोर, फिर मिलेंगे, मातृभूमि, गुलाब गैंग, आदि फ़िल्में तमाम उदाहरणों में कुछ एक हैं, जिनमे फिल्म की नायिकाएं अपने रावणों को ख़त्म करने के लिए कमर कस रही थी। मिर्च मसाला में मसाला बनाने महिलाएं लम्पट जमींदार का खात्मा करने के लिए एकजुट हो जाती थी।  लज्जा की चार औरते अपने मर्दों की ज़्यादतियों के खिलाफ उठ खडी  होती हैं।  दामिनी की नायिका बलात्कार की शिकार अपने घर की नौकरानी को न्याय दिलाने के लिए ससुराल और पति के खिलाफ आवाज़ उठाती है।  अलबत्ता, इस काम में उसका साथ एक शराबी वकील सफलतापूर्वक देता है। डोर का कथानक पुराना लग सकता है।  लेकिन, इसकी विधवा नायिका का अपनी एक मित्र के साथ  गांव समाज की बुराइयों से लड़ने का  जज़्बा किसी को भी प्रेरित कर सकता है।  
फिर मिलेंगे की कहानी एड्स से ग्रस्त लोगों के सामाजिक उपेक्षा के बीच अपना मुकाम बनाने की है। गुलाब गैंग की महिलाएं अपने गाँव की मर्दों के ज़्यादतियों के खिलाफ लड़ने वाली महिलाओं को अपने लट्ठ के बल पर इन्साफ दिलाती है।  मर्दानी में पुलिस ऑफिसर शिवानी शिवाजी रॉय नाबालिग लड़कियों को बेचने वाले रावणों का खात्मा करती है। 
भ्रष्टाचार और आतंकवाद का रावण 
हिंदी फिल्मों में रावण के कई रूप हैं।  समाज में भ्रष्टाचार, आतंकवाद, माफिया-डॉन नेता नेक्सस, महंगाई, चोरबाज़ारी, आदि ढेरों बुराइयों के रावण दसों सिरों के साथ मौजूद हैं। सिस्टम में भ्रष्टाचार पर ढेरों फ़िल्में बनाई गई हैं।  इन फिल्मों में  अर्द्ध सत्य, मेरी आवाज़ सुनो, शूल, जाने भी दो यारों, गंगाजल, रण, सत्याग्रह, रंग दे बसंती, आदि उल्लेखनीय हैं।  इन फिल्मों का नायक प्रशासन और राजनीति में भ्रष्टाचार और गठजोड़  का खात्मा करता है।  सलमान खान की जय हो और अक्षय खन्ना की  गली गली में चोर है में भ्रष्टाचार के खिलाफ आम जनता को जगाया जाता है।  उड़ता पंजाब,  फैशन, देव डी, शैतान, पंख, दम मारो दम, गो गोवा गॉन, आदि फिल्मों में नशे के रावण से लड़ते नायक-नायिका थे, जो हारते भी थे और जीतते भी।  पर उनका संघर्ष जारी रहता था।  ब्लैक फ्राइडे, अ वेडनेसडे, दिल से, मुंबई मेरी जान, रोजा, आमिर, सरफ़रोश, न्यू यॉर्क,  नीरजा, द्रोह  काल, बेबी, ज़मीन, दस, हॉलिडे अ सोल्जर नेवर ऑफ ड्यूटी, आदि फ़िल्में उन बहुत सी फिल्मों का उदाहरण मात्रा हैं, जीनके  नायक-नायिका आतंकवाद से जूझ रहे थे।  

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